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कभी पहलवान रहे मुलायम सिंह यादव को घरेलू अखाड़े में जबरदस्त चुनौती मिल रही है। समाजवादी पार्टी (सपा) में पिता- पुत्र का विवाद चुनाव आयोग की न्यायिक प्रक्रिया में उलझ चुका है। दोनों पक्ष पीछे हटने को तैयार नहीं हैं। हालांकि इस बीच कई बार मुलायम नरम पड़ते दिखे, कई दौर की बातचीत भी हुई। कई बार पिता-पुत्र की अकेले में वार्ता हुई मगर नतीजा हर बार सिफर ही रहा। रामगोपाल यादव चाहते हैं कि विवाद का फैसला चुनाव आयोग के माध्यम से आए, जबकि मुलायम चाहते हैं कि अगर उन्हें निर्विवाद रूप से राष्ट्रीय अध्यक्ष मान लिया जाए तो बाकी मसले ज्यादा बड़े नहीं हैं, उन्हें आसानी से हल किया जा सकता है। मगर राष्ट्रीय अध्यक्ष के मसले पर बात नहीं बन पा रही है और अब दोनों पक्षों को चुनाव आयोग के फैसले का इंतजार है।
इस झगड़े का सबसे दिलचस्प पहलू यह है कि पहले विवाद चाचा और भतीजे के बीच चल रहा था। गत वर्ष सैफई महोत्सव की शुरुआत के ठीक पहले शिवपाल यादव ने आनंद भदौरिया और सुनील यादव को पार्टी से छह वर्ष के लिए निष्कासित कर दिया था। इससे नाराज मुख्यमंत्री अखिलेश यादव सैफई महोत्सव के उद्घाटन में नहीं गए। यह मामला चर्चा में आ गया और पार्टी की अंदरूनी कलह सतह पर आ गई। कलह को दबाने के लिए शिवपाल ने उन दोनों को पुन: पार्टी में वापस ले लिया।
बता दें कि आनंद भदौरिया और सुनील यादव अखिलेश के अत्यंत निकटस्थ लोगों में से हैं। चर्चा यहां तक थी कि अखिलेश इन दोनों को मंत्री बनाना चाहते थे। इसीलिए दोनों को विधान परिषद् का चुनाव लड़वाया गया। वर्तमान में दोनों विधान परिषद् के सदस्य हैं।
कुछ महीने पहले अखिलेश यादव ने कुख्यात डॉन मुख्तार अंसारी की पार्टी का सपा में विलय कराने से मना कर दिया था। इसके बावजूद शिवपाल यादव और कैबिनेट मंत्री बलराम यादव की पहल पर मुख्तार की पार्टी का सपा में विलय कराने की तैयारी कर ली गई थी। इसकी खबर लगते ही अखिलेश ने बलराम यादव को मंत्रिमंडल से बरखास्त कर दिया। बरखास्तगी के बाद मीडिया के सामने बलराम यादव के आंसू छलक आए। वे करीब तीन दशक से मुलायम सिंह के साथ हैं। मुलायम सिंह के हस्तक्षेप के बाद अखिलेश ने उन्हें एक बार फिर से मंत्रिमंडल में शामिल कर लिया।
यह सब कुछ चल ही रहा था कि शिवपाल यादव की पहल पर अमर सिंह की सपा में वापसी हो गई। उन्हें राज्यसभा की अपनी सदस्यता बचानी थी। मुलायम सिंह ने उन्हें फिर से सपा के कोटे से राज्यसभा में भेज दिया। अमर सिंह की वापसी के बाद से ही अखिलेश की परेशानी पर बल पड़ गए। इन सब प्रकरणों तक ऐसा लग रहा था कि चाचा शिवपाल यादव ही अखिलेश यादव की राह का रोड़ा बने हुए हैं।
