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भारत-रूस संबंधों में ताजगी लौटती दिख रही है। रूस ने भारत की सर्जिकल स्ट्राइक को खुला समर्थन दिया। ब्रिटेन की नयी प्रधानमंत्री ने भी भारत के साथ हर प्रकार के सहयोग को आगे बढ़ाने की इच्छा जताई है। कुल मिलाकर भारतीय विदेश नीति के लिए 2016 उम्मीदें जगाने वाला साल रहा
प्रशांत बाजपेई
दशकों से एक आम भारतीय के लिए विदेश नीति का मतलब समाचार पत्रों के छोटे-बड़े शीर्षक और राजनीति शास्त्र का पाठ्यक्रम था। लेकिन साल 2016 गुजरते-गुजरते उसे विदेश नीति के वास्तविक अर्थ समझ आने लगे हैं। आज एक कॉलेज छात्र भी जानता है कि विदेश नीति देश की सुरक्षा, अर्थव्यवस्था और सांस्कृतिक प्रभाव से जुड़ा बेहद महत्वपूर्ण विभाग है। आखिरकार सभी ने देखा कि जब भारत के सैनिकों ने पाकिस्तान के अंदर जाकर आतंकियों के लॉन्च पैड तबाह किये तो दुनिया के कई देशों ने प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से भारत की कार्रवाई का अनुमोदन किया, और कोई भी देश पाकिस्तान के पक्ष में बोलने के लिए आगे नहीं आया। भारत का प्रतिद्वंदी— पाकिस्तान का दोस्त मुल्क चीन भी नहीं, और न ही अरब जगत।
इसी साल 28 अगस्त को इसरो (भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संस्थान) ने स्क्रैपजेट इंजन राकेट का सफलतापूर्वक प्रक्षेपण किया। इस प्रक्षेपण ने भारत के अंतरिक्ष कार्यक्रम को दुनिया के बेहद चुनिंदा देशों के समकक्ष ला खड़ा किया। इस स्क्रैपजेट इंजन की विशेषता है कि यह आस-पास के वातावरण में उपस्थित आक्सीजन का उपयोग ईंधन को जलाने में करता है। इससे ईंधन का भार घट जाता है और प्रक्षेपण की लागत कई गुना कम हो जाती है। भारत की विदेश नीति भी अपने आसपास की परिस्थितियों का उपयोग आगे बढ़ने के लिए करने लगी है। इस नयी भंगिमा को दुनिया ने मान भी दिया। अगस्त के अंत में भारत आए अमेरिका के सेक्रेटरी ऑफ स्टेट जॉन कैरी ने जब घोषणा की कि अफगानिस्तान में शांति और स्थिरता लाने के लिए भारत-अमेरिका-अफगानिस्तान सितंबर में त्रिपक्षीय सहयोग प्रारंभ करेंगे तो इसे भारत के क्षेत्रीय ताकत के रूप में उभरने की घोषणा के रूप में देखा गया। वर्षों से अफगानिस्तान की अस्थिरता भारत की सुरक्षा के लिए गंभीर खतरा बनी हुई थी, लेकिन इस समस्या को सुलझाने में उसकी कोई भूमिका नहीं थी, जबकि अफगानिस्तान को बरबाद करने पर आमादा पाकिस्तान का हर नाज-नखरा सिर आंखों चढ़ाया जाता रहा।
इतिहास में पहली बार भारत के प्रधानमंत्री ने पाकिस्तान के अशांत क्षेत्रों, सिंध और बलूचिस्तान का नाम लेकर उसके खिलाफ नया कूटनीतिक मोर्चा खोला। मौका था 15 अगस्त पर प्रधानमंत्री के सालाना भाषण का। इस वक्तव्य के बाद भारत के अंदर और बाहर, खास-तौर पर पाकिस्तान के राजनीतिक हलकों और मीडिया में हलचल मच गयी। बलूचिस्तान से लेकर सिंध और पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर तक मोदी को धन्यवाद ज्ञापित हुए। आतंक के मुद्दे पर पाकिस्तान को तब एक और कूटनीतिक भूचाल का सामना करना पड़ा जब इस्लामाबाद में होने जा रहे सार्क सम्मेलन के बहिष्कार की भारत की घोषणा के बाद बंगलादेश व अफगानिस्तान जैसे 'बिरादर' भी उसके खिलाफ आग उगलने लगे और सम्मेलन रद्द हो गया। भारत सरकार के नोटबंदी के फैसले के बाद कश्मीर घाटी के पाकिस्तान समर्थित इत्तिफादा और पत्थरबाजों, दोनों की हवा निकल गई और यह सारा तमाशा प्रायोजित था, ये साबित हो गया।
