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खालसा यानी जो मन, वचन और कर्म से शुद्ध हो और जो समाज के प्रति समर्पण का भाव रखता हो। गुरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा पंथ की सिरजना कर एक ऐसे वर्ग को तैयार किया जो सदैव समाज और देशहित के लिए संघर्ष करता रहा। अमृत के चंद छीटों से उन्होंने इनसानी मन का ऐसा बदलाव किया, जिसकी मिसाल और जगह नहीं दिखती
सरदार चिरंजीव सिंह
श्री गुरु गोबिंद सिंह जी ने अपने पिता श्री गुरु तेगबहादुर के बलिदान के पश्चात् संपूर्ण परिस्थितियों का विचार किया और खालसा के रूप में हिंदू समाज को एक नया आयाम दिया। इसमें वर्ग-हीन, वर्ण-हीन, जाति-हीन व्यवस्था का निर्माण हुआ। उसमें से विद्वान योद्धा, धर्मात्मा, सेवक और संत आगे आए। अपने अनुयायियों को शूरवीरों में बदल दिया। वे शेरों को उनके झुंडों में जाकर चुनौती देते थे। वे औरंगजेब को भी ललकारते थे। चारों वर्ण एक साथ भोजन करते थे। इस रचना को आज हम खालसा पंथ के नाम से जानते हैं।
खालसा पंथ की रचना न केवल गुरु नानक परंपरा में एक नया मोड़ है, अपितु भारत के जन-जागरण इतिहास में एक महान राष्ट्रीय आंदोलन है। आनंदपुर साहिब में 30 मार्च, 1699 की बैसाखी का मिलन, भारत में धार्मिक, सामाजिक एवं राजनीतिक क्रांति का नगाड़ा है। इस दिन नौ सिख गुरुओं की तपस्या अर्थात् 'अभिभाज्य भक्ति' के साथ-साथ विराट दैवीय शक्ति का योग दसवें गुरु गोबिंद सिंह जी ने एक अलौकिक घटना के द्वारा प्रगट किया। उनकी स्पष्ट घोषणा ने संसार को चकित कर दिया। जब वह बोल उठे, ''मेरा सिख
जब भक्ति के साथ शक्ति की आराधना करेगा, तब वह संत होगा। जब वह शत्रु का नाश करने हेतु वीर रूप धारण करेगा तो सिपाही
होगा। वह एक ही समय में संत और
सिपाही होगा।''
चारों वणार्ें को एक कराऊं ।
सतिनाम का जाप कराऊं ॥
दशम् गुरु ने चारों वणार्ें को एक कर अपने खालसे के अपार व्यक्तित्व में संजो दिया और संकेत किया- मेरा सिख ब्रह्म मुहूर्त (अमृत वेले) में उठकर जब गुरुबाणी गाएगा—पांच वाणियों का पाठ करेगा उस समय वह ब्राह्मण होगा। जब ईमानदारी की कमाई करेगा—किरत करेगा, वंड के छकेगा (बांट कर खाएगा), खेती करेगा तो वह वैश्य होगा। जब कार सेवा करेगा, गुरु के लंगर, संगत के जोड़ों और सरोवर और दुखियों की सेवा करेगा तो वह शूद्र होगा। जब देश, धर्म के शत्रुओं और अत्याचारी -दुराचारी दुष्टों से युद्ध करेगा, तब वह क्षत्रिय होगा। इस प्रकार भारतीय समाज जात-पात के टुकड़ों में बंट गया था और अपना वर्ण, धर्म भूल चुका था।
कालु नाही जोगु नाही,
नाही सत का ढबु।
थानसट जग भरिसट होए,
डूबता इब जगु॥1॥
