जन गण मनसंघ की जीवंत पाठशाला
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जन गण मनसंघ की जीवंत पाठशाला

by
Jan 9, 2017, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 09 Jan 2017 16:50:24

अक्सर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रशिक्षण और कार्यकर्ताओं के गठन, उनको मानसिक तथा शारीरिक रूप से मजबूत बनाने के बारे में चर्चाएं, विश्लेषण और लेख अनभिज्ञता पर आधारित होते हैं। इनमें से अनेक के वामपंथी झुकाव वाले लेखकों द्वारा लिखे होने के कारण उनमें घृणा और झूठ का तार ज्यादा मुखर होता है। लेकिन जो संघ के प्रवाह में थोड़ा ज्यादा बहे, या उनके संपर्क में आए, वे जानते हैं कि दधीचि की तरह जीवन होम करने वाले प्रचारकों और गृहस्थ संन्यासियों की भांति जीवन जीने वाले कार्यकर्ताओं ने ही संघ सृष्टि को रचा है। इनमें से यादवराव जोशी, हो.वे. शेषाद्रि, सूर्यनारायण राव, रज्जू भैय्या जैसी अनेक स्वनामधन्य विभूतियों के संपर्क में मुझे आने का अवसर मिला। वे अधिकारी नहीं संघ जी जीवंत पाठशाला थे। संघ कार्यकर्त्ताओं को सांचे में ढालने वाले तपस्वी अधिकारियों के व्यवहार से समझ आता है। ऐसे ही थे डॉ. नित्यानंद जी। अद्भुत विद्वान, आजीवन अविवाहित रहकर घर-परिवार के बीच आदर्श प्रचारक का जीवन जिया और उत्तराखंड निर्माण की वैचारिक आधारशिला रखी। संघ की जीवंत पाठशाला, यह उनके जीवन को समझकर जाना जा सकता है।
उनके विषय में लिखने के लिए मन को बहुत मथना पड़ा कि शुरू कहां से करूं?
मैं गांधी स्कूल में पढ़ता था। साठ का प्रारंभिक दशक। परिवार संघ विचार का था, सो पिताजी ने छह-सात वर्ष की आयु में ही मुझे शाखा भेजा। गांधी स्कूल के लगभग सामने ही मेरा घर, शाम को पशु चिकित्सालय की दीवार लांघ हम गांधी स्कूल के खेल मैदान में पहुंचते। वह थी अर्जुन शाखा। तब बलराज जी हमारे जिला प्रचारक थे-भारी लंबी-चौड़ी कद-काया। संख्या का औसत था पंद्रह-बीस। एक दिन, सायं शाखा में अचानक सीटी बजी—धीरे गंभीर, नपे-तुले कदमों से कड़कप्रेस की हुई नेकर और सफेद कमीज में उन्हें आते देखा। ध्वज प्रणाम के बाद वे एक ओर विचारमग्न से, शाखा में स्वयंसेवकों के खेल देखने लगे। तब हमें शेर-बकरी, खोखो और कबड्डी में बड़ा मजा आता था। कबड्डी खेलते हुए मैं अचानक गिर गया और मेरा चश्मा टूट गया। मैं रोने लगा। ''अरे क्या हुआ? बुलाओ इसे यहां?'' उनकी कड़क सी आवाज गूंजी। मुख्य शिक्षक, तब शायद देवेन्द्र जी थे, मुझे उनके पास लाए। मैं पतली, छुटकी, न दिखने जैसी काया-कांपते हुए उनके सामने आया। अम्मा की डांट पड़ेगी, इसका डर अलग था। डॉक्टर साहब ने मेरे सिर पर हाथ रखा और बोले, ''अरे खेलते हो तो चोट लगेगी ही। इसमें रोने की क्या बात है। आगे से चोट लगे तो रोना मत। कोई
बात नहीं, मैं तुम्हारे साथ घर चलूंगा, अम्मा नहीं डांटेंगी।''
प्रार्थना और वीकिर के बाद वे घर आए सामने ही था। अम्मा ने मेरे छिले घुटने और आंखों से चश्मा नदारद देखा, और कुछ बोलतीं, उससे पहले ही डॉ. साहब ने अपना परिचय दिया-''नमस्ते, मैं डॉ. नित्यानंद, डी.बी.एस. कॉलेज में पढ़ाता हूं। आज यह बहुत खेला-खेल में चोट लग ही जाती है-आप इसे कुछ मत कहिएगा।''अम्मा का गुस्सा गायब, अब वे मेरी चिंता छोड़ चाय बनाने लगीं।
