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बाल चौपाल/क्रांति-गाथा-16
पाञ्चजन्य ने सन् 1968 में क्रांतिकारियों पर केन्द्रित चार विशेषांकों की शंृखला प्रकाशित की थी। दिवंगत श्री वचनेश त्रिपाठी के संपादन में निकले इन अंकों में देशभर के क्रांतिकारियों की शौर्यगाथाएं थीं। पाञ्चजन्य पाठकों के लिए इन क्रांतिकारियों की शौर्यगाथाओं को नियमित रूप से प्रकाशित करेगा ताकि लोग इनके बारे में जान सकें। प्रस्तुत है 29 अप्रैल ,1968 के अंक में प्रकाशित सुभाष चंद्र बोस की साथी रहीं दुर्गादेवी बोहरा का आलेख:-
-दुर्गा देवी-
देश की आजादी अथवा उसके लिए कोई भी छोटा-मोटा या बड़ा देशव्यापी आंदोलन मेरा आज का प्रसंग नहीं। अत: मैं केवल उसी क्षेत्र, उसी वातावरण और उन्हीं घटनाओं को यहां ले रही हूं, जिनसे भगतसिंह संबंधित था।
भगतसिंह जो कभी मेरे बड़े ही निकट का व्यक्ति बन चुका था और जिसे मैं बड़ी कठिनाई से भूल सकी थी, आज उसी के संबंध में मुझे कुछ लिखना है।
उनमें से कोई भी घर न लौटा
सन् 1921 का कांग्रेस आंदोलन, हम लोगों के जीवन का एक बड़ा मोड़ बना। शायद उस समय का देश का विद्यार्थी वर्ग कुछ अधिक स्वाभिमानी और चिंतनशील रहा हो, क्योंकि देखा गया कि बड़ी संख्या में विद्यार्थियों ने उस कांग्रेस आंदोलन को देश की आजादी की लड़ाई का सुअवसर समझा और वे उसमें जी-जान से कूद पड़े। कांग्रेस आंदोलन तो चौरी-चौरा काण्ड के पश्चात स्थगित हो गया और उसी के साथ लाहौर के विद्यार्थियों की यह भीड़ भी, जो केवल उसी आंदोलन के लिए आई अथवा उमड़ पड़ी थी, अपने-अपने स्थान को लौट गई। किंतु भगतसिंह और उनके साथी जो एक बार भारत को स्वाधीन करने हेतु अपने कदम बढ़ा चुके थे- उनमें से कोई भी फिर घर नहीं लौटा। संख्या में तो यह पच्चीस-तीस से अधिक न होंगे, जो सचमुच 'आजादी या मौत' की शपथ पर अटल रहे। इन थोड़े से युवकों की सच्ची लगन, दौड़-धूप और कार्यकुशलता का फल यह हुआ कि साधारण जनता इनके संपर्क से प्रभावित होने लगी। नित्य प्रति जलसों और सभाओं का आयोजन होता। लोग इनकी बातें बड़े ध्यान से सुनते और प्राय: जलसों की समाप्ति पर दो-चार-दस व्यक्ति इन्हें घेर कर बैठ जाते। निस्संदेह उनमें सीआईडी के आदमी भी होते ही थे। धीरे-धीरे इन भावी क्रांतिकारियों का परिवार बढ़ने लगा। यह स्पष्ट था कि कांग्रेस आंदोलन इन लोगों के लिए केवल एक बहाना या आड़ मात्र था, किंतु जैसे ही वह आंदोलन समाप्त हुआ, इनके भावुक हृदय और भी विद्रोही हो उठे।
यही उनकी सफलता है
