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इतिहास के पन्नों से
जनसंघ पर प्रतिबंध लगाने का समाचार निरा प्रचार स्टंट
पाञ्चजन्य
वर्ष: 13 अंक: 13, 12 अक्तूबर ,1959
भारतीय जनसंघ के महामंत्री श्री दीनदयाल उपाध्याय ने एक वक्तव्य द्वारा कतिपय पत्रों में प्रकाशित एक समाचार को जिसमें जनसंघ पर प्रतिबंध लगने की चर्चा की गयी है, अतिरंजित व प्रचार-स्टंट बताया है। पूरा वक्तव्य इस प्रकार है:-''समाचार है कि श्री लालबहादुर शास्त्री ने फर्रूखाबाद में बताया है कि भारत सरकार साम्प्रदायिक संगठनों, जिनमें उन्होंने जनसंघ का भी उल्लेख किया है, पर रोक लगाने के प्रश्न पर विचार कर रही है। केरल में कांग्रेस-मुस्लिम लीग गठबंधन के संबंध में प्रश्नों का उत्तर देते हुए आपने यह रस्योद्घाटन किया। चूंकि विभिन्न पत्रों में अलग-अलग समाचार छपे हैं, अत: श्री शास्त्री ने सचमुच क्या कहा, इसका अन्दाजा'' लगाना कठिन है। किन्तु मैं ऐसी कोई संभावना की कल्पना नहीं करता जिसमें जनसंघ पर रोक लगी जा सके, जब तक कि भारत सरकार कोई दु:स्साहस ही न कर बैठे। सत्य तो यह है कि श्री शास्त्री ने हिम्मत के साथ केवल चुनाव हित में किए गए मुस्लिम लीग के साथ के समझौते को स्वीकार करने के स्थान पर उसे अर्थहीन और निराधार तर्कों से उचित ठहराने का असफल प्रयत्न किया है। इसमें वे उन राष्ट्रवादी संस्थाओं को भी घसीट लाए हैं जिनसे उन्हें इस नीति की कठोर आलोचना का भय था।
कांग्रेस केरल में मुस्लिम लीग अथवा (श्री शास्त्री के अनुसार) 22 लाख मुसलमानों के साथ समझौता करते समय यह भूल गई कि केरल में मुसलमानों से अधिक हिंदुओं को कम्युनिस्टों के प्रभाव से मुक्त करने की आवश्यकता है। कांग्रेस की मुसलमान और ईसाई सम्प्रदायवादियों के साथ गठजोड़ की नीति ने ही यहां के हिन्दुओं को साम्यवादी शिविर में धकेल दिया था। आज जबकि कम्युनिस्ट पूरी तरह बदनाम हो चुके हैं, कांग्रेस ने सभी राष्ट्रीय शक्तियों का कम्युनिस्ट विरोधी मोर्चा बनाने के स्थान पर साम्प्रदायिक आधार पर सीटों के बंटवारे की अपनी पुरानी नीति को ही अपनाया है। यह नीति केरल में तथा अन्यत्र भी कम्युनिस्ट विरोधी तत्वों को हानि पहुंचाएगी। जब चीनी विस्तारवादियों के बाह्य आक्रमण का तथा भारत में कम्युनिस्टों की आतंरिक विध्वंसात्मक कार्यवाहियों का संकट उपस्थित हो, उस समय जनसंघ जैसे संघटन, जिसने कम्युनिस्टों की योजनाओं का भण्डाफोड़ किया, उनका डटकर विरोध किया तथा राष्ट्रीय एकता के लिए जनता को जाग्रत किया, पर रोक लगाने की बात करना दुश्मन के हाथ में खेलना है। किसी कम्युनिस्ट सहयात्री से (जिनकी कांग्रेस से कमी नहीं) इस प्रकार के वक्तव्य की आशा की जा सकती थी। किन्तु श्री शास्त्री से जो विचारों में प्रौढ़ता तथा गंभीरता के लिए प्रख्यात है, इनकी आशा नहीं थी। मुझे यह भी विश्वास है कि उनमें इतनी समझदारी है कि वे केन्द्रीय सरकार के सभी विषयों के प्रवक्ता बनने का दायित्व अपने ऊपर नहीं ले सकते। ऐसा लगता है कि यथार्थता के स्थान पर सनसनीदार समाचार भेजने की इच्छा ने सम्पूर्ण वक्तव्य को अतिरंजित कर दिया है। यह चुनाव का एक हथकण्डा भी हो सकता है क्योंकि उत्तर प्रदेश के नगरपालिका चुनावों में जनसंघ ही कांग्रेस की करारी टक्कर देने वाला है।
