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लिखा जाना है इतिहास

by
Aug 16, 2016, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 16 Aug 2016 11:35:24

जिस समय देश आजादी की वर्षगांठ के लिए चौकस, उत्साही तैयारियों में डूबा था, उसी सप्ताह भारत में कई महत्वपूर्ण घटनाक्रम आकार ले रहे थे।
पहली और सबसे महत्वपूर्ण घटना थी दिल्ली से बहुत दूर पूवार्ेत्तर के मणिपुर में ऐतिहासिक अनशनकारी ईरोम चानू शर्मिला के उपवास का अंत। सोलह बरस से भूखी-प्यासी ईरोम शर्मिला ने जब एक बूंद शहद अपनी जबान पर रखा तो वह मिठास अद्भुत थी़ शहद की इस एक बूंद में लंबे प्रतिरोध से छलके आंसू तो थे ही, चुनावी लोकतंत्र में सहभागिता की प्रतिबद्धता भी थी।
उपवास समाप्त, गृहस्थ जीवन की शुरुआत करने और राजनैतिक भागीदारी के लिए कदम बढ़ाने की इच्छा़.़ सब कुछ अच्छा था। ज्यादा अच्छी बात यह रही कि इस 'सब अच्छे' के बीच कुछ सबसे बुरे षड्यंत्र भी उजागर हो गए। दशकों ईरोम को शुभंकर की तरह घुमाती-भुनाती रही एक खास एनजीओ बिरादरी के आंगनों में मातम पसर गया। वामपंथी-समाजवादी बिल्ला लगाकर राज्य में दहशत की दुकान चलाने वाला ईसाई आतंकी संगठन (अलायंस फॉर सोशलिस्ट यूनिटी, कांगलीपाक) सीधे-सीधे इरोम की जान लेने की धमकी देने पर उतर आया!
अलायंस सोशलिस्ट यूनिटी कांगलीपाक (अरवङ)  प्रेसिडेंट एन ओकेन और वाइस चेयरमैन ङरऌ लैब माइती ने बुधवार को जारी एक बयान में कहा कि उन्हें मणिपुरी लड़के से ही शादी करनी होगी।
अरवङ का कहना है, ''इससे पहले भी सार्वजानिक जीवन में शामिल होने की कोशिश करने वाले कई क्रांतिकारी नेताओं को मार दिया गया है।'' गौरतलब है कि संप्रभु मणिपुर की मांग करने वाले दो अन्य अलगाववादी गुटों ने भी इरोम से अपना अनशन न तोड़ने को कहा था। इरोम को 'आयरन' बताने वाले ये लोग वास्तव में उन्हें एक ऐसी फौलादी गुडि़या मान बैठे हैं जिसकी अपनी कोई इच्छा, संवेदना या निर्णय नहीं हो सकता और जो संप्रभु राष्ट्र के विरुद्घ विघटनकारी और आतंकियों की लड़ाई के मोहरे की तरह उनके इशारों पर नाचती रहेगी।
क्यों?  
इरोम को जान से मारने की खुली धमकी दी गई। ऐसे में महिला संवेदनाओं के पहरुए, लोकतंत्र में सबकी भागीदारी के समर्थक, असहिष्णुता की डफली बजाने वाले नामी-वामी आज किन बिलों में दुबके बैठे हैं?
दो अन्य घटनाएं मध्यप्रदेश के उज्जैन और उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद की हैं जो मणिपुर के मुकाबले देश की राजधानी के कहीं ज्यादा पास हैं। उज्जैन के 56 मदरसों का उस मध्यान्ह भोजन से इनकार है जिसे इस्कॉन बनाता रहा। संचालकों को इस भोजन में बच्चों के लिए जरूरी पोषण की बजाए मजहबी कड़वाहट की बू आ रही है। उधर इलाहबाद में एक निजी स्कूल के मुस्लिम प्रबंधक को सरस्वती वंदना और वंदेमातरम् के गायन पर तो सख्त ऐतराज था ही, स्वतंत्रता दिवस समारोह के लिए राष्ट्रगान की तैयारी भी उसे मंजूर नहीं थी, क्योंकि इसमें राष्ट्र के सवार्ेपरि होने की गूंज है।
शुद्घ मध्याह्न भोजन में भ्रष्टता ढूंढ निकालने वाले ये मान बैठे हैं कि कोई राजकीय व्यवस्था चाहे वह सबके लिए कितनी ही कल्याणकारी क्यों न हो, उनकी शतोंर् और जिद के मुताबिक ही अमल में लाई जा सकती है! वहीं राष्ट्रगान को अपमानजनक हद तक नकारने वाले यह मान बैठे हैं कि देश और व्यवस्था अपनी जगह लेकिन मर्जी उनकी ही चलेगी!
थाली के अन्न और मन के भावों में भी भेद पैदा करने वाला विचार, भारत के लोगों को एक-दूसरे से काटने वाला यह कुल्हाड़ा, किसका है? आजाद भारत में  नागरिकों की इच्छा, उनके स्वास्थ्य और कल्याण तथा देशभक्ति के स्वरों का गला दबाने वालों का क्या और कितना असरकारी इलाज हमारे हाथ में है, यह देखने वाली बात है। सामाजिक आंदोलनों की आड़ में लोगों को कठपुतलियों की तरह बरतते कुचक्र हावी रहेंगे तो किसी  मुहिम का भला क्या नैतिक आधार होगा? आस्था के पीछे देश, समाज और मानवता का हित नहीं होगा तो किसी सभ्य समाज में इसे क्यों और किसलिए स्वीकार किया जाएगा?
ये ऐसी घटनाएं हैं जिनका भारतीय लोकतंत्र की यात्रा के इस पड़ाव पर संज्ञान लेना बहुत जरूरी है।
एक ही समय कई घटनाओं की गड्डमड्ड भले तात्कालिक रूप से अपना तारतम्य साबित न कर पाए लेकिन इतिहास में वे अपना क्रम, स्थान और महत्व दर्ज करा ही देती हैं।
विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के महत्व को आगे चलकर इस बात से रेखंकित किया जाएगा कि देश की गरिमा और जनतंत्र को चोट पहुंचाने वालों को समय पर  क्या और कितना कारगर जवाब दिया गया।
इतिहास लिखा जाना है, जवाब जरूरी है।
वन्दे मातरम्।

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