इनसे पूर्व पंजाब में क्रांतिकारी दल की शाखा नाम-मात्र को ही थी। शाखा नहीं केवल एक व्यक्ति अथवा 'नेता'। इसलिए इनका संबंध देश के अन्य प्रांतों के क्रांतिकारियों के साथ अधिक तेजी के साथ बढ़ने लगा और जहां तक मैं समझती हूं, हमारे उस समय के पूरे साथियों में भगतसिंह ही इस संबंध की कड़ी था। सच तो यह है कि क्रांतिकारी समय-समय पर आवश्यकतानुसार दुनियां में पैदा होते हैं और अपने देश व समाज को जो भी उनकी देन होती है, देकर चले जाते हैं। यह उनकी सफलता है। इस संगठन का कोई केन्द्रीय मठ भी नहीं बना रह पाता और जो व्यक्ति किसी कारण रह जाते हैं, वे फिर क्रांतिकारी नहीं रह जाते। क्रांति क्षण-भंगुर है, स्थायी वस्तु नहीं। वे बचे-खुचे क्रांतिकारी कहलाने वाले दादा कभी-कभी निरापद हो जीवन के मोह की ओर लपकने लगते हैं और प्रतिष्ठा बनी रहे, इसलिए विगत से विच्छेद भी नहीं करते। लाहौर में तात्कालिक दल के नेता के संबंध में यही बात है। अत: हमारे साथियों ने वहां जो कुछ देखा और अनुभव किया, वह यही था कि वे व्यर्थ के भ्रम में न पड़ कर संयुक्त प्रांत (अब उ.प्र.) के उस समय के दल के सक्रिय नेताओं से सीधा संपर्क स्थापित करें और ऐसा ही हुआ भी।
भगतसिंह से प्रथम परिचय
समय के साथ-साथ हमारा पंजाब का वह संगठन मजबूती पकड़ता गया। इधर कांग्रेस आंदोलन असफल हो जाने के कारण साधारण जनता में भी बेचैनी के आसार स्पष्ट थे। उसे अधिक से अधिक हमें अपने साथ लेना था इसलिए बाह्य रूप से हमारे कार्य का माध्यम भी रुचिकर तथा विभिन्नतापूर्ण अपनाया गया था। रूस की क्रांति अभी ताजी थी और इसका साहित्य हम लोगों का उत्साह बढ़ाता था और उसका बड़ी तन्मयता से प्रचार किया जाता था। भाव-पूर्ण व ओजभरी कविताएं, कवि सम्मेलन, गोष्ठियां तथा नाटक आदि विभिन्न कार्यक्रम होते रहते थे। लाहौर का खादी भंडार, परी महल और पंजाब नेशनल कॉलेज आदि स्थान इन लोगों के आपस में मिलने-जुलने तथा बैठकर बात करने के अड्डे थे। ऐसा लगता था, मानो कोई आंधी-तूफान आया हो। न कोई समय पर खाता, न नींद भर सोता। कपड़े मैले, फटे और जूते भी जीर्ण-शीर्ण। विशेषकर भगतसिंह के। मुझे याद है कि पहली बार जब भगतसिंह से मेरा परिचय कराया गया था, तो उसके सिर पर खद्दर की कुछ थैली सी व बेसिलसिले एक-एक छोर लटकी पगड़ी थी और जूतों पर गोल लम्बे कई तरह के पैबंद। सोचती हूं कि यह वही भगत था जिसने एक बार तो ब्रिटिश-साम्राज्यवाद की जड़ें हिला दी थीं और जिसे प्रतिहिंसा की भावना से पीडि़त अंग्रेजों ने हिन्दुस्तानियों के हाथों से ही फांसी के तख्ते पर लटकवा कर अपनी प्रतिकार की प्यास बुझाई थी। भगतसिंह की वह मृत्यु वास्तव में उसका पार्थिव अंत था, पर देश ने सचमुच उसी दिन भगतसिंह को जनम दिया था। मेरा पूर्ण विश्वास है कि आज नहीं तो कल समय आयेगा जबकि घर-घर में भगतसिंह की लोरियां गायी और बच्चों को सुनाई जायेंगी।
भगतसिंह के पिता अपने घर में अच्छे खाते-पीते जमींदार थे। उनके घर में किसी वस्तु का अभाव न था। वह लाहौर में पढ़ने के लिए आया था और आगे चलकर लाहौर ही उसका कार्यक्षेत्र बना। कांग्रेस आंदोलन के समय उन लोगों ने अपने-अपने कॉलेज छोड़े थे और फिर बाद में पंजाब नेशनल कॉलेज में सभी दाखिल हो गये थे क्योंकि वहां उन्हें अपने संगठन के लिए अनुकूल परिस्थितियां मिल गयी थीं।