अत: जनता की जनसंघ पर प्रतिबंध की आशंका रखने का कोई कारण नहीं है। देश में प्रजातंत्रीय राष्ट्रवादी विचारधारा इतनी प्रबल है कि वह सरकार को कोई ऐसा गलत पग नहीं उठाने देगी।''
मदन कवि कृत 'पारिजात मंजरी'
आक्रांताओं से खंडित शिला-
खण्डों में सुअंकित साहित्य
-:श्री हीरालाल शर्मा :-
भारत में मुस्लिम शासन की असहिष्णु तथा बर्बर वृत्ति के कारण भारत की अनेक दृष्टियों से ऐसी भारी हानि हुई है कि जिसकी क्षति-पूर्ति होना असम्भव है। ऐसी ही हानि संस्कृत साहित्य की अमूल्य निधि 'पारिजात मंजरी' नामक नाटिका की हुई है। यह श्रेष्ठ नाटिका आज पूर्ण रूप में उपलब्ध नहीं है। इस नाटिका के चार अंक थे जो दो शिलाखण्डों पर खुदे हुए थे। मुस्लिम शासकों ने एक शिला नष्ट कर दी और परिणामस्वरूप इस नाटिका के दो अंक सदा के लिए नष्ट हो गए।
पारिजात मंजरी के प्रणेता—इस नाटिका की कक्षा संक्षेप में इस प्रकार है-धारा नगरी के परमार वंशी महाराजा भोज के वंशज अर्जुन वर्मा नाम के एक प्रतापी सम्राट थे। इनके गुरु थे सुविख्यात मदन कवि जो गौड़ देश के निवासी थे। महाकवि की प्रतिभा अलौकिक थी। संस्कृत पर उनका असाधारण अधिकार था। इन्हीं मदन कवि ने पारिजात मंजरी 'या' विजय श्री नामक की सुंदर नाटिका लिखी थी। महाराज अर्जुन वर्मा अपने गुरु मदन कवि की प्रतिभा पर रीझे हुए थे। उन्होंने मदन कवि को उचित सम्मान व गौरव प्रदान कर उन्हें अपना राजकवि नियुक्त किया था। अर्जुन वर्मा का राज्यकाल ईं. सन् 1210 से 1216 अनुमानित किया जाता है। इन्हीं अर्जुन वर्मा के सम्मुख धार की भोजशाला में, जिसे तब शारदा-सदन अथवा भारती भवन कहते थे, यह नाटिका खेली भी गई थी।
मंजरी की कथानक-नाटिका का कथानक हरिविजय नामक ग्रंथ के एक प्रसंग से लिया गया है। अपने आश्रयदाता एवं प्रतापी शिष्य अर्जुन वर्मा की वीरता-धीरता तथा विजयों का गौरवगान व एक प्रेम कथानक का वर्णन प्रमुख रूप से इस नाटिका में किया गया है। कवि द्वारा किसी सत्य कथा को सम्मुख रखकर शाकुंतल नाटक के आदर्श पर इन नाटिका की रचना की गई है। नाटिका की कथा-वस्तु बड़ी ही रोचक है और भाषा के तो क्या कहने! मदन कवि की प्रतिमा के कारण सूक्ष्म से सूक्ष्म व कोमल से कोमल भाव भी श्रेष्ठतम शब्दों में साकार हो गए हैं। रचना-चातुर्य एवं शब्द-माधुर्य की दृष्टि से मदन कवि शाकुंतल के रचयिता महाकवि कालिदास के समान ही दिखाई देते है। वियोग-वर्णन में तो मदन कवि अद्वितीय ही हैं।
प्रकृति, विकृति और संस्कृति
''रचनात्मक विचार करने वाले दलों एवं नेताओं की संख्या प्रतिदिन कम होती जा रही है और यह बात लोकतंत्र के भविष्य की दृष्टि से चिंताजनक है।'' ''हर मनुष्य को किसी न किसी समय जमुहाई आती ही है। वह स्वाभाविक ढंग से आ जाए, तो वह है प्रकृति; किन्तु जानबूझकर मुंह टेढ़ा-मेढ़ा कर मुंह से ऊंची आवाज निकालना है विकृति। कतई कोई आवाज एवं प्रदर्शन के बिना जमुहाई करते समय मुंह के आगे रूमाल धरना, यह हुई संस्कृति।'' केवल सत्ता के पीछे दौड़ने वाला राजनीतिक व्यक्ति यथार्थ में लोक-शिक्षण का काम नहीं कर सकेगा। जिसे सत्तारूढ़ होने की कतई इच्छा नहीं, वही हार्दिकता से लोकशिक्षा का काम कर सकेगा। —पं. दीनदयाल उपाध्याय (विचार-दर्शन, खण्ड-1, पृ. 26)
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