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पिछले दिनों पटना में गुरु गोबिंद सिंह जी के 350वें प्रकाश उत्सव का आयोजन हुआ। इस आयोजन से कुछ दिन पूर्व नवंबर में एक फिल्म भी प्रदर्शित हुई थी, 'चार साहिबजादे-द राइज ऑफ बंदा सिंह बहादुर'। यह फिल्म 2014 में आई उस फिल्म 'चार साहिबजादे' का अगला भाग है जिसमें गुरु गोबिंद सिंह के चार पुत्रों की वीरता और शहादत को दिखाया गया था। ये दोनों एनिमेशन फिल्म हैं। लेकिन दोनों को दर्शकों ने खूब सराहा। पहले वाली 'चार साहिबजादे' की सफलता का पता इस बात से ही लगता है कि 20 करोड़ रु. की लागत से बनी इस फिल्म ने 70 करोड़ की कमाई की। एनिमेशन में बनी किसी भी भारतीय फिल्म की कमाई का यह एक नया आयाम रहा।
फिल्म की सफलता से प्रेरित होकर निर्देशक हैरी बावेजा ने अब इसकी अगली कड़ी बनाई है। पहले की तरह इस बार भी यह फिल्म पंजाबी के साथ अंग्रेजी और हिंदी में बनी है। फिल्म को बड़ा कैनवास देने के लिए इसे 2डी के साथ 3डी तकनीक पर बनाया गया है। हैरी बावेजा ने इसका कथानक संतुलित होकर लिखा ही है, इसके संवादों और घटनाक्रम का भी बारीकी से ध्यान रखा है। यहां तक कि जिन कलाकारों ने फिल्म के एनीमेशन पात्रों को अपना स्वर दिया है, उनका नाम भी स्पष्ट नहीं किया। हालांकि फिल्म के सूत्रधार के रूप में अभिनेता ओम पुरी की दमदार आवाज को सुगमता से पहचाना जा सकता है।
'चार साहिबजादे-राइज ऑफ बंदा सिंह बहादुर' यानी बंदा बहादुर सिंह के उदय को दर्शाने वाली इस फिल्म पर और बात करने से पहले यह बता दें कि यह फिल्म वहीं से आरंभ होती है जहां पहली फिल्म 'चार साहिबजादे' समाप्त हुई थी। फिल्म का पहला भाग के 10वें और अंतिम गुरु गोबिंद सिंह जी के चार पुत्रों—जोरावर सिंह, अजित सिंह, फतह सिंह और जुझार सिंह की बलिदान गाथा है कि वे किस प्रकार धर्म के पथ पर शहीद हो जाते हैं। करीब दो साल पहले आई उस फिल्म को हैरी बावेजा ने काफी शोध के बाद बनाया था। पिछले करीब 25 वषोंर् से फिल्म निर्माण-निर्देशन में लगे हैरी बावेजा मूलत: लुधियाना से हैं। इसलिए उनका पंजाब के प्रति खास लगाव होना स्वाभाविक है। इससे पहले धर्मेन्द्र, अजय देवगन, सनी देओल,अनुपम खेर, सोनाली बेंद्रे,अमीषा पटेल, सुष्मिता सेन, रवीना टंडन, शिल्पा शेट्टी जैसे सितारों के साथ फिल्म बना चुके हैरी 2008 में प्रदर्शित अपनी फिल्म 'लव स्टोरी 2050' के लिए भी चर्चित हुए थे।
बावेजा ने 'चार साहिबजादे' बनाईं थी तब उन्होंने एक बातचीत में बताया था—''इस फिल्म के लिए मैं उत्तर भारत सहित उन बहुत से स्थानों पर गया जो फिल्म की कहानी में हैं। हालांकि 18वीं शताब्दी और उसके बाद के कई छोटे-बड़े युद्धों आदि के कारण उस दौर के कई प्रमाण नष्ट हो चुके थे फिर भी मैंने कई प्रकार के प्रामाणिक तथ्य और जुटाए। उन स्थानों के चित्र लिए जहां गुरु गोबिंद सिंह जी गए। एक सिख परिवार ने गुरु गोबिंद सिंह जी के कुछ हथियार सुरक्षित रखे हुए हैं, उससे भी हमको सहायता मिली और हमने वैसे ही धनुष-बाण और अन्य हथियारों के डिजाइन बनवाए। यहां तक कि हमने वह पेड़ भी दिखाया जिसके नीचे बैठ गुरु महाराज ने कुछ देर विश्राम किया था।''