जब फांसी का तख्ता मंडप बना
भगतसिंह का गांव शहर से अधिक दूर न था और वह अपने घर आता-जाता रहता था। बाद में कभी-कभी महीनों घर न जाता। सरदार किशनसिंह (भगतसिंह के पिता) अपने इस होनहार बेटे की गतिविधि को सदा संदेह की दृष्टि से ही देखते थे। कई बार तो ऐसा होता कि आगे-आगे बेटा और पीछे-पीछे बाप। सरदार जी उसे तलाश करते हुए उन सभी स्थानों में पहुंचते, जहां-जहां वे उन लोगों के जमाव की आशा करते थे। प्राय: सरदार जी की आवाज सुनकर भगतसिंह इधर-उधर हो लेता- दूसरे लोग बड़े भोलेपन से उनका स्वागत करते और कहते कि आज तो वह हमें नहीं मिला। यह उन दिनों की बात है, जबकि सरदार जी चाहते थे कि भगतसिंह कुछ काम करे और वे उसके विवाह का प्रश्न भी उसके सम्मुख रखना चाहते थे। भगतसिंह जानता था कि घर में शादी-विवाह की चर्चा छिड़ी हुई है, अत: वह उन सभी से बचकर चल रहा था। यह बातें भगतसिंह के संबंध में जब याद आती हैं तो लगता है कि वह दुनिया ही और थी। सरदार के पिता जी का वात्सल्य-मिश्रित क्रोध, उनकी गाली-गलौज, गुस्सा भगतसिंह के निर्दोष मित्रों पर भी बरसा करता था। उस समय हम लोग यह सब हंसकर टाल देते थे। पर आज उन बातों की स्मृति में एक टीस भरी मिठास और अपनापन अनुभव हो रहा है- उस समूचे अभाव की स्मृति, कि क्या कभी ये बातें सच थीं? सरदार जी का पुत्र पर क्रोध, उसके जीवन के प्रति मोह और भगतसिंह और उसका विवाह? कैसा परिहास था यह सब। भगतसिंह ने तो अपनी मां से कह दिया था कि उसका विवाह निश्चित हो चुका है। वे उसकी चिंता न करें। और फिर फांसी का तख्ता उसका मंडल बना, गले की रस्सी उसकी वरमाला और पत्नी की मौत। जो उसे हमसे दूर, बहुत दूर कहीं सदा के लिए ले गयी। यूं तो भगतसिंह की इस प्रकार देश की आजादी के लिए पागल बन बैठने की पृष्ठभूमि भगतसिंह के चाचा सरदार अजीतसिंह और पिता सरदार किशनसिंह को माना जा सकता है, किंतु भगतसिंह देश की आजादी का चमकता परवाना केवल इसीलिए नहीं बना था कि उसने देशभक्ति की भावना अपनी विरासत में पायी थी। भगतसिंह का अपना निखरा हुआ, मंजा हुआ व्यक्तित्व था, जो सर्वदा उसके सादे-बोदे लिबास और भावपूर्ण व्यवहार से फूटा पड़ता था। तेइस वर्ष की आयु में ही भगतसिंह ने किस प्रकार अपने को योग्य एवं अनुकरणीय बना लिया था, यह सराहनीय है। वह भावुक हृदय था, सफल लेखक और प्रभावशाली वक्ता। उसके व्यक्तित्व, व्यवहार दोनों में अनोखा आकर्षण था। वास्तव में वह एक ऐसा योगी था, जो जीवन में डूबकर तैरना जानता था।
सनक की बात नहीं
