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इतिहास के पन्नों से
पाञ्चजन्य
वर्ष: 13 अंक: 28
25 जनवरी ,1960
मैं अच्छी प्रकार से जानता हूं कि हम लोग कठिन मार्ग का अनुसरण करने जा रहे हैं। मार्ग में अनेक बाधाओं एवं प्रबल विरोधियों का सामना भी करना पड़ेगा। ऐसी स्थिति में उन सिद्धांतों के प्रति, जो हमने अपने सम्मुख रखे हैं तथा उस महान कार्य के प्रति, जो हमारा दल करना चाहता है, हमारी अटूट श्रद्धा ही हम लोगों को कार्य में सफलता प्रदान कर सकेगी। मुझे विश्वास है कि यदि हम सब संगठित होकर दुर्दम्य साहस एवं आत्मविश्वासपूर्वक, अपना मार्ग न छोड़ते हुए, अपने पवित्र मातृभूमि के सम्मान और गौरव की रक्षा तथा जनता की सेवा का महान उद्देश्य लेकर आगे बढ़ें तो सफलता हमारे चरण चूमेगी।
भारतीय जनसंघ के प्रारम्भ काल में ही मैं यह स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि जनसंघ केवल चुनाव लड़ने के लिए ही पैदा नहीं हुआ है। चुनाव तो हमारे लिए एक साधन मात्र हैं जिनके द्वारा हम अपने सिद्धांतों को भारत के कोने-कोने तक प्रस्तुत कर सकें। चुनावों के परिणाम चाहे जो भी हों, हमारा दल निरंतर स्वतंत्र कार्य करते हुए एवं समृद्ध भारत के निर्माण के लिए अपनी आशा और सद्भावना का संदेश जन-जन तक ले जाएगा और उनकी कर्मशक्ति को संगठित करेगा।
हमारा यह दृढ़ विश्वास है कि इस नवीन दल का आविर्भाव राजनीति में शांति, शक्ति और आशा का नवीन युग प्रारम्भ करेगा। हम सुदृढ़ सिद्धांतों की नींव पर खड़े हैं। पर हमारी सफलता तो इस बात पर निर्भर करेगी कि हमारा संगठन कितना मजबूत है और हम जनता के अंत:करण में अपने प्रति कितना विश्वास उत्पन्न कर पाते हैं। उसके लिए समय, संयम और परिश्रम की आवश्यकता है।
हम अपने इस महान कार्य में पूरी श्रद्धा, विश्वास और आशा के साथ पग बढ़ा रहे हैं। हमारे कार्यकर्ता यह सर्वदा स्मरण रखें कि सेवा एवं त्याग के द्वारा ही वे जनता का विश्वास सम्पादन कर सकेंगे। स्वतंत्र भारत के पुनर्निर्माण का महान दायित्व हमने स्वीकार किया है। जाति, सम्प्रदाय अथवा वर्ग का भेदभाव न रखते हुए मां हमें गुहार रही है। आज चाहे जितने घने बादल भारत के भाग्याकाश पर छाये हों पर उज्जवल भविष्य हमारी राह देख रहा है। हमारा दल आशा का प्रदीप लेकर आगे बढ़ रहा है, भारत में व्याप्त गहन अंधकार को नष्टकर, ऐक्य, श्रद्धा एवं साहस का संचार करने के लिए। अभी हमने अपनी यात्रा प्रारम्भ की है। परमेश्वर हमें वह शक्ति और साहस प्रदान करे जिससे हम सदैव सत्य मार्ग का अनुसरण करते रहें। न परिस्थितियों में भयभीत हों न अनुग्रहों से विचलित। विश्वशांति एवं समृद्धि के संरक्षण हेतु भारत को भौतिक एवं आध्यात्मिक दृष्टि से शक्ति संपन्न बनाने के लिए हमारी समस्त शक्ति केन्द्रित हो। जय भारत!
