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गुरु गोबिंद सिंह जी का जीवन संघर्ष, बलिदान और मानवता की सेवा की अनूठी गाथा है। इस कहानी में धर्म, संस्कृति और राष्ट्र की रक्षा के लिए परिवार को न्योछावर करने के दुर्लभतम उदाहरण हैं, आक्रांताओं के भय से गुमसुम समाज को जगाने वाली प्रबल हुंकार है और सभी के समत्व और ममत्व भरी आत्मीय दृष्टि भी है।
गुरु गोबिंद सिंह जी ने भारतीय समाज को एक नई दिशा और ऊर्जा देने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इससे चेतना की एक नई धारा का प्रवाह हुआ, जिसने लोगों के जीवन में सांस्कृतिक चेतना और परस्पर जुड़ाव के रंग पुन: भर दिए। उन्होंने अपने शष्यिों में यह वश्विास भरा कि तुम्हारा जन्म ईश्वरीय प्रयोजन की सद्धिि के लिए हुआ है। प्रयोजन है-आत्मरक्षा और स्वातंत्र्य। गुरु जी में भगवान शिव जैसी उदारता, श्रीकृष्ण जैसा चातुर्य, श्रीराम जैसी मर्यादा और गुरु नानक जैसी सरलता थी।
गुरुजी का मन सबके लिए खुला था। युद्धभूमि में उन्होंने कन्हैया को आदेश दिया कि चाहे हिंदू हों या मुसलमान, मत्रि हों या शत्रु सबको जल पिलाओ। गुरु जी की उदारता उस समय चरम पर दिखती है जब भाई दया सिंह ने चमकौर युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए गुरु पुत्रों अजीत सिंह और जुझार सिंह के शवों को चादर से ढकने की आज्ञा मांगी। तब उन्होंने कहा इनको तभी ढकना जब अन्य सभी हुतात्मा वीरों को ढका जा सके। वे दव्यिता के ऐसे रंगमंच पर विराजमान हैं जहां से वीरों को शौर्य की प्रेरणा देते हैं और भक्तों को समाज सुधारक गुरु मंत्र।
दव्यि जीवन की अनुपम झांकी अपने पाठकों के सामने रखता पाञ्चजन्य का विशेष आयोजन
मेरा सिख जब भक्ति के साथ शक्ति की आराधना करेगा, तब वह संत होगा। जब वह शत्रु का नाश करने हेतु वीर रूप धारण करेगा तो सिपाही होगा। वह एक ही समय में संत और सिपाही होगा
।गुरु गोबिंद सिंह
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