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अपने आप में उन्हें चलता-फिरता अभिलेखागार कहें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। सरलता, सहजता, युवाओं को बढ़ते देख उनकी हौसला अफजाई और 90 वर्ष की अवस्था पार करने के बाद भी एक युवा स्वयंसेवक की भांति उत्साह और लगन से भरपूर, ऐसे थे हमारे सुरुजी
-डॉ. श्रीरंग गोडबोले-
वह दिन था 11 अप्रैल, 2015। संघ के तृतीय सरसंघचालक स्व. बालासाहब देवरस की जन्मशती के उपलक्ष्य में प्रस्तावित विशेषांक का काम जारी था। मैं इस सिलसिले में संघ के अभिलेखागार विभाग में उपलब्ध सामग्री एवं कागजों की छानबीन कर रहा था। इसी जानकारी से संबद्ध संघ के एक प्रत्यक्षदर्शी एवं चलते-फिरते अभिलेखागार से मुझे मिलने का अवसर प्राप्त हुआ। उस इतिहास पुरुष का नाम था-के. सूर्यनारायण राव। वे संगठन में बड़े आदर के साथ 'सुरुजी' नाम से जाने जाते थे और उस समय उनकी उम्र थी 91 वर्ष।
श्रद्धेय बालासाहब से संबद्ध संस्मरण एवं जानकारी जुटाने के लिए मेरे चेन्नै में उनसे मिलने आने के बारे में उन्हें पहले ही सूचित कर दिया गया था। निहित कार्यक्रम के अनुसार उनके कक्ष में प्रवेश करते ही मैंने पाया कि सुरुजी पूरी तरह तैयार बैठे थे। उनके आस- पास थीं कुछ किताबें एवं दस्तावेज। वे भले ही दायित्वमुक्त बने हों, पर वे अभी भी कार्यमग्न हैं, इस तथ्य को यह चीजें उजागर कर रही थीं।
संघ के काम में जीवन के 73 वर्ष तक अविरल लगा रहने वाला सुरुजी का शरीर अब कुछ थका सा लगता था, पर उनकी बिुद्ध एवं वाणी पर उसका कतई असर नहीं हुआ था। बातचीत शुरू होने पर वे बोलते गये एवं मैं लिखता गया साथ में उस बातचीत को ध्वनिमुद्रित भी करता रहा। उद्देश्य यही था कि उस समर्पित व्यक्ति की आवाज को सदा के लिए संजोए रखने के अलावा मेरे लिखने में कहीं कोई त्रुटि न रहे। इस तरह हम लगभग तीन घंटे इकट्ठे रहे, इस दौरान सुरुजी ने अपनी संघ यात्रा का विस्तार से एवं संस्मरणों से भरे अंदाज में विवरण दिया। वे मुख्यत: कर्नाटक-तमिलनाडु में संघ के कामकाज की नींव रखने से लेकर अखिल भारतीय स्तर पर सेवा विभाग के औपचारिक कामकाज का लेखा-जोखा विस्तार से एवं धाराप्रभाव रूप में मेरे सामने प्रस्तुत करते गये। ये सारी यादें एवं बातें तब ताजी हुईं जब 19 नवंबर को उनके निधन का दुखद समाचार आया।
सुरुजी का जन्म 20 अगस्त, 1924 को मैसूर में हुआ। उनका पैतृक गांव था कर्नाटक के तुमकूर जिले का कोरटगेरे गांव। सुरुजी का पूरा परिवार अत्यधिक धर्मपरायण था। उनके पिता कोरटगेरे कृष्णाप्पा मैसूर संस्थान में असिस्टेंट सेक्रेटरी के पद से सेवानिवृत्त हुए थे। वे पू. गोंडवलेकर महाराज से दीक्षा प्राप्त थे। उनकी माता सुंदरप्पा ने विवाहोपरांत पू. गोंडवलेकर मजाराज के पट्ट शिष्य पू. ब्रह्मानंद महाराज से दीक्षा ग्रहण की थी। इस आध्यात्मिक परिवार की दूसरी विशेषता थी संघ से अत्यधिक लगाव। श्री गुरुजी तो अपने प्रवास के दरम्यान सुरुजी के यहां निवास करते ही थे, श्री गुरुजी के पिता स्व. भाऊजी भी सुरुजी के घर में रह चुके थे।
सुरुजी के चार छोटे भाई एवं एक बहन थी। उनके बंधु के. नरहरी प्रचारक थे। पिताजी के सेवानिवृत्ति मिलने वाली पेंशन परिवार के भरण-पोषण लिए पर्याप्त न होने की बात से अवगत होने पर स्वयं श्री गुरुजी ने नरहरी जी को अपने घर की देखभाल करने हेतु भेज दिया। उस पश्चात जिंदगी भर विवाहित रहते हुए नरहरी जी ने आगे संघ में नगर कार्यवाह, क्षेत्र कार्यवाह, प्रांत घोष प्रमुख आदि दिायत्वों का निर्वहन करते हुए कर्नाटक विधान परिषद में शिक्षक निर्वाचन क्षेत्र के विधायक के नाते 18 वर्ष काम किया। नरहरी जी की साख का इस बात से भी परिचय मिलता है कि उनके दफ्तर में प्रवेश करने के पश्चात कर्नाटक के तत्कालीन मुख्यमंत्री एस.एम.कृष्णा जैसे कांग्रेसी नेता भी आदर के साथ खड़े हो कर उनकी अगुआई करते थे। सुरुजी के सब से छोटे भाई गोपीनाथ 1975 तक कर्नाटक जनसंघ के अध्यक्ष थे। उनकी भगिनी रुक्मिणी अक्का राष्ट्र सेविका समिति की अ.भा. सह कार्यवाहिका रह चुकी हैं। नागपुर विश्वविद्यालय से एमएससी करते समय रक्मिणी अक्का अपने भाई शिवशंकर के साथ नागपुर में श्रीगुरुजी के घर रही थीं, जहां उनकी सारी देखभाल श्रीगुरुजी की माताजी स्व. ताईजी ने स्वयं की थी।