खत्रीआं त धरमु छोडिआ,
मलेछ भाखिआ गही॥
स्रिसटि सभ इक वरन होई,
धर्म की गति रही॥3॥
(धनासरी महला 1, पन्ना 662)
अर्थात् अत्याचारों की पराकाष्ठा में न किसी को शुभ काल, न योग दिखता था। सत्य गर्क हो रहा था। जग भ्रष्ट हो गया था। क्षत्रियों ने अपना धर्म छोड़ दिया और म्लेच्छों की भाषा अपना ली। सारी सृष्टि में से सर्वांगीणता नष्ट हो गई, धर्म की गति समाप्त हो रही थी।
समय की आवश्यकता एवं युग की मांग को पूरा करने के लिए साहिब-ए-कमाल गुरु गोबिंद सिंह जी ने चारों वणार्ें को अपने खालसे में एकरूप कर दिया।
'मानस की जाति सभै एको पहिचानबो' मनुष्य-मनुष्य में कोई भेद नहीं, ऐसी मान्यता वाले गुरु गोबिंद सिंह जी को खालसा अपनी जान से भी प्यारा हो गया। तब तो गुरुजी ने अपने खालसे में ही मानो अकाल पुरुख का दर्शन किया। इन शब्दों में खालसा महिमा उचारी-
खालसा मेरो रूप है खास॥
खालसे महि हौ करौ निवास॥
खालसा मेरो मुख है अंगा॥
खालसे के हौं सद सद संगा॥
खालसा मेरो मित्तर सखाई॥
खालसा मात पिता सुखदाई॥
खालसा अकाल पुरुख की फौज॥
प्रगटिओ खालसा परमातम की मौज॥
अर्थात् खालसा पंथ की सिरजना एक महान धार्मिक एवं सामाजिक क्रांति के रूप में भारतीय समाज के सामने आई। आम धारणा यह है कि हिंदू धर्म की रक्षा के लिए खालसा पंथ की रचना हुई। परन्तु हिंदू समाज में आई सामाजिक और धार्मिक गिरावट को गुरु गोबिंद सिंह जी ने मान्यता नहीं दी अपितु ऊंच-नीच के भेदों से मुक्त और व्यर्थ के कर्मकांडों से रहित एक आदर्श समाज का आदर्श भी स्थापित किया। हिंदू समाज के अग्रगणों द्वारा असमानता के आधार पर किए गए सामाजिक अत्याचारों को गुरुजी ने सहन नहीं किया। परंतु प्राचीन जीवन मूल्यों तथा भारतीय संस्कृति पर होने वाले धार्मिक एवं राजनीतिक अत्याचारों के विरुद्ध गुरुजी ने बिगुल बजा दिया था।
गुरुजी ने प्रेम मार्ग पर चलते हुए बलिदान का रास्ता क्यों चुना, इस तथ्य को समझने के लिए खालसा सिरजना से पूर्व भारत वर्ष की स्थिति का मूल्यांकन करना आवश्यक है।
1675 में अपने पिता गुरुदेव श्री तेगबहादुर जी का बलिदान गुरुजी अपनी आंखों से देख चुके थे। उन्होंने स्वयं पिता को अपना कर्तव्य पूर्ण करने के लिए भेजा था। जम्मू-कश्मीर तथा पंजाब में होने वाले अत्याचार लगातार बढ़ने लगे। गुरु तेगबहादुर जी के महान प्रयाण के बारे में सिख इतिहास में प्रसिद्ध ये पंक्तियां गुरु सिखों के घरों में आम प्रचलित हैं-
साधन हेति इती जिनि करी॥
सीसु दीआ परु सी न उचरी॥
धर्म हेत साका जिनि कीआ॥
सीसु दीआ पर सिररु न दीआ॥
तेगबहादुर के चलत भयो जगत को सोक।
है है है सभ जग भयो जै जै जै सुरलोक॥
