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देशज ज्ञान परंपराओं को काव्यात्मक रूप में पिरोती 'आज भी खरे हैं तालाब' और 'राजस्थान की रजत बूंदें' जैसी उनकी कालजयी पुस्तकें उनके इसी विश्वास की परिणति हैं। अनुपम जी अपनी देह तो छोड़ गए, लेकिन उनकी प्रेरणा से जल संरक्षण की जो अनुपम परंपरा शुरू हुई वह कभी नही थम सकती। उनके असामयिक निधन से देश ने प्रकृति का एक सच्चा साधक व उपासक खो दिया है। भारतीय मूल्यों व परंपराओं की साधना करते हुए देश के पर्यावरण को उन्होंने जो 'अनुपम' योगदान दिया, उसे आने वाली पीढि़यां भी याद करेंगी।
श्रद्धांजलि अनुपम मिश्र
प्रख्यात पर्यावरणविद् अनुपम मिश्र जी का 19 दिसंबर, 2016 को लंबी बीमारी के बाद निधन हो गया। उन्हें श्रद्धांजलि देने के लिए अभी 27 दिसंबर को दीनदयाल शोध संस्थान में एक सभा का आयोजन किया गया था। उसमें अधिकांश वक्ताओं ने कहा कि विश्वास नहीं हो रहा कि अनुपम जी हमारे बीच नहीं रहे। वैसे किसी भी महापुरुष के जाने के बाद अक्सर उनके प्रशंसक व साथी ऐसा ही महसूस करते हैं। लेकिन अनुपम जी के विषय में कुछ अलग ही लग रहा था। स्वयं इन पंक्तियों के लेखक को भी पुष्पांजलि के लिए फ्रेम कराने हेतु उनके फोटो छांटते समय समझ नहीं आ रहा था, कि वह ऐसा क्यों कर रहा है। सभा में अनुपम जी के परिवार का कोई सदस्य सम्मिलित नहीं हो सका, लेकिन उनके कुछ प्रशंसक इतने भावुक हो गए कि अपनी बात पूरी किए बिना ही बीच में रुक गए।
अनुपम जी की मृत्यु में ऐसा क्या था जिसने विचारधारा की सीमाओं से परे एक बड़े वर्ग को द्रवित कर दिया था? लगभग ऐसा ही अनुभव तब भी हुआ था जब नानाजी देशमुख को श्रद्धांजलि देने के लिए सभी वगोंर् के प्रबुद्ध लोग एकत्र हुए थे। नानाजी संघ के स्वयंसेवक थे। गांधी जी की कर्मस्थली वर्धा में 1948 में जन्मे अनुपम जी जीवनपर्यन्त गांधीवादी रहे। लेकिन दोनों में एक दूसरे के प्रति सम्मान का भाव बेहद प्रबल था। और इसका कारण था, दोनों महापुरुषों की देश की संस्कृति और इसकी प्रकृति के प्रति श्रद्धा। समाज की शक्ति और उसकी ज्ञान परंपरा में दोनों का अटूट भरोसा।
समाजसेवा का रास्ता चुनने से पहले नानाजी एक ख्यातनाम राजनीतिज्ञ थे। इसलिए उनके प्रशंसकों के क्लब में पहले भद्रपुरुषों की संख्या अधिक थी। बाद में बड़ी संख्या में ग्रामवासी भी इस क्लब में शामिल हुए। अनुपम जी एक बहुत ही साधारण से व्यक्ति थे। सचमुच झोलाछाप। गांधी शांति प्रतिष्ठान और राजघाट के सामने गांधी निधि के बीच रोजाना, खादी का साधारण-सा कुर्ता और बड़ी मोरी का पाजामा पहने, कंधे पर एक झोला टांगे पैदल आते-जाते एक बहुत ही साधारण-से व्यक्ति को हजारों लोगों ने देखा होगा। लेकिन इस ओर किसी का ध्यान नहीं गया होगा कि चुपचाप, सिर झुकाए, अनुशासनपूर्वक सड़क पार करने वाला यह व्यक्ति किस महान यज्ञ में लगा हुआ है।
यह यज्ञ था देश का उसकी जल परंपराओं से साक्षात्कार कराने का। जल से परिचय कराने का। जल का स्वभाव समझाने का। जल और समाज के अटूट रिश्ते को रेखांकित करने का। जल के दर्द को समझने व समझाने का। जल के समाजशास्त्र का, जल के अर्थशास्त्र का, जल की संस्कृति का। जल संरक्षण को अनुपम जी ने उत्सव का रूप दे दिया था। जल संरक्षण की परंपराओं का वे इतना सुंदर वर्णन करते थे कि कोई भी अनायास कह उठे, चलो, मैं भी उसी गांव, उसी ढाणी, उसी पिंड में चलता हूं।
जल की बात करते हुए वे ऐसे प्रवाह में बह जाते थे कि मानो खुद जल बन जाते थे। जो उनके संपर्क में आया, उसे अनुपम जी में जल के ही प्रत्यक्ष दर्शन हुए। जल संरक्षण को वे जनांदोलन बना देना चाहते थे। उनका मानना था कि जल संरक्षण का काम सरकारें नहीं कर सकतीं। सिर्फ समाज कर सकता है। बस, सरकार उसके कामकाज में आड़े न आए, उसकी परंपराओं में बाधाएं न खड़ी करे।
