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साथ ही इस साल अर्थव्यवस्था ने नई करवट ली है। इसी तरह 2016 में विदेश नीति, आतंकवाद, खेल, फिल्म, ज्ञान परंपरा, महिला अधिकार आदि क्षेत्रों में भी हमने बहुत कुछ हासिल किया, नए आयाम सामने आए। प्रस्तुत है साल के विदा होने के साथ, इन तमाम क्षेत्रों में हमने क्या पाया, क्या खोया का एक संतुलित विश्लेषण
आलोक पुराणिक
8 नवंबर, 2016 को नोटबंदी घोषित की गई थी। इसके एक महीने बाद यानी 7 दिसंबर तक नकदहीन लेन-देन में जोरदार तेजी दर्ज की गई है क्योंकि इसके अलावा दूसरा विकल्प नहीं था। पेटीएम जैसे मोबाइल वैलेटों में 8 नवंबर को रोजाना करीब 17 लाख लेन-देन होते थे, इनकी कीमत 52 करोड़ रुपये रोजाना की थी। एक महीने बाद लेन-देन का आंकड़ा बढ़कर 63 लाख पर पहुंच गया। मोबाइल वैलेटों में 7 दिसंबर को रोजाना करीब 191 करोड़ रुपये के लेन-देन का रिकार्ड रहा यानी 267 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी दर्ज की गई। पेटीएम के अपने आंकड़े बताते हैं कि उसने एक महीने में एक करोड़ चालीस लाख नये ग्राहक जोड़े। पेटीएम की ग्राहक संख्या अब 16 करोड़ के पार चली गई है। नोटबंदी का सीधा फायदा पेटीएम को मिला।
पाइंट आफ सेल यानी पीओएस मशीन (जिसमें कार्ड के जरिये भुगतान किया जाता है) के लेन-देन नवंबर के महीने में बहुत तेजी से बढ़े। 8 नवंबर को ये मशीनें रोज पचास लाख लेन-देन करती थीं, 7 दिसंबर तक यह आंकड़ा बढ़कर 98 लाख तक पहुंच गया यानी करीब 95 प्रतिशत की बढ़ोतरी। 8 नवंबर, 2016 को पोस मशीनों के जरिये होने वाले कारोबार की कीमत करीब 122 करोड़ रुपये थी, यह 7 दिसंबर को बढ़कर 175 करोड़ रुपये हो गई यानी करीब 43 प्रतिशत का इजाफा।
नकद न्यूनतम की ओर आगे ले जाने वाला एक उपाय है-यूपीआई यानी यूनीफाइड पेमेंट इंटरफेस। इसके जरिये तमाम बैंकों के माध्यम से आसानी से भुगतान करना संभव है। नवंबर, 2016 में यूपीआई के जरिये 2,87,000 लेन-देन हुए थे, इनकी कीमत थी करीब 90़ 52 करोड़ रुपये। 15 दिसंबर, 2016 यानी आधे ही वक्त में यूपीआई के जरिये 7,19,000 लेन-देन हो चुके थे और इनकी कीमत करीब 220 करोड़ रुपये थी। पंद्रह ही दिनों में दोगुने से ज्यादा की बढ़ोतरी। कह सकते हैं कि अर्थव्यवस्था में इस बदलाव के चलते यह साल महत्वपूर्ण रहा है।
नकद न्यूनतम की व्यवस्थाएं
नकद न्यूनतम को लेकर कुछ व्यवस्थाएं आवश्यक हैं। हाल में ही पीओएस मशीनों की उपलब्धता को लेकर सवाल उठने लगे। दुकानदारों ने मशीनों की मांग की है, पर ये मशीनें उपलब्ध नहीं हैं, क्योंकि मांग बहुत ज्यादा है। इन मशीनों की सुनिश्चित उपलब्धता के बगैर नकद न्यूनतम का सपना भी पूरा नहीं हो सकता। नकद न्यूनतम अर्थव्यवस्था को लागू करने के लिए पाइंट ऑफ सेल मशीनों से जुड़ा बुनियादी ढांचा बहुत अविकसित स्थिति में है। नकद न्यूनतम स्थिति लागू करने जा रहे देश में कुल चौदह लाख पाइंट ऑफ सेल मशीनें हैं यानी करीब 10 लाख लोगों पर 693 मशीनें। चीन में प्रति 10 लाख पर 4,000 पाइंट ऑफ सेल मशीनें हैं, ब्राजील में ये 33,000 हैं। यानी इस मोर्चे पर हमें तेजी दिखाने की जरूरत है।