अर्थात् संतों के लिए अपना अंत किया, शीश दिया पर उफ तक नहीं की। धर्म हेतु सारा कांड रचा, स्वाभिमान नहीं सिर दे दिया, जगत में शोक, देवलोक में जय-जयकार हुई।
मुगल राज्य द्वारा पंजाब से बाहर होने वाले अत्याचारों की भी गुरुजी को जानकारी मिल रही थी। महाराष्ट्र में शिवाजी के सुपुत्र की जब पराजय हुई तो 1698 में औरंगजेब ने आज्ञा जारी की कि शंभा जी और उनके वजीर कवि कलस की जुबान काट दी जाए, ताकि वे कभी भी उस बादशाह के खिलाफ बेइज्जती से न बोलें, जो हजरत मुहम्मद साहब का प्रतिनिधि है। इसके बाद उनकी आंखें निकाल दी गईं। उनके 10 और साथियों को भयंकर यातना देकर मारा गया। उसके बाद शंभा जी और कवि कलस के सिरों को दक्षिण भारत के सभी नगरों में घुमाया गया, ढोल धमकड़ों की गूंज
में यह सब हुआ। (कैंब्रिज हिस्ट्री
ऑफ इंडिया)
खफी खान और डॉ. गोकुल चंद नारंग के अनुसार ऐतिहासिक हिंदू मंदिरों से मूर्तियां भंग करके हटा दी गईं। उन मूर्तियों को आगरा और दिल्ली की सीढि़यों में लोगों द्वारा अपमानित होने के लिए चिनवा दिया गया। 1699 में एक आज्ञा से राग विद्या, जो गुरु सिखों तथा अन्य भारतीयों के सामाजिक जीवन का अंग थी, पर रोक लगा दी गई।
1693 में सरहिंद सूबे के पास भेजे गए हुक्म में कहा गया, ''कोई हिंदू हथियार नहीं रख सकता। घोड़े पर नहीं चढ़ सकता। दाढ़ी केश नहीं रख सकता।'' 1699 में शिया मुसलमानों के मुहर्रम उत्सव पर पाबंदी लगा दी गई। एक सूफी संत का सिर सरेआम कत्ल कर दिया गया। 'अहकामे आलमगीरे' के अनुसार औरंगजेब ने उसमें वफादार राजपूतों को भी फौजदार और सूबेदार बनाने का पुराना हुक्म वापस ले लिया। सरकारी नौकरी में केवल उन हिंदुओं की नौकरी पक्की रहेगी जो मुसलमान बनेंगे। यह पाबंदी शिया मुसलमानों पर भी लागू थी। 20 नवंबर,1693 के हुक्म में गुरु गोबिंद सिंह जी को सरहिंद सूबे के माध्यम सेे आज्ञा भेजी गई-कि एक संत या साधु का जीवन व्यतीत करते रहें। यदि वे सेना को एकत्र करें, आनंदपुर के किले के झरोखों से सेना का निरीक्षण करें, तो आनंदपुर को नेस्तनाबूद कर दिया जाए। गुरु को गिरफ्तार किया जाए।
उपरोक्त हुक्म का जब गुरु गोबिंद सिंह जी पर कोई असर नहीं हुआ तो एक फरमान जारी हुआ कि सिखों को कत्ल किया जाए और हर प्रकार से नष्ट किया जाए। एक गुरुद्वारे को गिरा कर मस्जिद बना दी गई। जब सिखों की बारी आई तो वह पुन: गुरुद्वारा में तब्दील हो गई। सिखों ने इमाम का कत्ल कर दिया। (कलीमें ताईबत पृष्ठ-115)
कुछ देर बाद 20,000 सिख, जो अफगान देश में पनाह लेने जा रहे थे, वहां के कट्टरवादी मुसलमानों ने उन पर आक्रमण करके कत्ल कर दिया। (अहकामे आलमगीर 29)
