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'धर्म और राजनीति के दायरे अलग-अलग हैं, पर दोनों की जड़ें एक हैं, धर्म दीर्घकालीन राजनीति है और राजनीति अल्पकालीन धर्म है। धर्म का काम है, अच्छाई करे और उसकी स्तुति करे। राजनीति का काम है बुराई से लड़े और उसकी निंदा करे। जब धर्म अच्छाई न कर केवल स्तुति भर करता रहे तो वह निष्प्राण हो जाता है और राजनीति जब बुराई से लड़ती नहीं केवल निंदा भर करती है तो वह कलही हो जाती है। इसलिए आवश्यक है कि धर्म और राजनीति के मूल तत्व समझ में आ जाएं। धर्म और राजनीति का अविवेकी मिलन दोनों को भ्रष्ट कर देता है, फिर भी जरूरी है कि धर्म और राजनीति एक दूसरे से संपर्क न तोड़ें, मर्यादा निभाते रहें।'
– डॉ राममनोहर लोहिया
ऐसे समय में, जब 'परिवारी दरारें' समाजवादी साइकिल के अंजर-पंजर हिला रही हैं, एक निढाल दल के नौसिखुआ युवराज की अबूझ पैंतरेबाजी खुद उनके दल में हौल बैठा रही है और अल्पसंख्यकों के एकमुश्त वोटों को हथियाने के लिए हर तरकीब आजमाई जा रही है, ऐसे में भारतीय लोकतंत्र के डॉ. लोहिया जैसे खरे लोगों की बात ज्यादातर राजनीतिक दलों को असहज कर सकती है। आश्चर्य नहीं होना चाहिए यदि डॉ. लोहिया की ऐसी बातों से सबसे ज्यादा समाजवादी ठप्पे वाले कतराएं।
संपर्क की बजाए राजनीति और आस्था की गड्डमड्ड और मर्यादा को तार-तार कर भारी मारामार! इसमें वाद कहां है और संवाद कहां? तुष्टीकरण का चारा, विवादों का हांका और मतदाता के लिए हल्लाबोल! क्या यह वह राजनीति है जिसकी कल्पना इस देश को स्वतंत्रता दिलाने वालों और संविधान निर्माताओं ने की थी?
सपा में दरार पड़ी तो अल्पसंख्यक मत भुनाने की बेचैनी में बसपा ने ऐसी दौड़ लगाई कि उम्मीदवारों की पहली सूची जारी होने के बाद उसका हर बार का पक्का मतदाता भी शंकाओं से भर गया? क्या वंचितों के पुष्टिकरण का दम भरते राजनीतिेक विकल्प भी मुस्लिम तुष्टीकरण का औजार होकर रह जाएंगे?
उधर, राज्य सरकार के काम-काज का हिसाब लेने वाली बहस को अपने परिवार के सिर्फ एक, और अपेक्षाकृत सबसे साफ चेहरे पर केंद्रित करने की जुगत में उत्तर प्रदेश का सबसे दमदार यादव परिवार कलह का पर्याय बन गया। लड़ाई अब उस कगार पर है जहां से साईिकल का हैंडल चाहे जिस हाथ में रहे, मुस्लिम-यादव समीकरण के पहिए से चेन उतरने की आशंका ने सबके चेहरे उतार दिए हैं। कुनबा भीतर से एक नहीं है, यह बात नीचे तक उतर गई तो सत्ता का पानी उतर जाएगा, हनक बिखर जाएगी! तब सवाल यह नहीं होगा कि अखिलेश और शिवपाल क्या करेंगे, यह होगा कि आजम क्या करेंगे!
क्या मुसलमान सिर्फ सत्ता का फेवीकोल हैं? उन्हें पहले सबसे अलग छांटकर, फिर उनकी पेशबंदी के लिए खुद को आगे करने वाली राजनीति ने क्या वास्तविक अल्पसंख्यक हितों को पीछे नहीं ठेल दिया?
खैर, अब बात उनकी जो उस मैदान की लड़ाई में तो सबसे पीछे हैं, लेकिन आस्था से राजनीतिक खिलवाड़ करते हुए सबसे आगे निकल गए। कांग्रेस के युवराज अपनी गुपचुप छुट्टियों से लौटे। वह 'ताजादम' होकर लौटे हैं। इसका प्रमाण यह है कि जिस भ्रमित मानसिकता और पार्टी डुबाऊ गड़बड़ बयानों के लिए उनकी पहचान है, वह फिर हवा में तैरने लगे हैं। राहुल का दावा है कि 'शिवजी हों या गुरुनानकदेव, महावीर हों या बुद्ध और अली, सबमें कांग्रेस का निशान दिखता है।' अब ऐसी समझ से तो भगवान ही बचाए! इसे क्या कहेंगे?
आस्था और श्रद्धा के अन्यतम पुञ्जों में जिन्हें अपनी कुनबा राजनीति का दलीय प्रतीक ही नजर आया, उस नजर को क्या कहेंगे?
गलती, बचकानापन, धूर्तता या मूर्खता!! कुछ भी कहिए, लेकिन इन चार बिल्लों में से कोई भी राजनीति के उस कुर्ते पर तो नहीं ही टांका जा सकता जिसे उनकी पार्टी के लोग भविष्य की किसी संभावना के तौर पर देख रहे हों!
पांच राज्यों के चुनाव की डुगडुगी बजने के बाद कुछ तमाशे तो होने ही थे। शुरुआत भले सपा के कुनबे से हुई लेकिन सबसे ज्यादा करतब दिखे 'जन वेदना सम्मेलन' में। सपा की टूटन, बसपा की छटपटाहट और कांग्रेस उपाध्यक्ष के बयान और कुछ नहीं बल्कि सत्ता में गहरे जा धंसी स्वार्थी समझ व उस छोटेपन का प्रतीक हैं जिसने किसी एक दल की साख ही नहीं गिराई बल्कि लोकतांत्रिक राजनीति की उस उच्च भावना को पैंदे में बैठा दिया जिसका सपना भारतीय लोकतंत्र के पुरखों ने देखा था।
पुरखों की वह भावना और भावनाएं भुनाने के ये खेल…पांचों राज्यों के मतदाता सब देख रहे हैं। चुनाव और इनके परिणाम जनता के लिए, इस देश के लिए शुभ हों।
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