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भारतीय ओलंपिक संघ (आईओए) का नाम आते ही लोगों की भवें तनती हैं और मुंह कसैला हो जाता है तो इसके लिए लोगों को दोष मत दीजिए। अपने नाम-और काम के लिए यह कड़वाहट इस शीर्ष खेल संस्था ने खुद कमाई है।
ताजा मामला आईओए की वार्षिक आमसभा का है। चेन्नई में हुई इस महाबैठकी में वर्तमान अध्यक्ष एन. रामाचंद्रन की मौजूदगी में सुरेश कलमाड़ी को भारतीय ओलंपिक संघ का आजीवन संरक्षक और अभय सिंह चौटाला को आजीवन अध्यक्ष नामित किया गया।
वर्तमान अध्यक्ष की सहमति है, बाकी डेढ़ सौ सदस्यों के सिर सहमति में हिल ही रहे हैं तो कौन सवाल उठा सकता है?
खेल मंत्री विजय गोयल ने जब इसे अस्वीकार्य बताया तो आईओए उपाध्यक्ष की प्रतिक्रिया थी, ''आजीवन अध्यक्ष बनाने के लिए आईओए को किसी से मंजूरी लेने कीजरूरत नहीं है…।''
विवाद गरमाता देख सुरेश कलमाड़ी पीछे हट गए।
ठीक है, आईओए को इसके लिए सरकारी मंजूरी की जरूरत नहीं है। उसके अपने नियम-कायदे हैं। लेकिन इन्हीं नियम-कायदों के अनुसार आप भले ही अपना क्षेत्राधिकार भारत भर बताते हैं लेकिन आपकी हैसियत किसी क्लब के बराबर ही है और आपके लिए सरकारी रौब-दाब दिखाने की गुंजाइश भी तो नहीं है?
प्रश्न है कि वर्ष 1860 के सोसाइटी रजिस्ट्रेशन एक्ट के अंतर्गत पंजीकृत संस्था, ओलंपिक खेलों के लिए एकछत्र अधिकार की ताल ठोकते हुए क्या खेल मंत्रालय से भी बड़ी हो गई? सरकारी व्यय (जनता की गाढ़ी कमाई) को अधिकारपूर्वक खर्च करने की राहें बनाने वाले क्लब और सोसाइटियां क्या इतने बड़े हो गए कि भ्रष्टाचारियों को सिर चढ़ाएं और संवैधानिक दायित्व निर्वहन कर रहे जनप्रतिनिधियों या मीडिया के इस बारे में सवाल पूछने पर आंखें भी तरेरें?
सुरेश कलमाड़ी की पहचान क्या है? सब जानते हैं कि कांग्रेस शासन में दिल्ली के विकास के नाम पर स्वतंत्रता के बाद का जो सबसे बड़ा घोटाला 2010 राष्ट्रमंडल खेलों के नाम पर हुआ, उसमें सुरेश कलमाड़ी की क्या भूमिका रही थी। इस घोटाले में दस माह की जेल के बाद उन्हें जमानत मिली। और अभय चौटाला… जिस समय (दिसंबर 2012 से फरवरी 2014) वे आईओए अध्यक्ष रहे उस समय अंतरराष्ट्रीय ओलंपिक समिति ने भारतीय ओलंपिक संघ को किनारे कर रखा था। कारण आईओए ने चुनाव के लिए ऐसे प्रत्याशी उतारे थे जिनके ऊपर आरोपपत्रों के दाग थे। अध्यक्ष के तौर पर अभय चौटाला के चयन को आईओसी ने अमान्य कर दिया था। लेकिन आईओए को इस सबसे क्या? मामले पुराने हो गए। जनता भूल-भाल गई। अपने दुलारों को फिर पुचकारो, जाजम बिछाओ, तिलक लगाओ और शुचिता-मर्यादा को ठेंगा दिखाने वालों को साथ लेकर बढ़ते जाओ।
वैसे, प्रश्न सिर्फ भ्रष्टाचार या एक-दो दागी चेहरों से किनारा करने का या किसी खास नाम से चिढ़ और नुक्ताचीनी का नहीं है। चुनौती भारतीय खेल जगत के बड़े मकड़जाल को तोड़ने की है। धन की खंदक और संपकार्ें के जाल फैलाए लोग क्या देश की स्वस्थ, सहज खेल संस्कृति पर कुंडली मारकर नहीं बैठ गए?
प्रतिभाएं तराशने का जिम्मा ओढ़ने वाले आईओए जैसे खेल संघ दागियों की तलाश में क्योंकर निकल गए और कब तक इन बातों का संज्ञान नहीं लिया जाएगा? प्रश्न यह है।
आज आवश्यकता इस बात की है कि इस मकड़जाल को तोड़ने के लिए विभिन्न खेलसंघों को बताया जाए कि खेलों के सहज-निष्पक्ष विकास के लिए जितना महत्व उनकी स्वतंत्रता का है, उतनी ही महत्वपूर्ण कामकाज में पारदर्शिता भी है। आर्थिक शुचिता को सुनिश्चित करने के अलावा खेलसंघों को किसी व्यक्ति या परिवार की जागीर या कठपुतली बनने नहीं दिया जा सकता। यह भी नहीं हो सकता कि आप देश की सीमाओं में संस्था के निजी संविधान के नाम पर मनमानी करें और केवल अंतरराष्ट्रीय जवाबदारी की छतरी तानकर खुद को बचा लें।
वैसे, गूगल पर पूछा जाने वाला एक चर्चित प्रश्न यह है कि ओलंपिक खेलों का माई-बाप कौन है?
इसका तकनीकी जवाब अंतरराष्ट्रीय ओलंपिक समिति की वेबसाइट पर मिल सकता है। लेकिन इसे भी खेल के नाम पर भ्रष्टाचार को पोसने या विभिन्न देशों की प्रभुसत्ता से खेलने की आजादी नहीं दी जा सकती। आखिर जिन्होंने विश्व में खेल के उत्थान का बीड़ा उठाया है, उनके कंधों पर अलग-अलग देशों के परचम के सम्मान की जिम्मेदारी भी तो है।
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