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पहचान और पीड़ा

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Jan 2, 2017, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 02 Jan 2017 12:16:57

1947 में सब कुछ गंवा कर जम्मू-कश्मीर में शरण लेने वाले हिन्दुओं को सरकार ने पहचान पत्र क्या जारी किया, घाटी में तीखा विरोध शुरू हो गया। पहचान पत्र मिलने से शरणार्थी खुश तो हैं, लेकिन उन्हें विरोध की पीड़ा झेलनी पड़ रही है।

अरुण कुमार सिंह
इन दिनों कश्मीर घाटी को एक बार फिर से सुलगाने की कोशिश हो रही है। अलगाववादियों के इशारे पर कुछ उत्पाती किस्म के युवा आए दिन सड़कों पर उतर कर भारत विरोधी नारे लगाने लगते हैं और सरकारी संपत्ति को नुकसान पहंुचाते हैं। वजह जानकर आपको आश्चर्य और दुख होगा। कारण है 1947 में पश्चिमी पाकिस्तान से आकर जम्मू-कश्मीर में रहने वाले हिंदू शरणार्थियों को केंद्र सरकार के निर्देश पर राज्य सरकार द्वारा पहचान पत्र जारी करना। इसकी खबर फैलते ही कश्मीर घाटी में हुर्रियत कॉन्फ्रंेस की अगुआई में अलगाववादी निरंतर विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं। विपक्षी दल नेशनल कॉन्फ्रेंस का  कहना है कि शरणार्थियों को स्थायी निवासी का दर्जा और संपत्ति का अधिकार देने की दिशा में यह पहला कदम है। जबकि जम्मू-कश्मीर सरकार के प्रवक्ता और राज्य के शिक्षा मंत्री नईम अख्तर कहते हैं, ''हम उन्हें केवल पहचान पत्र दे रहे हैं, जिससे कि वे अर्द्धसैनिक बलों और सेना में नौकरी के लिए आवेदन कर सकें।''
वहीं अलगावादी कहते हैं, ''अनुच्छेद 370 के कारण जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा प्राप्त है और इसलिए यहां कोई बाहरी व्यक्ति बस नहीं सकता है। शरणार्थियों को राज्य में किसी तरह की सुविधा नहीं मिलनी चाहिए।'' इसके जवाब में कठुआ में रहने वाले एक हिंदू शरणार्थी जसपाल भारती कहते हैं, ''यह नियम केवल हिंदू शरणार्थियों पर लागू किया जाता है। कश्मीर में म्यांमार, बंगलादेश और पाकिस्तान से आकर रहने वाले मुसलमानों की तादाद हजारों में है। उन्हें हर तरह की सुविधाएं दी जा रही हैं। यहां तक कि उन्हें बसाने के लिए राज्य के कानून में एक बार नहीं, कुल 14 बार बदलाव किए गए हैं। पहला बदलाव 1951 में ही किया गया था। इसके जरिए उस समय तिब्बत और चीन की सीमा पर रहने वाले जुगलियार मुसलमानों को श्रीनगर के ईदगाह इलाके में बसाया गया था।''
बता दें कि पश्चिमी पाकिस्तान से आकर जम्मू-कश्मीर में रहने वाले हिंदू शरणार्थियों की संख्या लगभग एक लाख है। पिछले 70 वर्ष से जम्मू-कश्मीर में रहने वाले इन हिंदुओं का दर्द इतना गहरा है कि इसकी थाह पाना, किसी बाहरी व्यक्ति के लिए आसान नहीं है। ये लोग जिस जमीन पर रह रहे हैं, वह भी इनके नाम नहीं है। ये लोग लोकसभा चुनाव में तो वोट डाल सकते हैं, पर जम्मू-कश्मीर के विधानसभा और स्थानीय निकाय चुनावों में वोट नहीं डाल सकते। ये लोग किसी सरकारी नौकरी में भी नहीं जा सकते और इनके बच्चे राज्य सरकार के किसी व्यावसायिक शिक्षण संस्थान में पढ़ भी नहीं सकते।
ये शरणार्थी 1947 से ही इन अधिकारों की मांग कर रहे हैं, लेकिन उनकी कोई नहीं सुन रहा। अब केंद्र सरकार ने उनके दर्द को कम करने के लिए उन्हें पहचान पत्र देने का फैसला किया है तो वहां के अलगाववादियों के पेट में दर्द होने लगा है। जबकि यही अलगाववादी जम्मू-कश्मीर में म्यांमार से भागकर आए रोंहिग्या मुसलमानों, बंगलादेशी और पाकिस्तानी घुसपैठियों को बसाने में मदद कर रहे हैं। उनके लिए राशन कार्ड बनवा रहे हैं, मतदाता सूची में उनके नाम चढ़वा रहे हैं।

