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दक्षिण की गंगा कही जाने वाली पावन गोदावरी के तट पर बसे महाराष्ट्र के नांदेड शहर में स्थित तख्त सचखंड श्री हजूर साहिब विश्वभर में प्रसिद्ध है। 1708 में सिखों के अंतिम गुरु गोबिंद सिंह जी ने अपने प्रिय घोड़े दिलबाग के साथ यहीं पर अंतिम सांस ली थी। कहते हैं कि यहीं से उन्होंने औरंगजेब को फारसी भाषा में एक पत्र लिखा था, जो इतिहास में 'जफरनामा' के नाम से विख्यात है। इस पत्र में वे औरंगजेब को फटकार लगाते हुए लिखते हैं, ''तूने अपने नाम औरंगजेब नाम को कलंकित किया है। तू सच्चा मुसलमान नहीं है, क्योंकि कुरान जुल्म के खिलाफ है़.़ सत्य और न्याय की रक्षा के लिए अन्य सभी साधन विफल हो जाएं तभी तलवार को धारण करना चाहिए़.़ क्या हुआ जो तूने मेरे चारों निदार्ेष बच्चे मरवा दिए मगर मैं अभी जिंदा हूं। तेरे राज का खात्मा अब निकट है़.़।'' गुरु जी का यह पत्र सिख इतिहास की अमर निधि माना जाता है। कहते हैं कि इस पत्र को पढ़कर औरंगजेब पश्चाताप से भर गया था और कुछ ही समय बाद उसने शरीर छोड़ दिया।
गुरु गोविन्द सिंह ने अपनी मृत्यु से पूर्व उत्तराधिकारी चुनने के बजाय 'पवित्र ग्रंथ साहिब' को गुरु मानने का आदेश दिया। तभी से पवित्र ग्रंथ को गुरु माना जाने लगा। पांच पवित्र तख्तों (पवित्र सिंहासन) में से एक इस गुरुद्वारे को सचखंड (सत्य का क्षेत्र) नाम से भी जाना जाता है। यह गुरुद्वारा गुरु गोविन्द सिंह जी के महाप्रयाण स्थल पर निर्मित है। गुरुद्वारे का आंतरिक कक्ष 'अंगीठा साहिब' ठीक उसी स्थान पर बनाया गया है जहां1708 में गुरु जी का अंतिम संस्कार किया गया था।
श्री हेमकुंड साहिब
उत्तराखंड के चमोली जिले में 15,200 फुट की ऊंचाई पर स्थित गुरुद्वारा श्री हेमकुंड साहिब गुरु गोबिंद सिंह जी के पूर्वजन्म की स्मृतियों से जुड़ा पवित्र तीर्थ है। यह गुरुद्वारा हिमालय की सात पहाडि़यों से घिरी बर्फ की एक झील के किनारे बना है। दसम ग्रंथ के एक अंश 'विचित्र चरित्र' में गुरु जी ने अपने पूर्वजन्म का उल्लेख करते हुए लिखा है,
''हेमकुंट परबत है जहां।
सप्तश्रृंग सोभित है तहां॥
तहं हम अधिक तपस्या साधी।
महाकाल कालिका आराधी॥''
गुरु जी के मुताबिक उनके पिछले जन्म का नाम दुष्टदमन था। पूर्व जन्म में उन्हांेने हिमालय पर्वत पर सात पहाडि़यों से घिरी हेमकुंड की चोटी पर उस स्थल पर कठोर तपस्या की थी, जहां त्रेता युग में वीरवर लक्ष्मण और द्वापर में पाण्डवों ने साधना की थी। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान महाकाल ने उन्हें दर्शन दिए और संसार का कष्ट दूर करने के लिए धरती पर भेजा। परमात्मा ने मुझे संसार में भेजते समय कहा, 'मैं अपना सुत तोहि निवाजा, पंथ प्रचुर करबे कह साजा।' इस तरह ईश्वरीय कार्य के निमित्त उन्हांेने धरती पर जन्म लिया और धर्म राज्य की स्थापना के लिए दुष्टों का संहार किया।
वर्तमान समय में हेमकुंड साहिब में गुरु गोबिंद सिंह की स्मृति में एक भव्य गुरुद्वारा स्थापित है, जहां प्रतिवर्ष हजारों लोग आते हैं। गौरतलब है कि बर्फीला क्षेत्र होने के कारण यह गुरुद्वारा साल में मात्र तीन माह (जुलाई से सितंबर) ही खुलता है।
श्री अकाल तख्त
अमृतसर का स्वर्ण मंदिर 16वीं शताब्दी में पांचवें गुरु अर्जुन देव द्वारा बनवाया गया। यह गुरुद्वारा वर्तमान समय में सिख समाज की गतिविधियों का प्रमुख केन्द्र माना जाता है। 1708 में गुरु गोबिंद सिंह द्वारा जब मानवी गुरुओं की परंपरा को समाप्त कर 'गुरु ग्रंथ साहिब' को गुरु रूप में मानने का निर्देश जारी हुआ, तभी से इस अकाल तख्त पर सिख समाज से जुड़े फैसले लेने का
दायित्व है।
प्रकारांतर से देखें तो इस परंपरा के शुभारंभ का श्रेय गुरु गोबिंद सिंह जी को जाता है। अमृत सरोवर से घिरे और स्वर्ण छत्र से सुशोभित इस विश्वविख्यात तीर्थ में सालभर देशी-विदेशी श्रद्धालुओं का रेला लगा रहता है।
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