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वर्ष: 13 अंक: 1
20 जुलाई ,1959
पाञ्चजन्य के पन्नों से
कोई देशभक्त ही देशभक्त की व्यथा को समझ सकता है
20 जून के पश्चात् से जिस दिन महामान्य दलाई लामा ने संसार के समक्ष अपने देश की स्थिति के बारे में एक स्पष्ट और प्रामाणिक वक्तव्य दिया, तिब्बत प्रश्न की भूमिका में क्रांतिकारी परिवर्तन आ चुका है। जो व्यक्ति तिब्बत के बारे में थोड़ा कुछ भी जानता है, उसके लिए यह मूर्खतापूर्ण होगा कि वह दलाई लामा की वाणी के अधिकृत होने में संदेह प्रकट करे। उनकी वाणी तिब्बत के शासन के प्रधान की वाणी है, भले ही उस राज्य का अंतरराष्ट्रीय स्तर स्वतंत्र अथवा अर्द्ध प्रभुसत्ता संपन्न राष्ट्र का रहा हो। दूसरे दलाई लामा की वाणी तिब्बत की जनता, जो उन्हें इस प्रकार पूजती है, जिस प्रकार संसार के किसी भी जीवित व्यक्ति को पूजे जाने का गौरव नहीं प्राप्त है, की अधिकृत वाणी है। दलाई लामा की तिब्बत में जो महत्वपूर्ण स्थिति है, उसके अतिरिक्त उनका एक अन्तरराष्ट्रीय व्यक्तित्व एवं स्थान है। समस्त बौद्ध जगत में, विशेषकर मंगोलिया और स्वयं चीन में तथा अन्य क्षेत्रों, जहां बौद्ध धर्म के महायान पंथ का प्रभाव है, दलाई लामा को एक आध्यात्मिक गुरु के रूप में सर्वोच्च आदर प्राप्त है।
दलाई लामा के अधिकृत वक्तव्य के पश्चात् भी तोतारटन्त करते हुए तिब्बत पर चीन के संरक्षण अधिकारों को मान्यता देना एवं तिब्बत को चीन का आंतरिक प्रश्न कहते जाना वस्तुस्थिति की ओर से आंखें मूंद लेना है और इतिहास की एक महान भूल के समक्ष मस्तक झुका देना है। इस प्रकार के नैतिक पलायन के फलस्वरूप भविष्य में और भी बड़े अन्याय होंगे। जिनका अंतिम परिणाम युद्ध में होगा। मैं भी स्वयं को चीन का मित्र समझता हूं किन्तु यदि उस देश ने कोई अन्याय किया है तो उसकी ओर उंगली उठाने में संकोच नहीं कर सकता।
तीन दृष्टिकोण- तिब्बत की वर्तमान स्थिति की ओर देखने के तीन दृष्टिकोण हैं। प्रथम, उन लोगों का दृष्टिकोण है, जिन्होंने संरक्षण अधिकार फार्मूले को कभी मान्यता नहीं दी और जो सैदव तिब्बत की पूर्ण स्वाधीनता का समर्थन करते रहे। उनके लिए तो तिब्बत की घटनाएं एवं दलाई लामा का वक्तव्य उनके मत की पुष्टि बनकर ही आए हैं। वर्तमान स्थिति अधिक या कम मात्रा में वही है, जिसकी वे बहुत पूर्व से अपेक्षा कर रहे थे।
पं. नेहरू का दृष्टिकोण-दूसरा दृष्टिकोण है उन लोगों का जिन्होंने संरक्षण-स्वामित्व एवं अर्द्ध प्रभुसत्ता फार्मूला को मान्यता प्रदान की। यह देखकर वस्तुत: बहुत दु:ख होता है कि इस फार्मूले को उन देशों ने भी मान लिया, जिन्होंने अभी हाल में अपनी खुद की स्वतंत्रता को प्राप्त किया था। यह साम्राज्य-विरोधी एवं राष्ट्रीय स्वातंत्र्य का युग है और इस युग के लिए एक राष्ट्र पर दूसरे राष्ट्र के संरक्षण स्वामित्त्व का सिद्धांत है, विचित्र सा लगता है। संरक्षण स्वामित्व के अधिकारों को तो उसी स्थिति में मान्यता दी जा सकती थी जब तिब्बत की अर्द्ध प्रभुसत्ता का संरक्षण होता। खैर, तिब्बत अब अर्द्ध प्रभुसत्ता संपन्न भी शेष नहीं रहा है। चीन ने जान-बूझकर, अपने समस्त मित्रों की चेतावनियों एवं परामर्शों की उपेक्षा करके भी तिब्बत की प्रभुसत्ता का बलपूर्वक अपहरण कर लिया है। तब क्या तिब्बत की अर्द्ध स्वतंत्रता की हत्या के पश्चात् भी चीन का संरक्षण स्वामित्व शेष रह जाता है। इसका उत्तर है, 'स्पष्ट नहीं।'
केरल- आंदोलन में हिन्दुओं
का वर्तमान और भविष्य क्या?
जब हिन्दी के एक प्रमुख साप्ताहिक के सम्पादक ने मुझसे पूछा कि वर्तमान आंदोलन के परिणास्वरूप हिन्दुओं की क्या स्थिति रहेगी, तो मेरे मस्तिष्क ने उस दिशा में सोचना प्रारंभ किया। वास्तव में प्रश्न बहुत ही महत्वपूर्ण है, किन्तु दुर्भाग्य से समस्या का यह पहलू वर्तमान अनावस्था एवं अस्त-व्यस्तता की स्थिति में उभरकर लोगों के सामने नहीं आया है। न ही मुझे ऐसा लगता है कि आंदोलन के हिन्दू नेताओं ने जो इस समय दलीय राजनीति एवं संघर्ष में बुरी तरह उलझे हुए हैं, इस प्रश्न पर कुछ विचार ही किया है। जहां तक ईसाई नेताओं का प्रश्न है, वे ईसाई हितों के रक्षण की स्पष्ट कल्पना लेकर ही इस आंदोलन में सम्मिलित हुए है। और अब क्योंकि मुस्लिम लीग ने भी आन्दोलन में सम्मिलित होने का निर्णय कर लिया है, मुसलमान भी स्वाभाविक ही, अपने हितों की रक्षा के लिए व्यग्र हो उठे हैं। वर्तमान सरकार के विरुद्ध उनकी एक ही शिकायत है कि उन्हें पर्याप्त सुविधाएं नहीं दी गयीं। अकेले हिन्दुओं का ही हिन्दू के नाते प्रतिनिधित्व करने वाला कोई नहीं।
श्री मन्नथ पद्मनाभन आप पूछेंगे, क्या यह सत्य है? तब ये श्री मन्नथ पद्मनाभन कौन है? ये किसका प्रतिनिधित्व कर रहे हैं? यह तो सच है कि वे सम्पूर्ण हिन्दू समाज की ओर से बोलने का प्रयास कर रहे हैं, किन्तु दुर्भाग्य यह कि सब हिन्दू उनके पीछे खड़े नहीं हैं। यह अभागा हिन्दू अन्य स्थानों की भांति केरल में भी बुरी तरह विभाजित है। इस संघर्ष में आपको नायरों की वाणी सुनाई देगी, एड़वाओं का शोर सुनाई देगा, तथाकथित हरिजनों का प्रतिनिधित्व करने वाले लोग दिखाई देंगे। पर वे सब अलग-अलग भी कम्युनिस्ट सरकार के विरुद्ध नहीं हैं।
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