डॉक्टर साहब हमारे घर का वैसे ही हिस्सा बन गए, जैसे वे अन्य सैकड़ों स्वयंसेवकों के थे। उनका अनुशासन, कठोरता, धीर-गंभीर व्यवहार, संयत और सीमित शब्दों में बातचीत सबको बड़ा डराती सी थी। लेकिन संघ कार्य के कठोर से दिखने वाले हिमनद के भीतर गोमुख से निकली गंगा की धारा सी ममता भी है। यह हम सब महसूस करते थे। तब वे मोती बाजार रहते थे-तत्कालीन संघ कार्यालय से थोड़ा पहले। हम उनके घर जाते-अम्मा, फिर मुकेश, माधुरी से मिलना होता। वहां पहली बार उनके कमरे में अनेक महापुरुषों के चित्रों में मुझे सम्राट कृष्णदेव राय का चित्र अभी तक याद है। दक्षिण के महानतम सम्राट, जिसका साम्राज्य पूरे देश की अखंडता का प्रतीक बना। वे छोटी-छोटी पुस्तकें पढ़ने के लिए देते और कहते, अब इसका सारांश लिखकर लाओ-दो पन्नों में। हम पुस्तक का सार लिखना सीखने लगे। स्कूल से लौटकर अम्मा हमें मोहल्ले में खेलने नहीं भेजती थीं। या तो शाखा जाओ, या डॉ. साहब के यहां।
संघ के ग्रंथ, डॉ. हेडगेवार का जीवनचरित, इतिहास तो हमने बहुत बाद में पढ़ा। डॉ. नित्यानंद जी भी हमारे लिए सचल संघ की पाठशाला थे। उन्होंने मुझे स्वामी विवेकानंद और रामकृष्ण परमहंस की जीवनियां पढ़ने को दीं। उन्होंने संघ से मेरा पहला सैद्धांतिक परिचय स्वामी विवेकानंद के माध्यम से करवाया। संघ यानी क्या? अच्छा हिंदू बनना, मजबूत शरीर, उसका आधार है।  वे डांटते। ये हवा में उड़ जाए, ऐसा शरीर रखकर क्या करोगे? हर दिन 13 सूर्य नमस्कार करने का अभ्यास डालो।
सन् याद नहीं, शायद 66-67 होगा। तब परमपूज्य श्री गुरुजी का देहरादून प्रवास हुआ। पैवेलियन ग्राउंड में सांघिक था। डॉ. नित्यानंद ने आदेश जैसा स्नेह दिखाकर मुझे परम पूज्य गुरुजी के मंच पर रक्षक के नाते खड़ा कर दिया-पूर्ण गणवेश, दंड, और मैं कुछ घबराहट, कुछ अभिमान का पुट लिए दो घंटे के कार्यक्रम में, मंच की ओर ले जाती सीढि़यों के मुहाने पर तन कर खड़ा रहा। उस क्षण से मेरा हीनभाव तिरोहित होने लगा। मेरे पिता और अम्मा ने मुझे खूब आशीष दिया।
स्कूल में अक्सर दादा किस्म के लड़के, जो मेरी कक्षा में थे, पर ज्यादा मजबूत और अच्छी देह यष्टि के थे, मुझसे झगड़ा करते, धक्का देकर चले जाते तो मैं रो पड़ता।
अम्मा ने डाक्टर से कहा। वे बोले, एक ही इलाज है—उनसे ज्यादा नंबर लाओ,
खूब गतिविधियों में हिस्सा लो, यही उन्हें शर्मिन्दा करेगा।
हमें पता ही नहीं चला कि कब हम संघ में आए, कब हम स्वयंसेवक बने-सब कुछ परिवार जैसा था, जैसे हम हमेशा ऐसे ही रहे हों। पहले कुछ और थे, और अब वर्दीधारी कुछ और हो गए, ऐसा संघ-प्रवेश कभी डॉ. नित्यानंद जी ने महसूस ही नहीं होने दिया। संघ यानी जो भी कार्य करो उसे सर्वश्रेष्ठ करो। संघ यानी अच्छा साहित्य पढ़ो, अच्छा लिखो और अच्छा बोलो। हमारे लिए संघ की परिभाषा बन गए डॉ. नित्यानंद जी।
हमारे घर में भीषण आर्थिक संकट रहा। 10वीं पास करने के बाद मुझे पिताजी की पहली साइकिल मिली। 12वीं करते-करते मुझे ट्यूशन करनी पड़ी। प्रतिदिन तीन से चार ट्यूशन पढ़ाता, फिर घर का काम। यह देख डॉ. साहब ने मुझे मुकेश को पढ़ाने के लिए बुलाया। 40 रुपए माहवार की ट्यूशन तब बहुत सहारा थी। अम्मा की आंखों में मैंने आंसू देखे थे।
मुकेश को ट्यूशन की जरूरत नहीं थी। माधुरी तो शुरू से ही बहुत मेधावी थी। पर डॉ. साहब ने हमें अपने बच्चे की तरह हमारी तकलीफ दूर करने के लिए ऐसा किया।
डॉ. साहब के बारे में कुछ भी बड़ी-बड़ी आदर्शात्मक, संघ शास्त्र, भारत की स्थिति जैसे-जैसे चौखटे में बात करना असंभव है। तब वे मेरे लिए अपरिचित हो जाएंगे। जैसे संघ को आप अपने अस्तित्व से अलग करके नहीं देख सकते, कोई पराया हो तब ही तो आप उसे विद्वान की दृष्टि से समीक्षा का विषय बनाएंगे। उसी तरह डॉ. साहब की जीवन यात्रा का सैद्धांतिक विश्लेषण उन्हें पराया बनाकर ही किया जाना मेरे लिए संभव है।