'कैशलैस' के रास्ते में रुकावटें
'कैशलैस' यानी नकद न्यूनतम की तरफ जाने में दो रुकावटें हैं। एक तो यह है कि अधिकांश लोग पुराने ढर्रे से नयी व्यवस्था में आने में असहज महसूस करते हैं। नकद से नकद न्यूनतम का बदलाव तो दूर की बात है, लोग घर में टेबल को इधर से उधर रखने जैसा बदलाव भी स्वीकार करने में वक्त लेते हैं। तो यह रुकावट तो देर-सवेर खत्म हो जायेगी। पर दूसरी समस्या ज्यादा गहरी है। वह यह कि पुरानी व्यवस्था को बनाये रखने में कई कारोबारियों के गहरे हित हैं। कैशलैस कारोबार का मतलब है रिकार्डिंग हो रही है हर लेन-देन की। हर लेन-देन की रिकार्डिंग का मतलब वह लेन-देन सफेद में हो गया। सफेद का मतलब उस पर टैक्स का भुगतान भी होगा। यह कई कारोबारी नहीं चाहते, यानी हिसाब-किताब की रिकार्डिंग के बगैर काम चलता रहे, ऐसा कई कारोबारी चाहते हैं। ऐसे कारोबारियों को नकद न्यूनतम वाले कारोबार में लाना आसान नहीं है। हालांकि सरकार ने नकद न्यूनतम वाले कारोबार को कुछ छूट देने की घोषणाएं की हैं। पर यह काम आसान नहीं है। तो ये दो रुकावटें दूर करना जरूरी हैं।
ग्राहकों के हित
ग्राहकों को समझाया जाए कि नकद न्यूनतम कारोबार में उनका हित है, क्योंकि यह सस्ता पड़ता है। जरूरी है कि नकद लेन-देन कम करने की ठोस वजह प्रदान की जाए। भारत में कम पढ़े-लिखे वित्तीय व्यवहार में पढ़े-लिखों के कान काटने की हैसियत रखते हैं। यानी वित्तीय मामलों में भारत में अनपढ़ों तक को अज्ञानी नहीं मानना चाहिए। ऑनलाइन अर्थव्यवस्था, कैशलैस अर्थव्यवस्था की ओर जनता क्यों जाये, इसकी एक ठोस वजह वित्त मंत्री अरुण जेटली ने 8 दिसंबर, 2016 को दी है। यानी कैशलैस काम करेंगे, ऑनलाइन लेन-देन करेंगे, तो सस्ता पड़ेगा। पेट्रोल-डीजल के कैशलैस लेन-देन पर .75 प्रतिशत की छूट मिलेगी। यानी कार्ड से पेट्रोल-डीजल लेना सस्ता पड़ेगा। नयी लाइफ इंश्योरेंस पालिसी कैशलैस खरीदने पर 10 प्रतिशत छूट मिलेगी। नॉन-लाइफ इंश्योरेंस पालिसी पर छूट 8 प्रतिशत है। मासिक टिकटों को कैशलेस लेने पर .5 प्रतिशत की छूट मिलेगी। रेलवे खान-पान, आराम कक्षों के कैशलैस लेन-देन पर 5 प्रतिशत की छूट होगी। राजमार्ग टोल पर कैशलैस भुगतान पर दस प्रतिशत की छूट होगी। डेबिट कार्ड-क्रेडिट कार्ड के दो हजार रुपये तक के भुगतान पर सर्विस टैक्स नहीं लिया जायेगा। रेल का टिकट ऑनलाइन लेने पर 10 लाख रुपये का इंश्योरेंस मिलेगा। यानी कैशलैस लेन-देन करना सस्ता होगा और कुछ अतिरिक्त सुविधाएं भी मिलेंगी।
यानी पुराने से नये की ओर लाने की ठोस वजह होनी चाहिए। दो पैसे की बचत एक बहुत ठोस वजह है। यानी अगर कैशलैस अर्थव्यवस्था को दर्दरहित होना है, तो उसे सस्ता होना होगा। तो सस्ता करना एक बहुत सुघड़ रणनीति है।
आगामी बजट में सस्ता 'कैशलैस'