औरंगजेब ने साहिबजादा आलम को हुक्म दिया कि अफगान जिलों से सभी सिखों को निकाल कर कैद कर लिया जाए। इतिहासकार गोपाल सिंह अपनी पुस्तक 'हिस्ट्री ऑफ सिख्स' में लिखते हैं, ''इन परिस्थितियों में गुरु गोबिंद सिंह जी का औरंगजेब के खिलाफ शस्त्र उठा कर संग्राम करना अस्वाभाविक नहीं था।''
चुनौती स्वीकार की
गुरु गोबिंद सिंह जी दिल्ली से जारी होने वाले एक से एक फरमानों को रद्द करते जा रहे थे। मेरा सिख घोड़े पर चढ़ेगा, शस्त्र रखेगा, केशधारी बनेगा, सबको केशधारी बनाएंगे। जुल्म और अत्याचार को खत्म करने के लिए सेनाओं को सुसज्जित करेंगे। 'खालसा अकाल पुरख की फौज'। फतेह हासिल करेगा। यह खालसा मेरी नहीं अकाल पुरख की फौज है। यह जीत भी मेरी नहीं, वाहे गुरुजी की है। वाहे गुरुजी का खालसा, वाहे गुरुजी की फतेह।
गुरुजी ने देश-विदेश से आने वाली संगत को हुक्म भेजे। अब पुष्पहार, वस्त्र, सुंदर रुमालें नहीं, बल्कि अच्छे सुंदर शस्त्र, तलवार, भाला, सैफ, सिरोही, सह्हथी आने शुरू हो गए। फिर भी गुरुजी को समाधान नहीं था। उन्होंने विचार किया कि संसार के सबसे बड़े शक्तिशाली राज्य के साथ टकराव है, जिसके पीछे 600 वर्ष पुरानी राज्य शक्ति सुशिक्षित सेना है। मेरे सिख तो जनसाधारण हैं। इतने बड़े साम्राज्य से टकराव है। मेरे सिख केवल वेतन-भोगी सैनिक नहीं, अपितु साहसी पराक्रमी, शूरवीर तथा सर्वस्वदानी भावना का व्यक्तित्व होंगे।
खालसा सिरजना
इसलिए गुरु गोबिंद सिंह जी ने एक महान योजना बनाई। उसको पूर्ण करने और कार्यान्वित करने का संकल्प लिया। इसके लिए 30 मार्च, 1699 की बैसाखी के दिन को चुना। अंग्रेजी कैलेंडर में सुधार के बाद आजकल 13 अप्रैल को बैसाखी होती है।
इस ऐतिहासिक अवसर पर 80,000 संगत एकत्रित थी। यह संगत विधिवत संदेश भेज कर बुलाई अथवा सहज रूप में परंपरा के अनुसार इकट्ठी हुई। इस पर इतिहासकारों का मतभेद हो सकता है। परंतु सत्य यह है कि उस दिन की शोभा देखते ही बनती थी। विशेषकर मंच की सज्जा, तंबुओं और शामियाने की शोभा आकर्षण का केंद्र थी। संगत गुरुजी के दर्शन के लिए बेताब थी। परंतु गुरुजी किसी अलौकिक कौतुक में व्यस्त थे। अचानक नगाड़ा बजा। गुरुजी चमकती शमशीर (तलवार) लेकर पूरे जाहो जलाल के साथ प्रगट हुए। गरजकर बोले, ''साध संगत! धर्म पर संकट है। अत्याचार का मुकाबला करना है। आपने मुझे हाथी, घोडे़, शस्त्र दिए, परंतु आज मुझे अपने सिख का शीश चाहिए। गुरुजी अपने सिख की अग्नि परीक्षा लेना चाहते थे। आपने अपने गुरु को यदि कुछ देना सीखा है, और देने का निश्चय किया है तो मुझे आपका शीश चाहिए। शीश से कम नहीं।''
