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बंगाल करीब महीने भर से गलत कारणों से चर्चा में है। चर्चा का यह विषय लोगों की आपसी बातचीत में है, सोशल मीडिया पर है, लेकिन देश का मुख्यधारा मीडिया लगभग चुप्पी साधे हुए है। पहले सेना के ऑपरेशन को लेकर भद्दी टिप्पणियां, फिर हिंदू बहुल गांवों पर हमले और लूटमार, इसके बाद पत्रकारों पर मुकदमे और अब प्रधानमंत्री के खिलाफ फतवा। बंगाल में वह हर बात हो रही है जो आम नहीं है, फिर भी देश का मुख्यधारा मीडिया इसे बेहद सहज रूप से ले रहा है। कोलकाता और बंगाल के तमाम दूसरे शहरों में भाजपा के कार्यालयों और समर्थकों के घरों पर हमले हुए। बड़ी संख्या में लोग घायल हुए और संपत्ति को भी नुकसान पहुंचा। लेकिन चैनलों ने इसे बंगाल के स्थानीय समाचारों की तरह इसकी थोड़ी सी झलक दिखाई और फिर अपने दूसरे कार्यक्रमों में लग गए। अखबारों की कवरेज और भी चौंकाने वाली रही। किसी को भी यह राजनीतिक हिंसा अलोकतांत्रिक नहीं लगी। किसी भी चैनल या अखबार में इस हिंसा को लेकर कोई व्यापक बहस कराने या विश्लेषण की कोशिश नहीं दिखी। देश के तथाकथित बड़े पत्रकार विरोध दर्ज कराने की रस्मअदायगी मात्र करके आगे बढ़ गए।
यह विचित्र स्थिति है जब भ्रष्टाचार में फंसी राजनीतिक पार्टी के नेता और कार्यकर्ता बिना किसी उकसावे के दूसरे दल के कार्यालयों पर छापामार हमले कर रहे हैं और मीडिया के लिए यह एक रुटीन समाचार है। इसके बाद तब हद हो गई जब कोलकाता की एक मस्जिद के इमाम ने प्रधानमंत्री के खिलाफ फतवा जारी कर डाला। खाप पंचायतों के छोटे-मोटे फरमानों पर आसमान सिर पर उठा लेने वाले मीडिया को इस फतवे की गंभीरता समझने में ही 24 घंटे लग गए।
यह एक खुली धमकी थी, जिसे किसी दूसरे देश में बड़ा अपराध माना जाता। कुछ तो कारण है कि हमारा मीडिया ऐसे मामलों को लेकर बहुत पक्षपाती है। साक्षी महाराज ने संतों के एक कार्यक्रम में समान नागरिक संहिता की वकालत करते हुए 4 बीवी और 40 बच्चे के नारे का जिक्र कर दिया तो बिना उनकी पूरी बात सुने सभी चैनलों ने इसे 'विवादित टिप्पणी' बता दिया। सभी चैनलों पर इसे लेकर लंबे-लंबे कार्यक्रम हो गए, लेकिन बड़ी चालाकी ने उन मुद्दों को गायब कर दिया गया, जिसके संदर्भ में यह बात कही
गई थी। सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव में जाति और धर्म के आधार पर वोट मांगने को असंवैधानिक करार दिया है। यह एक बड़ी पहल है। उम्मीद है कि अब जाति और धर्म के आधार पर वोट डालने के फतवे बंद होंगे। लेकिन उन समाचार चैनलों और अखबारों का क्या होगा, जो अब भी जाति और धर्म के आधार पर ही चुनावों का विश्लेषण कर रहे हैं। विधानसभा चुनाव की तारीखों की घोषणा के बाद कई चैनलों ने अपने सर्वेक्षण दिखाए। इन सर्वेक्षणों के ईद-गिर्द होने वाली बहसों में एंकर से लेकर विशेषज्ञ तक खुलकर जातीय और धार्मिक समीकरण बिठाते देखे जा सकते हैं। आजतक न्यूज चैनल पर समाचार वाचक ने एक कार्यक्रम में बार-बार दोहराया कि 'मुसलमान किसको वोट देंगे?'
समाजवादी पार्टी को या बहुजन समाज पार्टी को?' राजनीतिक दल तो चुनाव में जाति और धर्म का इस्तेमाल बंद कर देंगे, लेकिन इस मुद्दे पर मीडिया पर कौन बंदिश लगाएगा? देश के तथाकथित बड़े पत्रकारों और मीडिया संगठनों से तो इस संवेदनशीलता की उम्मीद नहीं की जा सकती।
उधर नोटबंदी को लेकर भ्रम फैलाने का खेल अब भी जारी है। हालत यह है कि अलग कारणों से आने वाली बुरी खबरों को भी नोटबंदी का नतीजा बताया जा रहा है। कई बार ऐसा लगता है कि मीडिया को इस मसले पर सिर्फ बुरी खबरों का इंतजार है। सरकार ने इस वित्तीय साल के लिए विकास दर के अनुमान को 7.6 से घटाकर 7.1 किया तो कई चैनल चहक उठे। एबीपी चैनल ने तो ब्रेकिंग न्यूज चलाना शुरू कर कर दिया कि 'विकास दर में भारी गिरावट'। यह शोध का विषय है कि चैनल ऐसी गलतियां पत्रकारों के अर्थशास्त्र का बुनियादी ज्ञान न होने के कारण करते हैं या कोई एजेंडा चलाने के लिए। यहां तक कि इस मुद्दे पर राष्ट्रपति के बयान को भी सरकार की आलोचना के तौर पर बताया गया, जबकि पूरा बयान देखें तो राष्ट्रपति ने वही बातें कही हैं जो एक संवैधानिक मुखिया के तौर पर उन्हें कहनी चाहिए। नोटबंदी और उसके बाद नकदी रहित लेन-देन को लेकर कई अच्छी खबरें हैं। लेकिन ये सब मुख्यधारा मीडिया से गायब हैं। एक सोचे-समझे तरीके से सिर्फ नकारात्मक रिपोर्ट दिखाई और छापी जा रही हैं। इस एकतरफा झुकी हुई पत्रकारिता से आखिरकार देश को ही नुकसान होगा।
नए साल पर बंगलुरु में महिलाओं के साथ हुई अभद्रता का मुद्दा भी मीडिया में छाया रहा। लेकिन इसके लिए भी चैनलों को 'एक्सपर्ट' के तौर पर ऐसा व्यक्ति ही मिला जो सीधे 'बिग बॉस' के घर से आया था। वहां उसे महिलाओं से बदतमीजी के आरोप में ही निकाला गया था। छेड़खानी और बलात्कार जैसे संवेदनशील विषयों पर ज्यादातर चैनलों ने जैसे कार्यक्रम दिखाए, वे चिंता का विषय हैं। टीआरपी के लिए लगभग सभी चैनल कुछ भी करने को तैयार हैं। ये चैनल दर्शकों की नजर में क्यों हास्यास्पद होते जा रहे हैं, समझना बहुत मुश्किल नहीं है।
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