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विश्व के सबसे शक्तिशाली कहे जाने वाले देश में सत्ता परिवर्तन के बाद तय था कि तस्वीर बदलेगी किंतु यह बदलाव इतनी तेजी से शुरू होगा किसी ने सोचा नहीं था। सेटेलाइट से प्राप्त चित्रों के आधार पर एशिया मैरीटाइम इनीशिएटिव दावा है कि चीन ने विवादास्पद दक्षिण चीन सागर में अपने बनाए सातों कृत्रिम द्वीपों पर विमान और मिसाइल भेदी घातक हथियार प्रणाली तैनात कर दी है।
यह एक अमेरिकी झुकाव वाले विचार समूह का आकलन है। किन्तु यह सीधे तौर पर उन चीनी दावों का खंडन भी है जिनके अनुसार वह मुख्य व्यापार मार्ग में पड़ने वाले इन द्वीपों पर फौजी साज-सामान रखने का इच्छुक नहीं है। फिर चीन की इच्छा क्या है? दरअसल, यह अमेरिका के साथ चार दशक से चली आ रही सहमति की लीक पर दौड़ते रहने की मंशा है। ऐसी अमेरिकी सहमति जो चीन की विस्तारवादी ललक की राह में रोड़ा नहीं बनती। किंतु अमेरिका के नव निर्वाचित राष्ट्रपति ने इस बात का साफ संकेत दे दिया है कि चीन के लिए अब स्थितियां पहले जैसी नहीं रहने वाली हैं। बीजिंग की ओर, भले रस्मी तौर पर ही सही, हाथ बढ़ाने से पहले ताइवानी राष्ट्राध्यक्ष से फोन पर बातकर डोनाल्ड ट्रंप ने चीन को जोरदार झटका दिया। जानकारों के अनुसार यह ऐसी बात थी जो 1979 के बाद पहली बार हुई है।
डै्रगन इस बात से बुरी तरह चिंतित है। लेकिन समझने वाली बात यह है कि भय को भी आक्रोश की तरह प्रकट करना चीनी राजनय की स्थापित शैली है। सेटेलाइट चित्र अब सामने आए हैं किंतु अमेरिका की बदली मुद्रा को लेकर चीन का आक्रोश इन चित्रों से भी पहले सतह पर आने और दुनिया को दिखने लगा है।
सामरिक, व्यापारिक, कूटनीतिक… राह जो हो चीन अमेरिका के आगे अड़ेगा। चाहे सीरिया में जारी संघर्ष पर अमेरिकी समर्थन वाले प्रस्ताव को वीटो से गिराने का मामला हो, चाहे अमेरिकी कार निर्माता कंपनियों को अनुचित व्यापार से जुड़ी जांच में घसीटने की सुगबुगाह हो या दक्षिण चीन सागर में तेज सैन्य हलचल डोनाल्ड ट्रम्प के इस एक फोन के बाद तेजी से बढ़े घटनाक्रम यह बताते हैं कि अमेरिका की बदली हुई चाल की काट में चीन ने भी फुर्ती से अपने पत्ते फेंटने शुरू कर दिए हैं।
वैसे, ऐसा भी नहीं है कि सब ट्रम्प के आने के बाद से ही बदला है। चीन का अकड़भरा विस्तारवादी और मानव अधिकार शोषक रवैया काफी समय से दुनिया को चिंतित कर रहा है। जहां तिब्बत, ताइवान और हांगकांग की राजनैतिक जनआकांक्षाओं से जुड़ी सुर्खियां आज भी दुनिया को तस्वीर का दूसरा पहलू दिखाती हैं वही दक्षिण चीन सागर में फिलीपीन, ताइवान, वियतनाम, मलेशिया और बु्रनेई के दावे चीनी आकांक्षाओं की राह का रोड़ा है।
चीन अपने कब्जे से बाहर के इस पूरे क्षेत्र में पकड़ बनाने के लिए इस सीमा तक अडि़यल रवैया अपनाए है कि उसने दक्षिण चीन सागर पर उसके दावों को निराधार बताने वाला अंतरराष्ट्रीय न्यायाधिकरण का फैसला मानने से भी इनकार कर दिया। इसके जवाब में अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति बराक ओबामा ने सितंबर में लाओस में एशियाई नेताओं के सम्मेलन को संबोधित करते हुए साफ कर दिया था कि जुलाई में आया अंतरराष्ट्रीय पंचाट का फैसला ऐतिहासिक तो है ही चीन के लिए 'बाध्यकारी' इस फैसले ने क्षेत्र में समुद्री अधिकारों को 'स्पष्ट' करने में भी मदद की है। इस पूरे घटनाक्रम का आकलन यदि चीन द्वारा स्वपरिभाषित आर्थिक भौगोलिक हितों के लिए हिंसा की हद तक बढ़ने की तैयारी मे रूप में हो सकता है तो वहीं इसे अमेरिकी रुख में लगातार आती सख्ती के तौर पर भी चिन्हित किया जाना चाहिए। यह समझना चाहिए कि रिपब्लिकन हो या डेमोक्रेट, चीन अब अमेरिका के लिए लगातार चिंता का विषय है और यह चिंता बढ़ती जा रही है।
वैसे क्षेत्रीय धमक में कमी की आहट क्या ड्रैगन की तेज चाल को थामेगी? अमेरिका दूर है, भारत बहुत पास। चीन किस-किस को नाराज करते हुए और कितनी दूर तक चल सकता है? चीनी विचार समूहों में अंदर खाने यह बात पकने लगी है। चीन चाहता है कि विवादग्रस्त सीमाओं और उलझे हुए लंबित मुद्दों के बावजूद भारत उसकी चिंताओं को समझे। चीन के हांगझाऊ शहर में पिछले जी-20 सम्मेलन से पहले चीन के सरकारी 'ग्लोबल टाइम्स' अखबार में प्रकाशित एक लेख में कहा गया था कि भारत को दक्षिण चीन सागर की बहस से 'अनुचित तौर पर उलझने' से बचना चाहिए ताकि इसे द्विपक्षीय संबंधों को प्रभावित करने वाला 'एक और कारक' बनने से बचाया जा सके। राय अपनी जगह, लेकिन क्या भारत के लिए इस 'चीनी इच्छा' की ओर झुकाव संभव है? सिर्फ चीनी हितों को देखने वाले चश्मे के लगे रहते तो यह बिल्कुल भी संभव नहीं दिखता।
बहरहाल, सिर्फ सात कृत्रिम द्वीपों पर हथियारों की तैनाती के फोटो नहीं खिंचे, विश्व व्यवस्था में नए समीकरणों के पाले भी खिंचने शुरू हो गए हैं। विस्तारवादी कूटनीतिज्ञों के माथे पर चिंता की रेखाएं खिंचने लगी हैं।
यूं भी पंूजीवादी-विस्तारवादी अतिरेक विश्व व्यवस्था और 'मानवता के स्वास्थ्य' के लिए अच्छा नहीं। इसलिए कूटनीति के नए पथ्य-परहेज और नियम साफ-साफ कर रहे हैं-चीनी कम। बात सबके लिए ठीक है।
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