सारी सभा में सन्नाटा छा गया। कुछ खलबली मची। कुछ ने उठने का मन बनाया। कुछ माता गुजरी जी के पास शिकायत लेकर पहुंचे। गुरुजी को समझाओ। आज गुरुजी सहज नहीं हैं। माता ने दखल देने से इनकार किया। उधर सभा में गुरुजी पुन: गरजे, मुझे शीश चाहिए। मेरा सिख गुरु भेंटा मंे शीश देवे।
ऐसे शून्य वातावरण में लाहौर का खत्री युवक दयाराम खड़ा हो गया। हे गुरुजी, दास का शीश हाजिर है-बोलो कैसे दूं। गुरुजी उसका हाथ पकड़कर पीछे तंबू में ले गए। संगत को खट-खट की आवाज सुनाई दी। थोड़ी देर बाद गुरुजी खून से लथ-पथ तलवार को लेकर पुन: संगत को संबोधित करने लगे। और शीश चाहिए। कुछ देर बाद सन्नाटा रहा परन्तु हस्तिनापुर का जाट युवक धर्मदास शीश झुकाकर बोला यह शीश आपका है, हाजिर है। उसे भी गुरुजी तंबू में ले गए। पुन: गुरुजी की वही पुकार परन्तु किसी को आगे आता न देखकर गुरुजी रोषपूर्ण शब्दों में गरजे-
है कोई सिख बेटा जो करे शीश भेटा।
बेअंत शीश चाहिए सो जलद जलद आइए।
इस आह्वान पर द्वारका (गुजरात) का छीपा समाज का युवक मोहकम सिंह खड़ा हो गया। उसने कहा, गुरु महाराज दास का सिर हाजिर है। उस पर उसी प्रकार के वार तंबू के अंदर होते संगत ने सुने। परन्तु जब पुन: गुरुजी लौटे तो बिदर (कर्नाटक) का नाई युवक साहिब चंद और बाद में जगन्नाथपुरी का झीवर हिम्मत सिंह खड़ा हो गया। सभी पांच सिखों को अंदर ले जाकर गुरुजी कुछ देर बाहर न आए। संगत बेसब्री से होने वाले कौतक का इंतजार कर रही थी। संगत के आश्चर्य का कोई ठिकाना न रहा, जब उसने गुरुजी के साथ पांच सिखों को पूर्ण सिंह वेश शस्त्रधारी और सजे दस्तारों (पगडि़यों) के साथ जीवित देखा।
बाद में अन्य सिखों ने आगे आने की इच्छा प्रगट की। परंतु गुरुजी ने घोषणा की कि मेरे यही पंज प्यारे हैं। यह रहनी रहत मर्यादा के पक्के हैं।
''रहनी रहे सोई सिख मेरा,
ओ साहिब मैं उसका चेरा॥''
अर्थात् जो मर्यादा में है वह मेरा सिख है, वह गुरु है, मैं उसका चेला हूं। परन्तु गुरुजी का कौतक यहीं समाप्त नहीं हुआ। उन्होंने घोषणा कि अब यह मेरा सिख चरणामृत के स्थान पर खण्डे की धार पहुल (बाटा) के अमृत पिएंगे। एक बड़ा बाटा (बरतन) मंगवाया गया। पांच बाणियों का पाठ किया गया। बाटे के जल में खण्डे को घुमाया गया। इतने में माता साहिब देवा मीठे बताशे लेकर उपस्थित हो गईं। बोलीं, हे गुरुदेव, मैं इस अमृत में मिठास मिलाना चाहती हूं। गुरुजी ने साहिब देवा की विनती स्वीकार की और मन में सोचा मेरा खालसा जहां खण्डे की तलवार जैसा योद्धा हो, वहां वह वाणी में मिठास और नम्रता का पुंज हो।