माना जाता है कि गायत्री प्रजाप्रति की खनन मंत्री के पद से बरखास्तगी और मुख्य सचिव दीपक सिंघल को हटाए जाने के बाद शिवपाल ने मुलायम सिंह से बात की। सूत्रों का कहना है कि शिवपाल और अमर सिंह ने मुलायम पर दबाव बनाया कि वे अखिलेश को हटाकर मुख्यमंत्री की कुर्सी पर खुद ही आसीन हों। अक्तूबर, 2016 में हुई पार्टी की बैठक में शिवपाल यादव ने अपने भाषण में कहा भी था कि 'अब नेता जी आप ही सब कुछ संभालिए', मगर उस समय मुलायम ने अखिलेश को शिवपाल के गले लगने को कहा और मामले को फिर एक बार समझौते की तरफ ले जाने की कोशिश की।
उस बैठक से पहले तक एक चर्चा यह भी थी कि अखिलेश दीवाली के पहले तक अपनी नई पार्टी बनाएंगे, जिसका नाम 'प्रोग्रेसिव समाजवादी पार्टी' होगा और मोटरसाइकिल उसका चुनाव चिह्न होगा। मगर उस बैठक में अखिलेश यादव ने कहा, ''मैं पार्टी कभी नहीं तोडूंगा, पार्टी में रहकर संघर्ष करूंगा, क्योंकि मेरा भी करियर बर्बाद हुआ है, अब इस उम्र में कौन-सा दूसरा काम करूंगा।''
इसके बाद शिवपाल ने कहा, ''जब मेरे सारे विभाग छीन लिए गए थे तो मैं मुख्यमंत्री से मिलने गया और उनसे कहा कि विभाग तो सब ले लिए हो, कुछ बचे हैं, उनको भी ले लो। मुख्यमंत्री ने कहा कि उन विभागों में कोई काम नहीं है, उनको अपने पास बनाए रखिएगा। जब मैं चलने लगा तो मुख्यमंत्री ने कहा कि हम (अखिलेश) अलग पार्टी बनाएंगे और किसी दल से समझौता करके लड़ेंगे। यह बात मैं हाथ में गंगा जल लेकर कह सकता हूं कि पार्टी तोड़ने की बात मुख्यमंत्री ने कही थी।''
बहरहाल, गायत्री प्रजापति की बहाली के बाद मामला टल गया था। हांलाकि अखिलेश ने यह कहा था कि मुझसे प्रदेश अध्यक्ष का पद लिया गया था, उसे वापस नहीं किया गया है। उस समय तक ऐसा लग रहा था कि यह विवाद चाचा और भतीजे के बीच है। मगर जैसे ही मुलायम सिंह यादव ने पार्टी प्रत्याशियों की पहली सूची जारी की, विवाद ने एक बार फिर से तूल पकड़ लिया। मुलायम की सूची में कैबिनेट मंत्री राम गोविंद चौधरी, पवन पांडेय और अरविंद सिंह गोप के नाम नहीं थे। इसके बाद मुख्यमंत्री ने अपने प्रत्याशियों की एक अलग सूची जारी कर दी।
इसके बाद तो पिता-पुत्र का विवाद खुलकर सामने आ गया। तस्वीर साफ हो गई कि मुलायम सिंह यादव अपने भाई शिवपाल यादव को किसी भी कीमत पर छोड़ने को तैयार नहीं हैं। मुलायम ने मंत्री पद पर गायत्री प्रजापति को बहाल कराने के बाद भी अखिलेश से छीना गया प्रदेश अध्यक्ष पद उन्हें वापस नहीं दिया था। इधर प्रदेश अध्यक्ष बनने के बाद शिवपाल यादव ने एक – एक करके अखिलेश के करीबियों को ठिकाने लगा दिया।
टिकट बंटवारे की पहली सूची जारी होने के बाद पिता-पुत्र खुल कर आमने-सामने हो गए। इसके साथ ही यह पुराना मिथक टूट गया कि पिता अपने पुत्र का हर हाल में समर्थन करेगा। इस विवाद की असली वजह यह है कि मुलायम सिंह यादव किसी भी कीमत पर अखिलेश को मुख्यमंत्री पद का चेहरा घोषित करने को तैयार नहीं हैं। जब अखिलेश को यह एहसास हो गया कि उन्हें मुख्यमंत्री पद का चेहरा नहीं घोषित किया जा रहा है और बहुमत मिलने की दशा में विधानमंडल दल