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खुद को सत्य का पहरुआ कहलाने वाला मीडिया कब तक सफेद झूठ परोसेगा ?
नारद
सवालों के घेरे में विश्वसनीयता
क्याखबरों के चुनाव में दोहरे मानदंड अपनाने वाली हमारा मुख्यधारा मीडिया निष्पक्ष और जिम्मेदार होने का दावा कर सकता है? बंगाल में राज्य सरकार द्वारा प्रायोजित माने जा रहे हिंदू-विरोधी दंगों को जिस तरह से 'सेंसर' किया गया है, उससे यह सवाल पैदा होता है कि आखिर मीडिया किस आधार पर चुनता है कि किन दंगों को दिखाना है और किन्हें नहीं। जी न्यूज ने जब इस खबर को दिखाने की कोशिश की तो ममता बनर्जी सरकार दमन पर उतारू हो गई। संपादक, रिपोर्टर और कैमरामैन तक के खिलाफ एफआईआर दर्ज करा दी गई। लेकिन बीते ढाई साल में बात-बात पर इमरजेंसी-इमरजेंसी चिल्लाने वाले पत्रकारिता के स्वयंभू मठाधीश चुप्पी साधे हुए हैं। वह कौन-सी प्रतिबद्घता है जिसके कारण इन तथाकथित पत्रकारों को मालदा, कालीग्राम और धुलागढ़ जैसी घटनाएं नहीं दिखाई देतीं? जबकि दादरी में दो पड़ोसियों के झगड़े को वह अंतरराष्ट्रीय मुद्दा बना देते हैं। बंगाल जैसी ही स्थिति केरल को लेकर भी है। वामपंथी सरकार होने के कारण केरल में आए दिन हो रही हत्याओं की खबर पर ज्यादातर चैनलों ने करीब-करीब रोक लगा रखी है। पलक्कड़ जिले में एक भाजपा कार्यकर्ता को परिवार समेत घर में जिंदा जलाने की कोशिश हुई। कई अंग्रेजी अखबारों ने इसे घर में सिलेंडर ब्लास्ट से लगी आग बता दिया। समाचार संस्थानों में बैठे कामरेडों के लिए यह रोज-रोज का
खेल है।
बात नेहरू-गांधी परिवार की हो तो मीडिया का एक बड़ा तबका वफादारी पर उतारू हो जाता है। कुछ ऐसा ही हुआ नेशनल हेराल्ड घोटाले में। दिल्ली के पटियाला हाउस कोर्ट ने दस्तावेज सौंपने के लिए सुब्रह्मण्यम स्वामी की एक अर्जी तकनीकी आधार पर खारिज कर दी और कहा कि वे दोबारा आवेदन दें। लेकिन तमाम बड़े-बड़े अखबारों और चैनलों ने ऐसे हेडलाइन लिखी मानो सोनिया और राहुल गांधी को बरी कर दिया गया हो। सबने इसे सोनिया, राहुल को 'बड़ी राहत' करार दिया। तथ्यों में तोड़-मरोड़ करने और अदालती आदेशों को मनचाहे तरीके से दिखाने की यह शैली अनजाने में नहीं, बल्कि पूरी तरह से सोची-समझी मालूम होती है।
उधर चैनलों के लिए राहुल गांधी एक बार फिर से विपक्ष के सबसे बड़े नेता बन गए हैं। वह जो कुछ भी कहते हैं, उसे चैनल बिना किसी बुद्घि और विवेक के दिखाते हैं। वे अपने सलाहकारों के लिखे बयानों को रटकर रोज-रोज दोहराते रहे। इस चक्कर में कई ऐसे बयान भी देते रहे जिनसे उनके परिवार के 70 साल के शासन पर सवाल उठते हों। लेकिन मीडिया इन सारे सवालों से आंखें मूंद कर काठ की हांडी एक बार फिर से चढ़ाने की कोशिश कर रहा है।
राहुल गांधी जैसे अपरिपक्व राजनेता ने प्रधानमंत्री को लेकर जो आरोप लगाया, उस पर जनता भले ही हंस रही है, लेकिन मीडिया ने इस हास्यास्पद आरोप को काफी महत्व दिया। एक क्रांतिकारी एंकर ने हाथ मसलते हुए पूछा कि 'एक अदद इल्जाम है, जिसका जवाब चाहिए'। सवाल यह है कि मनगढ़ंत आरोपों पर प्रधानमंत्री से जवाब मांगने वाले लोग हेलिकॉप्टर घोटाले जैसे वास्तविक मुद्दों पर सवाल पूछने की हिम्मत क्यों नहीं
दिखा पाते।
नोटबंदी के प्रश्न पर बार-बार बेनकाब होने के बावजूद कुछ पत्रकारों ने अभी तक हौसला नहीं छोड़ा है। वे अब भी लोगों को भरमाने और झूठी खबरें फैलाने में जुटे हैं। इस दौरान लोगों की परेशानियों को कम करने के लिए मीडिया से जिस सकारात्मक रवैये की जरूरत थी वह बिल्कुल गायब रहा। यहां तक कि काले धन के खिलाफ देश भर में हो रही छापेमारी को भी ज्यादातर अखबारों और चैनलों ने सरकार की नाकामी के तौर पर प्रचारित करना शुरू कर दिया। दरअसल नोटबंदी एक ऐसा मुद्दा रहा है जिसमें तथाकथित बुद्घिजीवी और मीडिया जनता का मूड भांपने में बुरी तरह नाकाम रहे हैं। दरअसल कांग्रेस के इतने सालों के शासन ने मीडिया को एक खास तरह का यथास्थितिवाद सिखाया है। जनता के हित के लिए होने वाले किसी भी बदलाव के लिए जैसे अफसरशाही में एक प्रतिरोध देखने को मिलता है, कुछ वैसी ही स्थिति भारतीय मुख्यधारा मीडिया की भी है। मीडिया को लेकर मोदी सरकार की सबसे बड़ी उपलब्धियों में से एक रहा है 'सूत्रों'और 'लीक' खबरों की संस्कृति का बंद हो जाना। लेकिन लगता है कि कुछ मंत्रालयों के अधिकारी अब भी पुराने ढर्रे पर काम कर रहे हैं। नोटबंदी को लेकर 'सूत्रों के हवाले से' कई भ्रामक और झूठी खबरें फैलाई गईं। घर में सोना रखने पर सीमा, पैसे जमा को लेकर नियम आदि के बारे में ऐसी अफवाहें छपीं, जिन्होंने लोगों की परेशानी बढ़ाने का ही काम किया। राजनीतिक दलों को चंदे पर टैक्स छूट के मामले पर मीडिया ने ऐसा सफेद झूठ गढ़ा कि बड़े-बड़े चकरा गए। क्या अपनी इन हरकतों के लिए मीडिया कभी जनता के लिए जवाबदेह होगा? फिलहाल तो उम्मीद कम है, लेकिन धीरे-धीरे स्थितियां बदल रही हैं। नोटबंदी से सिर्फ भ्रष्टाचारियों ही नहीं, बल्कि मीडिया के एक तबके का भी असली चेहरा उजागर हुआ है। जिस संगठित तरीके से झूठी खबरें फैलाई गईं और नोटबंदी के असली उद्देश्य को झुंठलाने की कोशिश की गई, उसकी सच्चाई जब सामने आएगी तो उसका नुकसान मीडिया की विश्वसनीयता को ही होगा।
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