|
भारत विभाजन के समय मेरा परिवार सियालकोट के पास एक गांव में रहता था। उस समय मेरे पिताजी बहुत छोटे थे। सब कुछ उजड़ जाने के बाद मेरे परिवार के लोग सिर्फ शरीर पर पहने कपड़ों के साथ शरणार्थी के तौर पर अगस्त, 1947 में जम्मू-कश्मीर आए थे। यही हाल उन सभी 20,000 परिवारों का भी था, जो उस समय जम्मू-कश्मीर में आकर बसे थे। समय के साथ इन परिवारों के सदस्यों में बढ़ोतरी होती रही और अब इनकी संख्या 1,00000 से भी ऊपर हो चुकी है। ये परिवार कठुआ से जेकर पलानवाला तक रह रहे हैं। यह सीमावर्ती क्षेत्र है।
हम सबको यहां रहते हुए 70 वर्ष हो गए हैं, पर जिस जमीन पर हम रह रहे हैं, वह भी हमारे नाम से अभी तक नहीं हो पाई है। हम लोग जिन गांवों में रह रहे हैं उनमें पहले मुसलमान रहते थे, जो विभाजन के समय पाकिस्तान चले गए थे। राज्य सरकार ने एक कानून बनाकर पाकिस्तान गए लोगों की संपत्ति को कस्टोडियन विभाग के अधीन कर दिया है। और यह भी कानून बनाया है कि पाकिस्तान गए लोग कश्मीर आ सकते हैं और अपनी संपत्ति ले सकते हैं। इस तरह तो हम लोगों के घर-द्वार को कभी भी छीना जा सकता है।
अक्तूबर, 1947 में इस क्षेत्र में पाकिस्तान ने हमला किया था। उस समय हमारे परिवार के लोग इस क्षेत्र को छोड़कर जा चुके थे, लेकिन लखनपुर के पास नेहरू और शेख अब्दुल्ला ने उन्हें रोका और कहा कि यहीं रहो। उन्होंने यह भी आश्वासन दिया कि आप सबका ख्याल रखा जाएगा, लेकिन ऐसा ख्याल रखा गया कि आज भी हमें अपने मूलभूत अधिकारों के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है। हम राज्य की किसी भी सरकारी योजना का लाभ नहीं उठा सकते हैं, क्योंकि हम इस राज्य के स्थायी निवासी नहीं बन पाए हैं। सच तो यह है कि हमें जान-बूझकर इस राज्य का स्थायी निवासी नहीं बनने दिया गया। इस कारण हमारे बच्चे किसी सरकारी व्यावसायिक शिक्षण संस्थान में नहीं पढ़ सकते। वे किसी सरकारी स्कूल से 10वीं भी नहीं कर सकते हैं। जो लोग कहीं से पढ़ लेते हैं वे राज्य सरकार की नौकरी नहीं कर सकते हैं। हम केंद्र सरकार की किसी योजना का भी लाभ नहीं उठा सकते। आंगनबाड़ी जैसी योजनाओं से भी हमें वंचित रखा जाता है। हमारी बेटियों को केंद्र सरकार की सुकन्या जैसी लोकप्रिय योजनाओं का लाभ नहीं लेने दिया जा रहा। हम लोकसभा चुनाव में तो वोट कर सकते हैं, पर विधानसभा और पंचायत चुनावों में मतदान नहीं कर सकते हैं। हम पहले अंग्रेजों के और अब कश्मीरियों के गुलाम हैं। हमारे लिए प्रजातंत्र अभी तक नहीं आया है।
1957 में बने एक कानून के जरिए किया जा रहा है। इस कानून में कहा गया है हमसे भेदभाव कि जम्मू-कश्मीर में 1944 से पहले से रहने वालों को ही स्थाई निवासी माना जाएगा। यह कानून हमें यहां बसने से रोकने के लिए ही बनाया गया था। राज्य में 1950 में अनुच्छेद 370 लागू हुआ था। इसलिए इसके दायरे से भी हम बाहर थे। इसलिए 1957 में वह कानून बनाया गया।
यदि हम मुसलमान होते तो हमारे साथ ऐसा बर्ताव कतई नहीं होता। यह कानून भी नहीं बनता और हम सबको बहुत पहले ही राज्य की नागरिकता मिल जाती। हमें हिंदू होने की सजा मिल रही है।
हमारे परिवार के लोग 1947 से ही अपने अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे हैं, लेकिन किसी भी सरकार ने हमारी नहीं सुनी। पिछले 10 साल से मैं इस आंदोलन में प्रत्यक्ष रूप से सहभागी हूं। 2006 में हमने इस मामले को जोर-शोर से उठाया और दिल्ली के जंतर-मंतर पर काफी दिनों तक धरना दिया। इस दौरान तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह से छह बार और तत्कालीन गृह मंत्री शिवराज पाटिल और उनके बाद सुशील कुमार शिंदे से दो-दो बार मिला। इन सबने कहा कि मामला जल्दी ही निपट जाएगा, लेकिन हुआ कुछ नहीं।
नई सरकार बनने के बाद प्रधानमंत्री नरंेद्र मोदी ने बंगलादेश के साथ चल रहे सीमा विवाद को बहुत ही अच्छी तरह सुलझाया। इससे हमारे मन में भी आशा जगी। इसके बाद मैंने एक बार उनसे भेंट की। उन्होंने बहुत ही अच्छी तरह हमारी समस्याओं को सुना और उन्हें हल करने का आश्वासन भी दिया। उनके बाद चार-चार बार गृह मंत्री राजनाथ सिंह और रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर से मिला। इन नेताओं ने कहा कि बीमारी 70 साल पुरानी है। इसे ठीक करने में समय लगेगा, लेकिन बीमारी खत्म होकर रहेगी। प्राथमिक उपचार शुरू हो गया है। इसका नतीजा यह है कि अब थोड़ी राहत की किरण दिखने लगी है। हमें पहचान पत्र मिलने लगा है। बच्चों के लिए जाति प्रमाणपत्र जैसे जरूरी कागजात बनने लगे हैं। इस पहचान पत्र से हमारे बच्चे अर्द्धसैनिक बलों और भारतीय सेना की नौकरियों के लिए आवेदन कर सकते हैं। हालांकि पहले भी हमारे लोग सेना में जाते थे, लेकिन कुछ वर्ष पहले राज्य सरकार ने इस पर रोक लगा दी थी। चंूकि जम्मू-कश्मीर में केंद्र से हटकर कुछ अलग कानून हैं, इस कारण वहां के स्थायी निवासी ही सेना की नौकरी में जा सकते हैं। अब केंद्र सरकार की पहल से हमारे लिए एक बार फिर से इसके दरवाजे खुल गए हैं।
हम अभी एक ही कदम आगे बढ़े हैं। हमारा कहना है कि हमारे बच्चे सिर्फ अर्द्ध सैनिक बलों और सेना में ही क्यों जाएं? वे केंद्र सरकार की अन्य नौकरियों में क्यों नहीं जा सकते? भारत सरकार से निवेदन है कि हमारे बच्चों के लिए नौकरी के अन्य दरवाजे भी खोले जाएं।
(लेखक 'वेस्ट पाकिस्तानी रिफ्यूजी एक्शन
कमिटि-1947' के अध्यक्ष हैं)
अरुण कुमार सिंह से बातचीत पर आधारित
टिप्पणियाँ