सरकारी आंकड़ोें के अनुसार इन दिनों जम्मू में 18,000 रोहिंग्या  मुसलमान रह रहे हैं। अक्तूबर, 2015 में तत्कालीन मुख्यमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद ने कहा था कि इन दिनों जम्मू में 1,219 रोंहिग्या मुसलमान परिवारों के 5,107 लोग रह रहे हैं, जिनमें से 4,912 सदस्यों को संयुक्त राष्ट्र के उच्चायुक्त द्वारा शरणार्थी का दर्जा मिला हुआ है। जून, 2016 में वर्तमान मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने विधानसभा में कहा था कि राज्य के विभिन्न शिविरों में 13,400 रोहिंग्या और बंगलादेशी मुसलमान रह रहे हैं। लेकिन गैर-सरकारी सूत्रों का कहना है कि जम्मू और उसके आसपास  50,000 से भी अधिक रोहिंग्या मुसलमान रह रहे हैं। जम्मू के  अनेक लोगों ने बताया कि इनमें से अनेक के पास मतदाता पहचान पत्र और राशन कार्ड भी हैं। जम्मू-कश्मीर भाजपा के महासचिव डॉ. नरेन्द्र सिंह कहते हैं, ''राज्य से रोहिंग्या मुसलमानों और बंगलादेशियों को बाहर करना होगा, नहीं तो एक दिन वे यहां के लिए खतरा बन जाएंगे। भाजपा इस मुद्दे को विधानसभा में भी उठाएगी।'' उन्होंने यह भी कहा, ''जब जम्मू-कश्मीर में शेष भारत के लोग भी नहीं बस सकते हैं, तो विदेशियों को यहां कैसे बसाया जा सकता है?'' वहीं पीडीपी के जम्मू क्षेत्र के प्रवक्ता वेद महाजन कहते हैं, ''जिस तरह देश के अन्य हिस्सों में म्यांमार से आए मुसलमान और बंगलादेशी रह रहे हैं, उसी तरह वे लोग जम्मू में रह रहे हैं। इस पर बेमतलब का हंगामा हो रहा है।'' महाजन ने 1947 में पाकिस्तान से आए हिंदू शरणार्थियों के संबंध में कहा,''हमारी सरकार ने ही इन हिंदुओं को राहत देने के लिए उन्हें पहचान पत्र देना शुरू किया है। इससे पहले तो किसी ने ऐसा नहीं किया था। जहां तक घाटी में इसके विरोध की बात है, उसके लिए हमारी पार्टी को दोषी ठहराना गलत है।'' लेकिन 'वेस्ट पाकिस्तानी रिफ्यूजी एक्शन कमिटि-1947' के उपाध्यक्ष सुखदेव सिंह कहते हैं, ''राज्य सरकार ने केंद्र सरकार के दबाव में पहचान पत्र देना शुरू किया है। सच बात तो यह है कि चाहे पीडीपी हो या नेशनल कॉन्फ्रंेस, कोई भी पार्टी हिंदू शरणार्थियों को जम्मू-कश्मीर में रहने ही नहीं देना चाहती। इन दलों के नेताओं के इशारे पर ही विरोध प्रदर्शन किया जा रहा है।'' सुखदेव यह भी कहते हैं, ''जो लोग 70 वर्ष पुराने हिंदू शरणार्थियों को थोड़ी-सी सुविधा मिलने पर विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं, उन्होंने कभी कश्मीर में रह रहे गैर-कश्मीरी मुसलमानों का विरोध क्यों नहीं क्या? इसका मतलब तो यही निकलता है कि कश्मीरी मुसलमान किसी गैर-मुसलमान को कश्मीर में नहीं रहने देना चाहते।'' कुछ ऐसी ही राय विश्व हिंदू परिषद, जम्मू-कश्मीर प्रांत के अध्यक्ष और प्रसिद्ध वकील लीलाधर शर्मा की भी है। वे कहते हैं, ''अलगाववादियों और आतंकवादियों को जम्मू का हिंदू-बहुल होना अच्छा नहीं लगता। इसलिए इन लोगों की शह पर जम्मू के आसपास रोहिंग्या मुसलमानों और बंगलादेशी घुसपैठियों को बसाया जा रहा है। अलगाववादी ऐसी स्थिति पैदा कर रहे हैं कि आने वाले दिनों में जम्मू से भी हिंदू पलायन को मजबूर हो जाएंगे।''
ऐसी बात करने वाले लोगों की जम्मू में कमी नहीं है। चैंबर ऑफ कॉमर्स ऐंड इंडस्ट्री ऑफ जम्मू के अध्यक्ष राकेश गुप्ता कहते हैं, ''अनुच्छेद 370 को लागू करने में राज्य सरकार दोहरी नीति अपना रही है। एक तरफ सैनिक कॉलोनी और कश्मीरी पंडितों की कॉलोनी नहीं बनने दी गई, वहीं राज्य में विदेशी नागरिकों को गलत तरीके से बसाया जा रहा है। म्यांमार से मुस्लिम शरणार्थी कई वर्ष से आ रहे हैं और उनका तहेदिल से स्वागत भी हो रहा है, जबकि वे न तो भारत के नागरिक हैं और न ही राज्य के स्थायी निवासी।''
हाल ही में अनेक अखबारों में यह भी खबर छपी है कि जम्मू के पास रहने वाले रोहिंग्या मुसलमानों में से कुछ के संबंध आतंकवादी संगठनों से भी होने की आशंका है। इसकी खोजबीन होनी चाहिए।
जम्मू-कश्मीर की हालत कितनी खराब है, इसकी जानकारी देने के लिए भी पत्रकारों को अपना नाम छिपाना पड़ता है। जम्मू के एक प्रतिष्ठित समाचारपत्र के पत्रकार नाम न छापने की शर्त पर कहते हैं, जम्मू-कश्मीर से लाखों हिंदू खदेड़ दिए गए, हजारों मंदिर ध्वस्त कर दिए गए, लेकिन इन मुद्दों पर कभी भी पूरा भारत एकजुट नहीं हुआ, कभी भारत बंद नहीं। भारत के लोगों की यह मानसिकता ही अलगाववादियों का हौसला बढ़ा रही है। जिस दिन भारत जाग जाएगा, उस दिन यहां किसी के साथ भेदभाव नहीं होगा और आतंकवाद भी कब्र में दफन हो जाएगा। साथ  ही कोई विदेशी भी भारत में बसने की तो क्या, घुसने की भी हिम्मत नहीं करेगा।