'चार साहिबजादे-2' फिल्म मुख्यत: सिख योद्धा बंदा सिंह बहादुर के उदय और वीरता की गाथा है। इतिहास में बंदा बहादुर का नाम सिखों के पहले सेनापति के रूप में भी लिया जाता है जिन्होंने मुगलों के अहंकार को तोड़ने के साथ उन्हें पराजित कर प्रथम खालसा साम्राज्य की स्थापना की थी। सिख योद्धा के रूप में बंदा बहादुर का सक्रिय जीवन करीब 8 बरस ही रहा, लेकिन इतने कम समय में से उन्होंने मुगलों को ऐसी धूल चटाई कि जिसकी मिसालें दी जाती रही हैं।
फिल्म में दिखाया गया है कि 1705 में पंजाब सरहिंद में नवाब वजीर खान सिखों पर जुल्म ढा रहा है। सिखों के अपना धर्म न बदलने और उसका हुक्म न मानने पर वह जालिम अनेक सिखों की हत्या कर देता है। उसके अत्याचार से सभी परेशान हैं। गुरु गोबिंद सिंह के साहिबजादों की शहादत के बाद वह गुरुजी को अपनी गिरफ्त में लेकर सिखों का अंत करने के ख्वाब बुन रहा है।
उधर कुछ वर्ष पहले एक युवा लक्ष्मण देव एक घटना से प्रभावित होकर घर-परिवार छोड़ तपस्या के लिए निकल जाता है। अपनी तपस्या के बाद वह ऋषि माधोदास के रूप में चर्चित हो जाता है। लेकिन एक बार जब गुरु गोबिंद सिंह नांदेड़ पहुंचते हैं तो उनसे मिलकर माधोदास के जीवन का ध्येय बदल जाता है। गुरुजी उसे सिख धर्म से जोड़ते हुए उसे गुरबक्श सिंह नाम देते हैं। तंत्र-मंत्र और तीरंदाजी आदि में दक्ष गुरबक्श सिंह को सिख धर्म और मानवता की रक्षा के लिए कुछ और शस्त्र कलाओं में प्रशिक्षित किया जाता है। गुरुजी गुरबक्श सिंह की बहादुरी देख उसे बहादुर की उपाधि देते हैं। उन्हें धर्म की रक्षा के लिए जैसे बंदे की आवश्यकता थी, वैसा बंदा उन्हें मिल जाता है। इसी के साथ पहले लक्ष्मण देव जहां माधोदास कहलाये, फिर गुरबक्श सिंह और अब बंदा सिंह बहादुर बन जाते हैं। इसी दौरान बंदा बहादुर को यह ज्ञात होता है कि गुरुजी को चोट पहुंचाने की नाकामी से हताश वजीर खान उनके दो पुत्रों को जिंदा ही दीवार में चिनवा देता है। साथ ही यह भी कि वजीर खान आतंक की सीमायें लांघता जा रहा है। वह उससे बदला ले उसका खात्मा करने के लिए बेताब हो उठते हैं। बंदा बहादुर का जोश देख गुरु गोबिंद सिंह उन्हें अमृत चखा वजीर खान से युद्ध करने का आदेश दे देते हैं। बंदा सिंह गुरु का आदेश पाकर अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए निकल पड़ते हैं। उनकी इस यात्रा में उनका परिचय करवाने वाला एक संवाद सभी में जोश भरता है-'मजलूमों के वे दोस्त हैं, नेकी उनकी पहचान है, उस गुरु का आशीर्वाद लेकर जो निकले बंदा सिंह बहादुर मेरा नाम है।'