आंदोलन के समय उन लोगों ने अपनी पढ़ाई-लिखाई छोड़ी थी। यह पढ़ाई-लिखाई वह थी, जिससे उनका भविष्य बनता। वे डिग्रियां पाते और बाद में अच्छी नौकरियां भी- उनका भावी जीवन सुखद व स्वाभाविक होता, किंतु जिन्हें अमरत्व पाना था, उन्हें यह प्रलोभन बांधकर न रख सका। उनके प्रतिदिन के जीवन का कार्यक्रम था- केवल अध्ययन, ऐसा अध्ययन जो इन्हें सर्वांग और संपूर्ण बना सके। राजनीति, इतिहास तथा अन्य सभी विषयों पर इनका अधिकार था। किसी भी विषय पर कभी कोई बहस छिड़ जाने पर किसी को अपने ज्ञान की दुर्बलता पर संतुलन खोते नहीं देखा गया और न कोई कभी इस पर खिसियाया ही, अपितु अपनी दलीलों की पुष्टि की मिसाल पर मिसाल निकलती आती थीं। कितनी समता और कितना एका था, उनकी उस समय की विचारधारा में कि आज उसके रूप की कल्पना भी नहीं की जा सकती। उन्हें देश की आजादी के लिए मर मिटने को तैयार केवल सनकी नहीं कहा जा सकता। उस सबकी तह में एक विचार-दर्शन था जिसे लेकर वे चल रहे थे और जिसकी नींव पर स्वतंत्र समाज और देश का चित्र वे देखा करते थे। अपने ध्येय व लक्ष्य की पूर्ति हेतु वे सभी कुछ करने को तत्पर रहते। दरियां बिछाना, झण्डियां बनाना, पैम्फलेट लिखना-छपाना और बांटना यह सब कुछ तुरत-फुरत होता था।
प्रताप प्रेस में
उन दिनों पंजाब का राजनीतिक क्षितिज भी स्वच्छ था, जनता सजग थी। यही कारण था कि हमलोगों के काम में कभी आर्थिक बाधा जटिल रूप बनकर नहीं आई। परिस्थितियां ज्यों-ज्यों अनुकूल होती गयीं, सरकार उतनी ही चौकन्नी होती गयी। हम लोगों के जितने भी बाह्य संगठन हैं, वे चाहे जिस नाम से हों, सभी सरकार की काली सूची में आ गये। अत: हर किसी के घर पर और बाहर भी सीआईडी के दो व्यक्ति साथ रहने लगे। यदि किसी स्थान पर हम दस लोग इकट्ठे हों, तो पूरे बीस सीआईडी के आदमी बाहर अपनी-अपनी साइकिलें लेकर जमे रहने लगे। सबसे पहले तो सरकार ने भगतसिंह को ही फंसाने की योजना आवश्यक समझी और उसके लिए जाल बुना जाने लगा। ऐसी अवस्था में भगतसिंह ने स्थायी रूप से लाहौर छोड़ देना उचित समझा। वह कानपुर आ गया। कानपुर में बलवंत नाम से उसने दैनिक प्रताप में काम ले लिया। स्वर्गीय श्री गणेशशंकर विद्यार्थी ने बलवंत को अपने संरक्षण में रखा। भगतसिंह तो अपने पिता से दूर होना चाहता ही था, सरकार ने भी उसे ऐसा करने को बाध्य कर दिया। अब भगतसिंह ने प्रताप में लेख लिखने आरंभ कर दिये थे। उसे अपने विचारों को प्रकाश में लाने का संयोग मिला, साथ ही वहां उसे 'भैया आजाद' तथा अन्य क्रांतिकारियों से निकट संबंध स्थापित करने का सुअवसर भी।
काकोरी में खजाना लुटा
इस प्रांत के वातावरण में उन दिनों और भी सरगर्मी थी। काकोरी स्टेशन पर ट्रेन रोककर सरकारी खजाना लूटने की योजना थी। वह घटना घटित हुई। तदुपरांत दल के बहुत से बड़े-बड़े व्यक्तियों की गिरफ्तारियां हुईं। काकोरी-केस आरंभ हुआ और फिर काकोरी के अभियुक्तों को जेलों से छुड़ाने की हमारी असफल तैयारियां आदि।