सिखों के अंतिम गुरु ( गुरु गोबिंद सिंह जी) ने पराजित लोगों की सुप्त शक्तियों को जगाया और उन्हें उन्नत करके उनमें सामाजिक स्वात्रंय और राष्ट्रीय प्रभुता का भाव भर दिया। जो नानक द्वारा बताए गए पवित्र भक्ति भाव से जुड़ा हुआ था। उन्होंने ऊंच-नीच, जात-पात का भेद नष्ट किया और सबके लिए समानता की घोषणा की और समाज के उपेक्षित वर्ग को अपना सहयोगी बनाकर गुरु जी ने उसमें असीम शक्ति और आत्मविश्वास का संचार कर दिया। — कनिंघम, पश्चिमी इतिहासकार एवं विद्वान
दशम गुरु गोबिंद सिंह जैसा बहुमुखी प्रतिभा से मंडित व्यक्तित्व भारतीय इतिहास में तो क्या संपूर्ण विश्व के इतिहास में भी दृष्टिगोचर नहीं होता है।
—डॉ. इंदर सिंह, लेखक
जात-पात के भेद को समाप्त करने पर और जीवन में कायरता को समाप्त करने पर गुरुजी तुले हुए थे। उसी बाटे को सबके मुख पर लगा कर अमृतपान करवाया। हे खालसा जी आप पवित्र हो गए हो, आप गुरु पद को प्राप्त हो गए हैं। परन्तु मैं तो नाटक ही करता रहा। अब मेरे को भी अपने समान शुद्ध करें। पवित्र करें। इतना वचन कहकर गुरुजी वीर आसन पर बैठ गए। दया सिंह ने पंज पियारों सहित गुरुजी को भी अमृत छकाया। गुरुजी ने सिख को गुरु बना दिया। आप निमाना सिख बन गए। गुरुजी के इस कौतक को देखकर भाई गुरुदास ने इस वाणी का उच्चारण किया-
वह प्रगटिओ मरद अगंमड़ा वरियाम अकेला।
वाहु वाहु गोबिन्द सिंह आपे गुरु चेला॥
हरि सच्चे तख्त रचाइआ सति संगति मेला।
नानक निरभउ निरंकार विधि सिंघा खेला।
गुरु सिमर मनाई कालका खण्डे की बेला।
पीवहु पाहुल खण्डे धर होए जन्म सुहेला।
गुर संगत कीनी खालसा मनमुखी दुहेला।
वाह वाह गोबिंद सिंह आपे गुर चेला॥
(वार 41, पउड़ी 2)
इस घटनाक्रम के पूर्ण होने के पश्चात् गुरु नानक परंपरा में एक नया आयाम भक्ति के साथ शक्ति जुड़ गई। एक संतों का समूह शूरवीर सिपाहियों का टोला बन गया। कुछ विदेशी विद्वानों ने आक्षेप लगाया कि गुरु गोबिंद सिंह जी ने गुरुनानक का मार्ग छोड़ दिया। आस्थावान सिखों को लड़ाके सिपाही बना दिए। वे केवल सिपाही बनकर रह गए।
प्रसिद्ध विद्वान डॉ. गोकुल चंद नारंग ने इस कुप्रचार का उत्तर देते हुए कहा है कि श्री गुरु गोबिंद सिंह जी ने जिस फौलाद से अपनी तलवार तीखी की, उसका निर्माण गुरुनानक ने ही किया था। खालसा पंथ केवल एक पंथ और संप्रदाय मात्र नहीं, अपितु यह एक महान राष्ट्रीय आंदोलन है जिसकी प्रासांगिकता आज की परिस्थितियों में और भी अधिक हो गई है।
आज हमारा समाज आतंकवाद से त्रस्त है। गुरु भक्ति तथा देशभक्ति के साथ यदि समाज को शक्ति संपन्न किया जाए तो आतंकी देखने को नहीं मिलेंगे। श्री गुरु गोबिंद सिंह जी का यही संदेश है कि भक्ति के साथ शस्त्रों से युक्त शक्ति ही स्वाभिमानी राष्ट्र का निर्माण कर सकती है।
(लेखक सामाजिक एकता के कार्यकर्ता हैं)
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