आगामी बजट में वित्त मंत्री को इस तरह के कर प्रावधान रखने चाहिए कि तमाम चीजें, सेवाएं ऑनलाइन सस्ती मिलें। फिर जनता को देशप्रेम, राष्ट्रहित का वास्ता नहीं देना पड़ेगा। जनता को अपनी जेब का कैश-हित बहुत जल्दी समझ में आ जाता है। इसलिए कैशलैस अर्थव्यवस्था की कामयाबी तब ही सुनिश्चित हो सकती है, जब उनकी जेब से कैश कम निकाला जाये। इस संबंध में तमाम तकनीकी और कानूनी अड़चनों को कैसे दूर किया जाए, इस पर सरकार को विचार करना चाहिए। कैशलेस लेन-देन सस्ते होंगे, तो बात एक झटके में समझ में आ जाती है। इस तरह की योजना बनायी जा रही है कि ऑनलाइन लेन-देन करने वालों के लकी ड्रा निकाले जायेंगे और उन्हें कुछ पुरस्कार दिया जाएगा। आने वाले बजट को इस मानक के आधार पर भी मूल्यांकित किया जाएगा कि उसने देश की जनता को कैशलैस लेन-देन की क्या ठोस वजहें दी हैं।
आर्थिक राष्ट्रवाद का पुनरोदय
ब्रिटेन ने खुद को यूरोपीय समुदाय से अलग किया, आर्थिक तौर पर। यानी ब्रिटेन के नागरिकों को समझ में आया कि यूरोप का आर्थिक हिस्सा बने रहने में फायदा कम है, नुकसान ज्यादा है। अलग राष्ट्र के तौर पर अलग पहचान बनाये रखने में ही फायदा है। पर इतिहास बताता है कि किसी भी राष्ट्र को इस संबंध में बहुत सोच-समझकर कदम उठाने चाहिए। अपने हितों का भली-भांति ख्याल कर लेना चाहिए। आर्थिक हित बहुत ताकतवर होते हैं, ये उतने ताकतवर दिखायी नहीं देते, पर होते बहुत ताकतवर हैं। भारतीय राजनीतिक इतिहास को पढ़ने वाले जानते हैं कि ईस्ट इंडिया कंपनी भारत में राजनीति करने से पहले कारोबार ही करने आयी थी। उस वक्त के शासकों ने अपने हितों का ख्याल कायदे से नहीं किया और बहुत आसानी से ईस्ट इंडिया कंपनी इस देश की मालिक बन गयी। बहुत शर्म की पर सच्ची बात है कि भारत जैसा बड़ा देश शताब्दियों तक किसी देश का नहीं, एक कंपनी का गुलाम रहा। सो आर्थिक हितों को समझना जरूरी है। प्रतिस्पर्धा से घबराना भी ठीक नहीं है और अपना मैदान छोड़कर भाग जाना भी ठीक नहीं है।
राष्ट्रहित बनाम कारोबार हित
ब्रेक्सिट के बाद ब्रिटेन की जनता ने बता दिया है कि हमें अपने हित यूरोपीय संघ से अलग होकर बतौर राष्ट्र के चलने में ज्यादा ठीक दिखायी पड़ते हैं। भारत में ऐसा देखने में आया है कि कई उद्योगपतियों को राष्ट्र की याद तब आती है, जब वे दिक्कतों में फंस जाते हैं। भारत के ई-कॉमर्स कारोबार के कई उद्योगपतियों ने अपने धंधे के लिए विदेशी पूंजी ली, अब और बड़ी विदेशी पूंजी उन्हें प्रतिस्पर्धा दे रही है, तो वे गुहार लगा रहे हैं कि विदेश से सिर्फ पूंजी को आने की इजाजत होनी चाहिए। भारतीय बाजारों पर भारतीयों कंपनियों का ही कब्जा होना चाहिए।
पर मसला इतना सीधा नहीं है। इसी मुल्क ने यह भी देखा है कि एक समय पेप्सी का विरोध करने वाले कोल्ड ड्रिंक कारोबारी रमेश चौहान बाद में दूसरी बहुराष्ट्रीय कंपनी कोक को अपना थम्स अप दे आये। यानी अपने निजी हितों को राष्ट्र हित की आड़ में चलाने वालों से सावधान रहने की जरूरत है। राष्ट्र का नाम लेकर दाम बढ़ जाते हैं, ऐसी सोच बहुतों की है। हाल में चीन के विरोध का भी ज्वार देखने में आया। पर समझने की बात यह है कि मेक इन इंडिया कार्यक्रम के तहत कई चीनी मोबाइल कंपनियां भारत में अपनी उत्पादन इकाइयां बना रही हैं। आंध्र प्रदेश में चीनी सहयोग से बहुत कुछ हो रहा है। चीन के मोबाइल भारत में हाथोंहाथ बिक रहे हैं, बहुत सस्ते दाम पर ये बहुत ज्यादा फीचर दे रहे हैं। तो आर्थिक राष्ट्रवाद के मसले पर दो बातें याद रखी जानी जरूरी हैं कि बराबरी का मैदान हो, पर सबसे भिड़ने का माद्दा होना चाहिए।