यह सारे वर्ष एक के बाद एक मानो दौड़ते-भागते एकदम निकल गये। इस बीच भगतसिंह ने अपने पांव यहां काफी जमा लिए थे। वह कई बार देहली गया, लाहौर गया तथा अन्य स्थानों में भी घूमता रहा। अपने लोगों से और कांग्रेस के भी उदार-विचारों के व्यक्तियों से उसने संपर्क रखा। उस समय के लोगों की मानसिक-अवस्था आज से भिन्न थी। उनमें एक मनोबल पाया जाता था। सभी स्वाधीनता चाहते थे और वे येन-केन-प्रकारेण उसे प्राप्त करने में विश्वास रखते थे। हो सकता है कि कोई स्वयं अधिक खतरा मोल लेना न चाहता हो, पर उनकी आशा भरी दृष्टि हमारे दल की ओर ही लगी थी इसमें संदेह नहीं। दल के लिए सचमुच यह बड़ी प्रेरणा की बात थी। कांग्रेस की ढुल-मुल नीति से लोग उकता चुके थे और विदेशी शासन तो इससे काफी परिचित हो चुका था। क्रांतिकारियों की गतिविधियां प्रबल थीं और उनसे अंग्रेज सरकार भयभीत थी।
दशहरा बमकांड
सितम्बर का महीना। 1928 की बात है। भगतसिंह लाहौर में था। वहां की सरकार उसे किसी भी झूठे-सच्चे मामले में फंसाने का कुचक्र रच रही थी। हमारे आंदोलन का रूप राजनीतिक है, यह वह खूब जानती थी, पर उसे कुचलने का कोई मौका नहीं पा रही थी। अत: जनता की दृष्टि में हमें बदनाम करने के लिए और इन नवयुवकों की दिनानुदिन बढ़ती हुई लोकप्रियता को वह साम्प्रदायिक रूप देकर समाप्त करना चाहती थी। अचानक दशहरे के दिन मेले की भीड़ में एक बम फट गया। सरकार ने उसे हिंदू-मुस्लिम झगड़े का रूप देना चाहा और कुछ गिरफ्तारियां की गयीं, जिनमें भगतसिंह को भी पकड़ लिया गया, पर वह तो एक मनगढंत घटना थी। कोई साम्प्रदायिक मामला था ही नहीं। इसलिए सब छूट गये और भगतसिंह भी छूट गया। वह ऐसा समय था कि क्रांतिकारियों के विरुद्ध कोई भी असंगत और अभद्र बात आसानी से बनायी जा सकती थी। भगतसिंह को अब फरार हो जाना पड़ा।
सांडर्स मारा गया
सन 1928 में ही भारत में साइमन कमीशन आया। यह नवम्बर का महीना था। कांग्रेस ने और समूचे देश ने इस कमीशन का बहिष्कार किया, किंतु ब्रिटिश साम्राज्यशाही उस महान विरोध को अपने जूतों की ठोकरों से कुचल डालने को कटिबद्ध थी। देशभर के नौजवानों ने, और तो और बच्चों ने तथा कांग्रेस के सभी बड़े-छोटे नेताओं ने स्थान-स्थान पर इसके विरोध में सभाएं कीं और जुलूस निकाले। इन जुलूसों पर लाठियों से प्रहार किये गए। भीड़ पर गोलियां दागी गयीं और गिरफ्तारियां हुईं। देश के इस अपमान ने हमारा ध्यान उस अपमान की ओर फिर आकृष्ट किया, जो अत्याचार निहत्थी जनता पर जलियांवाला बाग में किये गये थे। वे घाव भी हमारे ताजे हो उठे। नृशंसता तथा क्रूरता का वह वीभत्स रूप था। अत: जैसी उमस वर्षा होने से पहले होती है, वैसी ही तपन और घुटन से सारा देश तड़प उठा। घटनाओं से घटनाएं पैदा होती हैं। 