-डॉ. श्यामाप्रसाद मुकर्जी
21 अक्तूबर, सन् 51 को जनसंघ की स्थापना
के अवसर पर दिए गए भाषण से
जनसंघ ही भविष्य का आशा केन्द्र
— पीताम्बर दास जी
भारतीय जनसंघ के अष्टम वार्षिक अधिवेशन के अध्यक्ष
आगामी वर्ष के लिए मुझे प्रधान निर्वाचित करके जो स्नेह और विश्वास आपने मेरे प्रति प्रकट किया है उसके लिए मैं आपका आभारी हूं। आपकी सद्भावनाओं, शुभकामनाओं और सहयोग के बल पर ही इस नई जिम्मेदारी को उठाने में मैं समर्थ हो सकूंगा।
चीनी आक्रमण – देश इस समय अत्यंत विषम परिस्थिति में से गुजर रहा है। हमारे पड़ोसी चीन ने उत्तरी सीमा पर जगह-जगह हमला करके सहस्रों वर्गमील धरती पर बलात् अधिकार जमा लिया है। सरकार इसे केवल 'सीमा-विवाद' कहकर समझौते से ही हल करने पर तुली हुई है। सरकार के इस नरम रुख का चीन पर यह प्रभाव पड़ा है कि उसके हौंसले बढ़ रहे हैं और अब उसने समूची उत्तरी सीमा को ही विवादास्पद कहकर लद्दाख और नेफा के बहुत बड़े भूभाग को अपना बताना शुरू कर दिया है। उस पर चीन की गृद्ध दृष्टि लगी हुई है। एक शरणार्थी लामा ने बताया है कि ''चीनी यह प्रचार कर रहे हैं कि तिब्बत चीन के हाथ की हथेली है और लद्दाख, नेपाल, सिक्किम, भूटान और असम उसकी पांच उंगलियां हैं।'' इससे चीन के वास्तविक इरादों का अंदाज लगाया जा सकता है। चीन की इस आक्रामक प्रवृत्ति की ओर देश का ध्यान जनसंघ के संस्थापक डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी, आचार्य देवप्रसाद घोष एवं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक श्रीगुरुजी ने अपने भाषण में 6 वर्ष पूर्व ही आकर्षित किया था। कांग्रेस के बड़े-बड़े नेता उस समय ''हिन्दी चीनी-भाई-भाई'' के नारे लगाने में मस्त और पंचशील के सिद्धांत को मान्यता दिलाने में व्यस्त थे। अपनी ताकत के बजाय उन्होंने चीन की दोस्ती पर अधिक भरोसा किया जिसका नतीजा आज हमारे सामने है।
शरणागत की रक्षा- हमारे कम्युनिस्ट भाई तो अभी भी उसी दोस्ती का दम भरते हैं। उनकी ओर से बराबर यही धारणा बनाने का प्रयत्न हो रहा है कि चीन द्वारा ये छोटी-मोटी घटनाएं सीमाओं की अनिश्चितता और भारत में श्री दलाईलामा को आश्रय देने के कारण हैं। भारत की सीमाएं असंदिग्ध रूप से इतिहास, विभिन्न संधियों, व्यवहार और परम्परा के अनुसार सुनिश्चित और सुस्पष्ट हैं।.. उन्होंने यह भी कहा कि जनसंघ ही भविष्य का आशा केन्द्र है।
मैं हिन्दू भी तो हूं
''आरे भाई, यह तो सच है कि मैं जनसंघ का नेता हूं। किंतु मैं हिन्दू भी तो हूं न? मुझे हिन्दुत्व पर गर्व है। हिन्दू होने और हिन्दुत्व पर गर्व अनुभव करने की इस प्रवृत्ति के कारण क्या मैं संघ में सहभागी नहीं हो सकता? मैं संघ का स्वयंसेवक हूं और जनसंघ का महामंत्री भी। जीवन में ऐसी भूमिकाएं प्रत्येक को निभानी पड़ती हैं। अब देखिए, मैं जनसंघ का महामंत्री हूं, किन्तु परिवार में अपने पिता का पुत्र भी हूं। अब आप ही बताइए कि अपने पिता का पुत्र होने और जनसंघ का महामंत्री होने में अन्तर्विरोध कहां है? कोई विरोध नहीं है। उसी प्रकार मैं संघ का स्वयंसेवक और जनसंघ का महामंत्री हूं। इसमें भी कोई अन्तर्विरोध नहीं है।''
—पं. दीनदयाल उपाध्याय (विचार-दर्शन, खण्ड-7, पृ. 19)
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