जूझें पूरी ताकत से
हम उससे नहीं लड़ेंगे, हम उससे नहीं भिडें़गे, यह सोच कहीं ना कहीं कमजोर भी करती है। जबकि हम पूरी ताकत के साथ मैदान में उतरेंगे, अपनी तैयारियों में कोई कमी नहीं करेंगे वाली सोच होनी चाहिए। दूसरी बात यह है कि चीन या अमेरिका, किसी को भी अगर भारत में राहत दी जाए, तो उसके बदले उनसे कुछ हासिल किया जाए। सबको खैरात बांटने का जिम्मा भारत का नहीं है। हम कुछ देंगे और कुछ लेंगे।
राष्ट्रहित सबसे ऊपर होंगे। इस संबंध में इस मसले पर भी विचार किया जाना चाहिए कि एक मिली-जुली वैश्विक दुनिया में यह संभव नहीं है कि अमेरिकी कंपनियों को भारत से खदेड़कर भारत अमेरिका के ट्रंप से कहे कि हमारे हजारों साफ्टवेयर इंजीनियरों को आप वहीं पक्का रोजगार दें। यह संभव नहीं है कि चीन की उत्पादन इकाइयों को भारत से भगाकर चीन से कहें कि हमारी साफ्टवेयर कंपनियां चीन में काम करती रहेंगी। यानी मामला लेन-देन का ही होगा, सुनिश्चित यह करना है कि लेन-देन में संतुलन रहे।
2016 की दूसरी विरासत-तकनीक से बदलता चेहरा
नोटबंदी के शोर में बहुत कम लोगों का ध्यान इस बात की ओर गया है कि तकनीक ने बहुत कुछ ऐसा बदल दिया है और बहुत कुछ ऐसा बदल रही है, जो बहुत बुनियादी है। तकनीक ने ऐसे परिवर्तन किये हैं कि अब कारोबार, फाइनेंस के मसले वैसे नहीं रह गये हैं, जैसे वे 2016 के पहले थे। सस्ते इंटरनेट और सस्ते स्मार्टफोन के मामले अब सिर्फ संचार के नहीं रह गये हैं, ये दरअसल अब आर्थिक मामले हो गये हैं। इस बात की बहुत कम चर्चा हो रही है कि टेलीकॉम कंपनी एयरटेल ने एयरटेल पेमेंट बैंक के तौर पर काम शुरू कर दिया है। एयरटेल के पास 25 करोड़ से ज्यादा ग्राहक हैं। बैंकिंग में टेलीकॉम के ग्राहकों के साथ घुसना एक अलग तरह का आयाम है, जिससे भारतीय बैंकिंग जगत वाकिफ नहीं है। पेटीएम के पास करीब 17 करोड़ ग्राहक हैं, इसके पास भी पेमेंट बैंक के तौर पर काम करने का लाइसेंस है। यानी कुल मिलाकर बैंकिंग का चेहरा तकनीक से जुड़ी कंपनियां बदल रही हैं।
इंटरनेट और सस्ता इंटरनेट स्थितियों में और बदलाव लायेगा। अभी टेलीकाम रेगुलेशन अथारिटी ऑफ इंडिया यानी ट्राई ने सिफारिश की है कि गांवों में स्मार्टफोन के लिए इंटरनेट को मुफ्त किया जाये। ट्राई के आंकड़ों के मुताबिक करीब 104 करोड़ मोबाइलों में से करीब 44 करोड़ मोबाइल गांवों में हैं। इनमें से 5 करोड़ स्मार्टफोन हैं। ट्राई ने अनुमान लगाया है कि गांवों के 5 करोड़ स्मार्टफोन को साल भर में 100 एमबी इंटरनेट डाटा प्रति माह मुफ्त दिया जाना चाहिए, इसकी लागत करीब 600 करोड़ रुपये आएगी।
यह बात तो साफ है कि कैशलैस यानी नकद-न्यूनतम अर्थव्यवस्था का सपना तब ही साकार हो पायेगा, जब गांवों में सस्ता और सुचारु इंटरनेट पहुंचेगा। 2016 में देखा जा सकता है कि बहुत-सी बैकिंग और वित्तीय सेवाओं को तकनीक कंपनियों ने उखाड़ दिया है, सस्ते इंटरनेट का सहारा लेकर।
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