जिसको नेता चुनेगा, वही मुख्यमंत्री बनेगा। इसके बाद वे काफी बेचैन हो गए और वे बार-बार यह कहते रहे कि चुनाव मेरे चेहरे पर लड़ा जाए। मैंने पूरे प्रदेश में विकास किया, पांच वर्ष तक मैं मुख्यमंत्री रहा हूं। पूरे चुनाव में मेरे ही किए गए कायार्ें पर पार्टी के नेता वोट मांगेंगे। मगर मुलायम सिंह यादव ने लोकतांत्रिक प्रक्रिया का हवाला देकर उन्हें मुख्यमंत्री प्रत्याशी घोषित करने की बात को टाल दिया। मुलायम ने कहा कि हमारी पार्टी में चेहरा घोषित करने की परंपरा नहीं है।
यहां पर विवाद ने फिर धुरी बदली। अब अखिलेश ने टिकट बंटवारे पर पूरा ध्यान लगाया, क्योंकि उन्हें यह मालूम है कि अगर चाचा शिवपाल के समर्थकों को ज्यादा टिकट मिले तो जीत कर आने के बाद वे सभी शिवपाल के समर्थन में हाथ उठाएंगे। यही वजह थी कि टिकट बंटवारे के मामले पर अखिलेश एकदम खुली बगावत पर उतर आए। इसके बाद मुलायम सिंह ने रामगोपाल और अखिलेश को पार्टी से निकाल दिया। उधर रामगोपाल ने राष्ट्रीय अधिवेशन बुलाकर अखिलेश को राष्ट्रीय अध्यक्ष घोषित करवा दिया। इसके तुरंत बाद मुलायम सिंह यादव ने चुनाव आयोग में इसकी शिकायत कर दी।
टिकट बंटवारे का जो झगड़ा था वह इस बात पर आकर टिक गया कि पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष कौन है और पार्टी का चुनाव चिह्न किसके पास रहेगा? यह मामला अब चुनाव आयोग के पाले में है।
अभी हाल ही में हुई वार्ता में मुलायम सिंह ने अखिलेश से कहा कि चुनाव आयोग से याचिका वापस ले लो और मुझे राष्ट्रीय अध्यक्ष मान लो, बाकी मामले ठीक हो जाएंगे। लेकिन अखिलेश यादव ने कहा कि चुनाव आयोग में अर्जी रामगोपाल चाचा ने लगाई है। इसलिए उस याचिका को वही वापस ले सकते हैं। उस याचिका के साथ करीब 5,500 हलफनामे दाखिल हैं। वेे सब भी वापस लेने पडे़ंगे। आप चाहें तो अपनी याचिका वापस ले सकते हैं। जानकार मानते हैं कि अगर मुलायम सिंह यादव चुनाव आयोग से अपनी याचिका वापस ले लेते हैं तो लड़ाई का अंतिम हथियार भी उनके हाथ से चला जाएगा।
कोशिशें जरूर चल रही हैं, मगर विवाद कहीं से भी सुलझता नहीं दिख रहा। मुलायम सिंह यादव लगातार यह बयान दे रहे हैं कि वे पार्टी को टूटने नहीं देंगे। उन्होंने कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए यह भी कहा कि रामगोपाल यादव पार्टी को तोड़ने के चक्कर में लगे हुए हैं। वे अपने बेटे और बहू के कहने पर ऐसा कर रहे हैं और एक राष्ट्रीय पार्टी के अध्यक्ष से तीन बार मिल चुके हैं। मेरे और अखिलेश के बीच कोई विवाद नहीं है।