पहल और पीड़ा
हमारी सरकार ने ही हिंदू शरणार्थियों को राहत देने के लिए पहचान पत्र देना शुरू किया है। इससे पहले तो किसी ने ऐसा नहीं किया था। जहां तक घाटी में इसके विरोध की बात है, उसके लिए हमारी पार्टी को दोषी ठहराना गलत है।
— वेद महाजन, प्रवक्ता, पीडीपी, जम्मू क्षेत्र

राज्य सरकार ने केंद्र सरकार के दबाव में पहचान पत्र देना शुरू किया है। सच बात तो यह है कि चाहे पीडीपी हो या नेशनल कांफ्रंेस कोई भी पार्टी हिंदू शरणार्थियों को जम्मू-कश्मीर में रहने ही नहीं देना चाहती।
—सुखदेव सिंह, उपाध्यक्ष, 'वेस्ट पाकिस्तानी रिफ्यूजी एक्शन कमिटि-1947'

राज्य से रोहिंग्या मुसलमानों और बंगलादेशियों को बाहर करना होगा, नहीं तो एक दिन वे यहां के लिए खतरा बन जाएंगे। इस मुद्दे को भाजपा विधानसभा में भी उठाएगी।
—डॉ. नरेन्द्र सिंह, महासचिव, जम्मू-कश्मीर, भाजपा