सुरुजी का संघ प्रवेश
संघ के संस्थापक डॉ. हेडगेवार 1937 में कर्नाटक के चिकोड़ी आये थे। उसके बाद 1939 में स्व. दादाराव परमार्थ संघ के काम के लिए दक्षिण भारत आये। इस के बाद बेलगांव, धारवाड़ में संघ के काम की शुरुआत हुई। 1939 में झांसी में प्रचारक के नाते काम करने वाले यादवराव जोशी डाक्टर जी के निधन के बाद नागपुर लौटे। जून 1941 में यादवराव बेलगांव आये। उसी दरम्यान मुंबई विश्वविद्यालय से पहले स्थान के साथ सफलता पाने वाले श्रीपाद मंगेश नाबर स्वयंसेवक बंगलौर के टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस में शिक्षा हेतु आये। उन्होंने अपने कुछ छात्र मित्रों को साथ लेकर अक्तूबर, 1941 में बंगलोर में संघ की पहली शाखा शुरू की। सुरुजी संघ में शामिल हुए 1942 में तथा उसी वर्ष श्री गुरुजी का बंगलुरू में सर्वप्रथम नगर आगमन हुआ।
इस के बाद अक्तूबर,1942 में धारवाड़ में संपन्न प्रांत बैठक में श्रीगुरुजी ने यादवराव जोशी को प्रांत प्रचारक घोषित किया। इस दरम्यान संघ के स्थानीय कार्यकर्ताओं के अलावा यादवराव जी जैसे लोगों का आना-जाना जारी रहा। इसी के परिणामस्वरूप सुरुजी संघ की ओर अधिकाधिक आकर्षित होते चले गये। उन्हें बालासाहब के सर्वप्रथम दर्शन भी हुए।
महात्मा गांधी की हत्या एवं संघ पर प्रतिबंध
वह दिन था 30 जनवरी, 1948 और समय शाम 5.30। चेन्नई के मेयर रामनाथन सलाई भाग संघचालक ॲड.व्ही. राजगोपालाचारी ने शहर के गणमान्य लोगों को चाय पर बुलाया था, जहां श्रीगुरुजी उपस्थित थे। बंगलुरू से यादवराव जी के साथ सुरुजी भी उस कार्यक्रम के लिए गये थे। शाम 6.30 बजे चाय का वितरण करने वाले व्यक्ति ने महात्मा जी की हत्या की खबर के आकशवाणी पर प्रसारित होने की खबर सुनाई। समाचार सुनते ही श्रीगुरुजी ने चाय पीते अपना कप नीचे रख दिया तथा कुछ समय के लिए स्तब्ध हो गये। बहुत बड़ा अनर्थ हुआ, यह कहते हुए श्रीगुरुजी अपने निवास की ओर चल पड़े। वहां पहुंचते ही उन्होंने पं. नेहरू, सरदार पटेल एवं देवदास गांधी को सांत्वना संदेश भेजे। पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार श्रीगुरुजी का मद्रास से शिविर के लिए विजयवाड़ा जाना तय था पर उन्होंने उस शिविर के लिए यादवराव जोशी को भेज कर वे स्वयं नागपुर रवाना हुए जहां उन्हें 1 एवं 2 फरवरी की रात में गिरफ्तार कर लिया गया।
उधर बंगलुरू में 10000 स्वयंसेवकों का शिविर संपन्न हुआ था। उसकी व्यवस्था का दायित्व सुरुजी पर ही था। 3 फरवरी की दोपहर जब शिविर के समापन पर टेंट आदि को संवारने का काम जारी था तभी वहां बंगलुरू के पुलिस आयुक्त आ पहुंचे। यादवराव भी विजयवाड़ा से बंगलुरू पहुंच चुके थे। इस दौरान गिरफ्तार किये गए सुरुजी को एक पुलिस थाने से दूसरे थाने में तीन बार स्थानांतरित कर प्रताडि़त किया गया था। कथित प्राथमिकी जांच के लिए सुरुजी को एक सप्ताह के लिए 4.7 फुट की कोठरी में रखा गया। इस बीच बंगलुरू के तत्कालीन सांसद केशव अय्यंगर के नेतृत्व में 5000 लोगों के जमावड़े ने सुरुजी के घर पर धावा बोल दिया। उस समय सुरुजी के घर में सिर्फ उनकी माताजी एवं रुक्मिणी अक्का थीं। घर की तलाशी लेने पर पुलिस आयुक्त ने सुरुजी को बताया कि हमें आपके घर से कुछ फाइल्स मिली हैं। उस पर सुरुजी का शांति से जवाब था कि उनमें कुछ भी नहीं है।
राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के वरिष्ठ प्रचारक श्री सूर्यनारायण राव ने पूरे जीवन मातृभूमि के लिए कार्य किया। उनके निधन से द्रवित हूंंं। उनकी आत्मा को शांति प्राप्त हो।
—श्री नरेन्द्र मोदी, प्रधानमंत्री
रा.स्व.संघ के वरिष्ठ प्रचारक श्री सूर्यनारायण राव के निधन से मैं दुखी हूं। वे पूरे जीवनभर राष्ट्र और मानवता के लिए कार्य करते रहे।
—श्री अमित शाह, राष्ट्रीय अध्यक्ष, भाजपा
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