फिल्म के कथानक के अनुसार, गुरु गाोबिंद सिंह को इस बात की आशंका हो जाती है कि आगे की इस यात्रा में वह बंदा सिंह के साथ नहीं होंगे और लोगों को मुगलों से अब बंदा के नेतृत्व में ही लोगों को लड़ाई लड़नी होगी। होता भी ऐसा ही है। गुरु गोबिंद सिंह यह घोषणा तो पहले ही कर चुके होते हैं कि उनके बाद कोई इंसान सिख गुरु नहीं बनेगा। आगे से गुरु ग्रंथ साहिब ही सिख गुरु बन सभी को मार्ग दिखायेंगे। वे पंज प्यारों की संगत में बंदा बहादुर को यह जिम्मेदारी सौंपने के साथ सभी को यह फरमान भिजवा देते हैं कि बंदा सिंह का सभी साथ दें।
बंदा बहादुर अपने शौर्य और साहस से मुगल सैनिकों को जबरदस्त टक्कर दे उन्हें भागने पर मजबूर कर देता है। यह देख सभी लोग खुशी से झूम उठते हैं। लेकिन बंदा बहादुर उन्हें समझाते हैं कि ज्यादा खुश होने की जरूरत नहीं है, जब तक वजीर खान जिंदा है तब तक आजादी नहीं मिलने वाली। इसलिए यह लड़ाई सभी को मिलकर लड़नी पड़ेगी। उनकी इस अपील का सभी पर अच्छा असर होता है और एक छोटी टोली में निकले बंदा बहादुर के साथ हजारों लोग जुड़ते चले जाते हैं। वजीर खान को अपनी भारी-भरकम सेना, तोप, गोलों और बारूद पर बहुत गुमान होता है, लेकिन बंदा बहादुर लोगों के सहयोग और अपनी वीरता से यह लड़ाई जीत लेते हैं। वजीर खान का खात्मा हो जाता है। बंदा बहादुर खालसा राज स्थापित कर सभी को बराबरी का दर्जा दे, कई कल्याणकारी कार्य करते हैं।
2 घंटे 15 मिनट की यह खूबसूरत फिल्म शुरू से अंत तक दर्शकों को बांधे रखती है। एनीमेशन के बावजूद फिल्म के इतने प्रभावशाली होने का प्रमुख कारण इसकी कहानी तो है ही, जिसमें वीर, करुणा, वीभत्स, रौद्र और भक्ति रस के वे तमाम तत्व समाहित हैं जो फिल्म को सशक्त बनाते हैं। फिल्म का एनिमेशन कुल मिलाकर अच्छा है। इसके पात्र सजीव लगते हैं। संवाद अच्छे हैं जो सिख धर्म की महानता दिखाने के साथ सिख बालकों की वीरता और निर्भयता भी दर्शाते हैं। कुछ संवाद तो सीधे दिल में उतर जाते हैं, जैसे—''यदि आपकी मौत औरों के लिए प्रेरणा नहीं बन सकती तो शहीद होने का कोई मतलब नहीं। '' दिल हिला देने वाले एक दृश्य में जब मुगलों का एक जल्लाद बंदा बहादुर को तलवार देते हुए कहता है कि बादशाह ने तुमको अपने इस बेटे का सिर कलम करने का फरमान भेजा है, तब बंदा सिंह कहते हैं—''सिंह औरतों और बच्चों पर वार नहीं करते, ़इस हैवानियत में तो तुम्हें महारत हासिल है।'' तब वह जल्लाद खुद ही उनके सामने उनके तीन साल के बच्चे का कत्ल करने के लिए आगे बढ़ता है। तब बंदा बहादुर बच्चे से पूछते हैं- ''डर तो नहीं लग रहा?'' बच्चा जवाब देता है-''डर, वो क्या होता है?'' कहना न होगा कि फिल्म सिख इतिहास और उनके आदशोंर् पर गहनता से प्रकाश डालती है। -प्रदीप सरदाना
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