हम उन्हें केवल पहचान पत्र दे रहे हैं, जिससे कि वे अर्द्धसैनिक बलों और सेना में नौकरी के लिए आवेदन कर सकें।
—नईम अख्तर
प्रवक्ता, जम्मू-कश्मीर सरकार

कौन हैं रोहिंग्या
माना जा रहा है कि भारत विभाजन के समय पूर्वी पाकिस्तान से बड़ी संख्या में रोहिंग्या मुसलमान म्यांमार चले गए थे। रोहिंग्या मुसलमान भारत से सटे पश्चिमी म्यांमार के राखीन क्षेत्र में बसे हुए हैं और बंगलादेश को अपना मानते हैं। 1982 में म्यांमार ने एक कड़ा नागरिक कानून बनाया। इस कानून के अनुसार हर नागरिक को अपने मत-पंथ की घोषणा करने वाला पहचान पत्र अपने पास रखना अनिवार्य है। इस कानून के द्वारा रोहिंग्या मुसलमानों को म्यांमार की नागरिकता से वंचित कर दिया गया। इसके बाद इन लोगों ने बंगलादेश में शरण लेने की कोशिश की, लेकिन बंगलादेश ने उन्हें अपने यहां प्रवेश करने की इजाजत नहीं दी।
इनमें से कुछ लोग तो म्यांमार वापस हो गए, लेकिन उनकी एक बड़ी संख्या भारत में प्रवेश कर गई और तभी से चोरी-छिपे कुछ न कुछ रोहिंग्या मुसलमान निरंतर भारत आ रहे हैं। वोट के सौदागर उन्हें जगह-जगह बसा रहे हैं। दिल्ली में मुस्लिम-बहुल ओखला के पास रोहिंग्या मुसलमानों की एक बस्ती बस चुकी है। उन्हें स्थानीय नेताओं का सहयोग मिलता है। इसी तरह हरियाणा के मेवात में पुन्हाना के पास इन मुसलमानों को बसाया गया है। उत्तर प्रदेश के मुजफ्फनगर में भी इन विदेशी मुसलमानों को कुछ लोगों ने बसाया है।

मजहबी भेदभाव
' पाकिस्तानी हिन्दू कश्मीर में 70 साल से शरणार्थी के रूप में रह रहे हैं, पर उन्हें अभी तक वहां की नागरिकता नहीं मिली।
'    हिन्दू शरणार्थियों को विधानसभा और स्थानीय निकाय चुनावों में मतदान का
अधिकार नहीं।
'    हिन्दू शरणार्थियों को सरकारी नौकरी नहीं दी जाती है।
'    अलगाववादी इनका विरोध खुलकर करते हैं।

'    1951 में चीन और तिब्बत की सीमा पर रहने वाले जुगलियार मुसलमानों को श्रीनगर में कानून में बदलाव कर बसाया गया।
'    जुगलियार मुसलमान वर्षों से वहां के हर चुनाव में मतदान
करते हैं।
'    मुसलमान शरणार्थियों को हर तरह की सरकारी सुविधाएं दी जा रही हैं।
'    कश्मीर में विदेशी
मुसलमानों का स्वागत

अनुच्छेद 370 को लागू करने में राज्य सरकार दोहरी नीति अपना रही है। एक तरफ सैनिक कॉलोनी और कश्मीरी पंडितों की कॉलोनी नहीं बनने दी गई, वहीं राज्य में विदेशी नागरिकों को गलत तरीके से बसाया जा रहा है।
— राकेश गुप्ता
अध्यक्ष, चैंबर ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री ऑफ जम्मू

आमने-सामने
अनुच्छेद 370 के कारण जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा प्राप्त है और इसलिए यहां कोई बाहरी व्यक्ति बस नहीं सकता। शरणार्थियों को राज्य में किसी तरह की सुविधा नहीं मिलनी चाहिए।
— कश्मीरी अलगाववादी

यह नियम केवल हिंदू शरणार्थियों पर लागू किया जाता है। कश्मीर में म्यांमार, बंगलादेश और पाकिस्तान से आकर रहने वाले मुसलमानों की तादाद हजारों में है। उन्हें हर तरह की सुविधाएं दी जा रही हैं।
— जसपाल भारती, हिंदू शरणार्थी

 

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