पिता भवानी प्रसाद मिश्र की तरह अनुपम जी स्वयं कवि नहीं थे, लेकिन उनकी जुबान पर पानी की बात आते ही गद्य और पद्य का भेद मिट जाता था। उनकी कालजयी पुस्तक 'आज भी खरे हैं तालाब' को कोई दस साल पहले एक प्रतिष्ठित अंग्रेजी पत्रिका ने देश की दस महानतम रचनाओं में गिना था और रामायण व महाभारत के समकक्ष रखा था। दुनियाभर की 19 भाषाओं में अनूदित इस पुस्तक को सही अथोंर् में 'बेस्टसेलर' कहा जा सकता है। यह ब्रेल में भी छपी। अनुपम जी ने उसका कॉपीराइट छोड़ा भी न होता तो भी वह विश्व की सबसे ज्यादा छपने, बिकने व बंटने वाली पुस्तक ही होती।
उन्हें समाज पर अटूट विश्वास था तो प्रकृति पर भी उतना ही भरोसा। वे कहते थे कि उसके साथ छेड़छाड़ मत करो तो वह भी आप पर अपना अपार प्यार और दुलार उंडे़ेल देगी। जयपुर के पास ढुंढार क्षेत्र में वर्षा की कमी को उन्होंने चुनौती माना। वहां के लोगों से कहा, कोई बात नहीं। बादल जितना भर भी बरसते हैं, उसे ही सहेज लो। चौके बना लो। गोचर को पुनर्जीवित कर लो। पशु-पक्षियों के बसेरे बना लो। लापोडि़या के लोगों ने उनकी बात सुनी तो लगातार नौ साल तक की अल्पवृष्टि झेल गया पूरा गांव। वर्तमान केन्द्रीय जल संसाधन मंत्री सुश्री उमा भारती ने पिछले वर्ष स्वयं देखा इस चमत्कार को। जैसलमेर के चतरसिंह जी रुंधे गले से बता रहे थे कि किस तरह सालभर में 6 मि.मी. बारिश को ही वरदान में बदल दिया था समाज की शक्ति में अनुपम जी के विश्वास ने।
देश के किसी भी हिस्से में जल संरक्षण की बात होती थी तो एक जीवंत अनुपमीडिया खुल जाता था। बिना इंटरनेट कनेक्शन के। वे तो अपने पास मोबाइल भी नहीं रखते थे। देश-दुनिया के हर क्षेत्र की अपनी खूबियां। वहां की चुनौतियां। वहां के समाज ने इन चुनौतियों का सामना कैसे किया। ये कहानियां कहते हुए वे इतने 'इन्वॉल्बड' हो जाते थे, मानो स्वयं उसी समाज का हिस्सा हों। ऐसा रिश्ता था उनका पानी से। उनकी सादगी, विनम्रता, सरलता व सहजता उनके जीवित रहते हुए ही किंवदंती बन गई थी। लेकिन ये कभी उनकी दृढ़ता में आड़े नहीं आईं। वह उतनी ही प्रखर बनी रही, हालांकि वह इतनी अहंकाररहित व काव्यात्मक थी कि किसी को भी सम्मोहित कर लेती थी।
जल संरक्षण की महंगी सरकारी योजनाओं से अनुपम जी को कोई सरोकार नहीं था। कोई इंजीनियरी उन्हें प्रभावित नहीं कर पाई। वे बार-बार याद दिलाते थे कि रुड़की के इंजीनियरिंग कॉलेज के पास जब अंग्रेज इंजीनियर भी फेल हो गए तो गंग नहर पर एक और नहर बनाने की तकनीक आसपास के तथाकथित अनपढ़ लोगों ने ही बताई। वे बड़े गर्व के साथ बताते थे कि आज भी यह बात रुड़की के (अब) आईआईटी के रिकार्ड में दर्ज है। पानी को दूर-दराज पाइप से ले जाने की योजना की बजाए उनका विश्वास था कि उसे वहीं का वहीं संजोना ज्यादा कारगर व चिरस्थायी हो सकता है। उनके पास इस विश्वास के ठोस कारण भी थे।
देशज ज्ञान परंपराओं को काव्यात्मक रूप में पिरोती 'आज भी खरे हैं तालाब' और 'राजस्थान की रजत बूंदें' जैसी उनकी कालजयी पुस्तकें उनके इसी विश्वास की परिणति हैं। कैंसर से जूझते हुए अनुपम जी अपनी देह तो छोड़ गए। लेकिन उनकी प्रेरणा से जल संरक्षण की जो अनुपम परंपरा शुरू हुई, वह कभी नहीं थम सकती। उनके असामयिक निधन से देश ने प्रकृति का एक सच्चा साधक व उपासक खो दिया है। भारतीय मूल्यों व परंपराओं की साधना करते हुए देश के पर्यावरण को उन्होंने जो 'अनुपम' योगदान दिया, उसे आने वाली पीढि़यां भी याद करेंगी। अनुपम जी को विनम्र जलांजलि। अतुल जैन
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