मुलायम सिंह ने यह भी कहा कि मैंने जब अखिलेश को मुख्यमंत्री बनाया था तो किसी से कोई इजाजत नहीं ली थी। मेरे पास जो कुछ था, सब मैंने अखिलेश को दे दिया। आज सब कुछ अखिलेश के पास है। वे पार्टी भी मुझसे लेना चाहते हैं, मगर मैं उन्हें पार्टी नहीं दूंगा, क्योंकि रामगोपाल एक विपक्षी पार्टी के अध्यक्ष से लगातार मुलाकात कर रहे हैं। इसलिए मैं इन लोगों के हाथ पार्टी नहीं सौंप सकता। उन्होंने यह भी इशारा किया कि कांग्रेस के कुछ लोगों से समझौते की बात भी हो सकती है। इसके कुछ दिन पहले शिवपाल यादव ने भी प्रेस कॉफ्रेंस में यह आरोप लगाया था कि रामगोपाल यादव और उनके बेटे, यादव सिंह के खिलाफ चल रही सीबीआई जांच में फंसे हुए हैं। उधर भाजपा के नेताओं ने रामगोपाल से कहा है कि पार्टी को तोड़ोगे तभी सीबीआई से बच पाओगे। इसीलिए रामगोपाल पार्टी तोड़ने में लगे हुए हैं।
धीरे-धीरे चुनाव की तारीखें नजदीक आते देख अखिलेश यादव ने अपने प्रत्याशियों को क्षेत्र में जाने का फरमान सुना दिया और यह भी कहा कि आगे के कार्यक्रम के बारे में प्रत्याशियों को अवगत कराया जाएगा।
इधर मुलायम सिंह यादव का बयान एक बार फिर आया कि पार्टी को किसी भी कीमत पर टूटने नहीं दिया जाएगा। उधर रामगोपाल यादव , अखिलेश को लगातार गलत सलाह दे रहे हैं।
राजनीतिक गलियारों में यह चर्चा तेज है कि सपा का कांग्रेस से समझौता हो सकता है, क्योंकि मुलायम और अखिलेश दोनों को एहसास हो गया है कि बगैर समझौता किए नैया पार नहीं लगेगी। लेकिन इसमें भी पेंच फंसा हुआ है। कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं से मुलायम सिंह यादव की बात चल रही है, तो राहुल गांधी से अखिलेश यादव की बातचीत हो रही है। अब देखने वाली बात यह होगी कि कांग्रेस से अगर समझौता होता है तो वह मुलायम गुट से होता है या फिर अखिलेश गुट से?
कुछ दिन पहले मुलायम सिंह ने बयान दिया था कि जब मैं रक्षा मंत्री था तब बोफोर्स तोप से संबंधित कागजात आते थे, उन्हें मैं हटा दिया करता था। कभी प्रधानमंत्री पद के लिए मुलायम और सोनिया में जबरदस्त होड़ चली थी और प्रधानमंत्री न बन पाने की वजह से दोनों के मन कसक भी थी। मगर उस कसक को भुला कर मुलायम सिंह ने अपने इस बयान के माध्यम से यह बताने की कोशिश की थी कि वे गांधी परिवार के हिमायती रहे हैं और बदली हुई परिस्थितियों में कांग्रेस और सपा को साथ-साथ आना चाहिए। लेकिन इस मामले में कांग्रेस की तरफ से कोई खास दिलचस्पी नहीं दिखाई गई है। दरअसल, इस विवाद से कांग्रेस भी भरपूर लाभ उठाना चाहती है। समझौता करने से पहले वह यह जरूर देखेगी कि सपा का कौन-सा धड़ा समझौता करने लायक है।
पिता-पुत्र की यह लड़ाई कहां और किस रूप में खत्म होगी, यह तो वक्त बताएगा, लेकिन एक बात तय लग रही है कि दोनों पक्ष अपने-अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं। मुलायम को लगता है कि यदि उनके हाथ से पार्टी निकली तो उनका राजनीतिक जीवन ही ढलान की ओर चला जाएगा और अखिलेश को लग रहा है कि एक मुख्यमंत्री के नाते उन्होंने जो कार्य किए हैं, उनकी बदौलत वे एक बार फिर से मुख्यमंत्री बन जाएंगे। इसलिए सुलह की कोशिशें कमजोर पड़ती जा रही हैं। -सुनील राय
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