18 नवम्बर 1928 की दोपहर को लाहौर की गली सड़कों पर भी जुलूस निकला था और उसका नेतृत्व कर रहे थे हमारे वीर-केसरी लाला लाजपतराय। स्काट ने, जो उस समय लाहौर का पुलिस सुपरिंटेंडेंट था, जुलूस को छिन्न-भिन्न करने के लिए लाठी चार्ज करवाया। जनता भड़क उठी। पंजाब प्रांत की यह विशेषता है कि वहां का साधारण जीवन अपने ही राग-रंग में रंजित रहता है, पर यदि एक बार आग भड़क उठे, तो उसे बुझाना आसान नहीं। जुलूस बढ़ता गया, लाठियां भी बरसती रहीं। जो चोट से गिर पड़ते, उन्हें किनारे कर लोग आगे बढ़ते ही जा रहे थे। सैकड़ों के सिर फूटे, चश्मे टूटे और हाथ-पैर जख्मी हुए। अंत में स्काट के आदेश पर लाला लाजपतराय पर ही प्रहार किया गया। यह निश्चित बात थी कि यदि उस समय किसी के पास रिवाल्वर या पिस्तौल होती, तो स्काट का सफाया उसी स्थान पर कर दिया जाता किंतु उस दिन से ठीक एक माह के पश्चात सांडर्स असि. पुलिस सुपरिन्टेंडेंट को दिनदहाड़े गोली मार दी गयी। स्पष्ट था कि दल ने यह कार्य स्काट या सांडर्स के मारने के लिहाज से नहीं किया था, यह तो उस नृशंस अंग्रेजी हुकूमत के मुंह पर भरे बाजार में एक तमाचा था और उस बात की चेतावनी थी कि देश अब और अधिक सहन नहीं कर सकता। दल के कमांडर श्री चंद्रशेखर आजाद के नेतृत्व में सांडर्स को भगतसिंह और राजगुरु ने गोली मारी थी। बाद में एक सब-इंसपेक्टर चाननसिंह, भगतसिंह को पहचान कर उसका पीछा कर रहा था, भइया आजाद ने उसे रोका और जब वह नहीं रुका, तो उसे उन्होंने अपने माउजर से स्वयं ठंडा कर दिया। इस घटना ने न सिर्फ लाहौर, बल्कि सारे देश में सनसनी पैदा कर दी। देखा गया कि अच्छे संभ्रांत व्यक्ति, जिनका कभी किसी राजनीति से मतलब न था और जो सरकारी नौकरी में थे, हर तरह की सहायता के लिए तेयार थे। उनका कहना था कि हमारा कोई व्यक्ति पकड़ा न जाय और इसके लिए वे सब कुछ करने को उतारू थे। आजाद, भगतसिंह और राजगुरु सभी सुरक्षित रूप से लाहौर से निकल आये। उस समय मानों पंजाब की धरती, आकाश और उसकी सभी दिशाएं भगतसिंह और उसके साथियों की रक्षा का कवच बन गई थीं। बच्चा-बच्चा जानता था कि यह काम भगतसिंह का है।
मां के चरणों पर
वह सबको बता देना चाहता था कि देश की वह युवा पीढ़ी, जो वहां कठघरे में उपस्थित है वह कोई आत्मघात करने के लिए नहीं आई है, उन्हें भी दुनिया प्यारी है और जीवन प्यारा है। वह स्वयं सौंदर्य का उपासक था, कला का प्रेमी था और जीवन के प्रति उसे आसक्ति थी, जिस वस्तु का अत्यधिक मूल्य है, उसी को तो वह मां के चरणों पर सुगंधित पुष्पों के रूप में चढ़ाना चाहता था-मुरझाये और सड़े पुष्पों को नहीं। अत: 23 मार्च, 1931 आया। भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव चले गये। वह अभिनय समाप्त हो गया। पर्दा गिर गया। उनका पार्थिव रूप लुप्त हो गया, किंतु भावना के संसार में वे देश की आत्मा में प्रवेश पा गये। यही थी वह अंतिम झांकी, जिसकी स्मृति में आज शिला पर लिखा है:-
शहीदों की चिताओं पर जुड़ेंगे हर बरस मेले,
वतन पर मिटने वालों का यही बाकी निशां होगा।
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