 तब मुझे गुस्सा बहुत आता था। सबसे छोटा था, सब मेरा बालपन सहन करते थे। बहुत पीटा-पाटी होती, मैं खाना छोड़ देता। डॉ. साहब से चुपचाप अम्मा ने शिकायत की, उन्होंने मुझे कुछ नहीं कहा। बस कुछ कहानियां सुनाईं। एक थी वीर हकीकत राय की, दूसरी थी गुरु गोबिंद सिंह के दो साहिबजादों की। फिर कहा, गुस्सा करने से तुम्हारी अपनी कमजोरी ही प्रकट होती है। बड़े काम करने हैं तो गुस्सा करना बंद कर दो। वे मन बदलते थे। व्यवहार अपने आप बदल जाता था।
आपात्काल में रज्जू भैया देहरादून आए थे। घोसी गली में तब हलवाइयों की धर्मशाला हुआ करती थी। वहां बैठक करनी थी। रज्जू भैया हाफ स्वेटर, शर्ट, पैंट में थे। घर आए। उनकी बैठक की व्यवस्था हमने की। तब डॉ. साहब सत्याग्रह करके जेल में थे। मैं भी सत्याग्रह करना चाहता था पर उन्होंने कहा, तुम छोटे दिखते हो इसलिए आपातकाल विरोधी साहित्य बनाकर बांटने का काम करो। तुम पर कोई संदेह नहीं करेगा। तब मेरी और मेरी बहन वीना की जिम्मेदारी थी हर ररिवार को देहरादून जेल जाकर सत्याग्रही स्वयंसेवकों को उनके घर के समाचार देना और वहां के समाचार लाना।
तब हमने सुशांत सिंहल के यहां से साइक्लोस्टाइल मशीन लाकर लोकवाणी शुरू की। उसके शीर्ष पर मेरी प्रिय दो पंक्तियां लिखी होती थी-''कहो नाखुदा से कि लंगर उठा दे, मैं तूफां की जिद्द देखना चाहता हूं।'' इस लोकवाणी के पन्ने हम नरेश बंसल के साथ अखबारों में डालकर सुबह-सुबह दुकानों में और रोजपुर रोड तक घरों में डाल आते। खूब हंगामा हुआ। डॉ. साहब से पूछकर हम आर्य समाज के वरिष्ठ नेता श्री देवदत्त बाली जी से मिले। उन दिनों में डिबेट में अनेक नगरों में जाता और पुरस्कार पाता। डॉ. साहब ने कहा, छात्रों को इकट्ठा करो, उन्हें इस कार्य से जोड़ना है। देवदत्त बालीजी ने हमारे गोष्ठी और चर्चाओं पर केंद्रित संगठन का नाम वाणी-परिषद् दिया और उसका ध्येय वाक्य रखा-अहं राष्ट्री संगमनी वसूनाम् (ऋग्वेद)। तब जिला एवं सत्र न्यायाधीश थे डॉ. मोती बाबू। उनके सहयोग तथा एम.के.टी. कॉलेज की तत्कालीन प्रधानाचार्य श्रीमती सुशीला डोभाल, उनके पति व समाजवादी नेता श्री राजेन्द्र प्रसाद डोभाल जी के साथ वाणी परिषद् खूब सक्रिय हुई और आपात्कालीन तानाशाही के विरुद्ध वातावरण बनाया।
अचानक डॉ. साहब को पक्षापात हुआ और उन्हें कोटक्कल (केरल) ले जाया गया, जहां आर्य वैद्यशाला में कई महीनों की चिकित्सा के बाद वे स्वस्थ होकर लौटे। उनका त्याग, संयम, योग-निष्ठ बलिष्ठ शरीर था। इसी कारण पक्षापात के दो-दो आघात सहन कर पाए।
मनेरी (उत्तरकाशी) में जब उनकी बहनें भी आयी हुई थीं, मैं अम्मा के साथ गया था। दो दिन रुके। पाञ्चजन्य में आना, वनवासी कल्याण आश्रम में पूर्णकालिक, फिर राज्य सभा। इन सबसे उनको वैसी ही प्रसन्नता थी, जैसे एक पिता को होती है। उत्तराखंड निर्माण में उनकी भूमिका शायद इतिहास ही लिखेगा।
उत्तरकाशी में भूकंप के समय उन्होंने उत्तरांचल दैवी आपदा पीडि़त सहायता समिति बनाई और फिर जीवन भर पहाड़ के बच्चों को नि:शुल्क शिक्षा देने, संस्कारित करने का कार्य किया मनेरी में गंगा किनारे आश्रम समान विद्यालय और प्रेरणा केंद्र के माध्यम से। आज उत्तराखंड के कोने-कोने में उनके द्वारा पढ़ाए गए गरीब परिवारों के छात्र बहुत अच्छे पदों पर कार्यरत हैं।
उनका स्मरण अपने भीतर झांकने जैसा है। उनकी पुण्य गाथा, संघ की गाथा का अवगाहन करने जैसी है। -तरुण विजय 
              (लेखक पूर्व राज्यसभा सांसद हैं) 

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