चीन के साथ संबंध आगे नहीं बढ़ सके। चीन ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् में अपनी मौजूदगी का उपयोग भारत के आतंक विरोधी राजनयिक अभियान में रोड़ा अटकाने में किया। भारत ने राजनयिक विरोध दर्ज किया। उसने अरुणाचल और दक्षिण चीन सागर के मामले में चीनी दबाव में आने से स्पष्टता से इनकार कर दिया। जुलाई 2016 में दक्षिणी चीन सागर मामले में अंतरराष्ट्रीय अदालत में अपने खिलाफ आए फैसले से तिलमिलाए चीन को भारत-वियतनाम की बढ़ती दोस्ती रास नहीं आ रही है। जी-20 सम्मेलन में भाग लेने जाते हुए मोदी वियतनाम में रुके। दोनों प्रधानमंत्रियों की बातचीत में भारत-वियतनाम की बढ़ती कूटनीतिक और सामरिक साझेदारी की झलक मिली।
दक्षिण चीन सागर के संबंध में फिलीपीन्स के पक्ष और चीन के खिलाफ आए फैसले में भारत के विदेश विभाग की प्रतिक्रिया थी-'जैसा कि अंतरराष्ट्रीय अदालत के निर्णय से स्पष्ट है, भारत (दक्षिण चीन सागर) क्षेत्र में आवागमन, उड्डयन और अबाधित व्यापार की स्वतंत्रता का समर्थन करता है।'
2009 में दलाई लामा अरुणाचल प्रदेश जाना चाहते थे, लेकिन चीन के विरोध कि 'भारत चीन के बीच विवादित क्षेत्र अरुणाचल प्रदेश में दलाई लामा के जाने से भारत-चीन सम्बंधों पर असर पड़ेगा', के चलते दलाई लामा की यात्रा रद्द कर दी गई थी। 2016 में एक बार फिर चीन ने ऐसी ही आपत्ति जताई, लेकिन भारत का जवाब दो टूक था कि अरुणाचल क्षेत्र विवादित नहीं है, बल्कि भारत का निर्विवादित अंग है और भारत के अतिथि दलाई लामा वहां जाने के लिए स्वतंत्र हैं। दलाई लामा पूरे प्रोटोकॉल के साथ तवांग और ईटानगर गए। चीन की सारी आपत्तियों को दरकिनार करते हुए भारत में अमेरिकी राजदूत रिचर्ड वर्मा अक्तूबर में अरुणाचल
प्रदेश पहुंचे।
अमेरिका में डोनाल्ड ट्रम्प के सत्ता में आने के मद्देनजर यह दौरा बेहद खास हो जाता है। भारत-अमेरिका की लगातार मजबूत होती सामरिक-आर्थिक और कूटनीतिक साझेदारी की पृष्ठभूमि में ट्रम्प भारत को लेकर ओबामा से कहीं ज्यादा उत्साही और चीन को लेकर उनसे कही अधिक सतर्क नजर आते हैं। ट्रम्प ने भारत से सामरिक-सैन्य साझेदारी को आगे बढ़ाने, और इस क्षेत्र में भारत के महत्व को और अधिक बल देने के संकेत दिए हैं।
लगातार हो रहे जिहादी आतंकी हमलों से हलकान यूरोप में राष्ट्रवाद उभार पर है। ब्रिटिश जनता का यूरोपियन यूनियन से बाहर आने का फैसला इस तथ्य से भी गहरे तक प्रभावित है। भारत के जिहादी आतंक विरोधी अभियान में कई भावी गठबंधन क्षितिज पर देखे जा सकते हैं। जब दुनिया के साथ आर्थिक संबंधों की बात आती है तो हमारे मीडिया का ध्यान अमेरिका-ब्रिटेन-चीन-जापान तक ठहर जाता है। हमारे यहां चीन के विपुल निर्यात की चर्चा होती है लेकिन इस निर्यात की पृष्ठभूमि में चीन द्वारा मध्य एशिया और अफ्रीका के छोटे -बड़े देशों के साथ किये गए व्यापार और कच्चे माल की आपूर्ति के समझौतों का क्या महत्व है, इसकी चर्चा नहीं होती।
भारत ने 2016 में अफ्रीका की तरफ हाथ बढ़ाया और वहां से गर्मजोशी भरा उत्तर मिला। हमारे मीडिया में मोदी की अफ्रीका यात्रा की ज्यादा चर्चा नहीं हुई लेकिन दुनिया में संबंधित पक्षों ने इसे ध्यान से देखा। अपने सारे संसाधनों के अतिरिक्त इस महाद्वीप का महत्व सारी दुनिया को चपेट में ले रही वैश्विक आर्थिक मंदी के चलते और भी बढ़ जाता है।
भारत-रूस संबंधों में ताजगी लौटती दिख रही है। रूस ने भारत की सर्जिकल स्ट्राइक को खुला समर्थन दिया। ब्रिटेन की नयी प्रधानमंत्री ने भी भारत के साथ हर प्रकार के सहयोग को आगे बढ़ाने की इच्छा जतायी है। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् की स्थायी सदस्यता भारत की मुहिम को दुनियाभर में नए समर्थक मिले हैं। कुल मिलाकर भारतीय विदेश नीति के लिए 2016 उम्मीदें जगाने वाला साल रहा।
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