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बीते कुछ साल में मुख्यधारा मीडिया ने एक नई परंपरा शुरू की है कि जब भी कोई अपराध हो, फौरन पता करो कि पीडि़त की जाति और धर्म क्या है। शुरू में ऐसा खबर को सनसनीखेज बनाने के लिए किया गया। अब इसे अपना राजनीतिक एजेंडा साधने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है। मीडिया के अंदर तक बैठे कांग्रेसी-वामपंथी पत्रकार इन दिनों पूरे जी-जान से हर खबर को जातीय और धार्मिक रंग देने में जुटे हैं। अपराध ही नहीं, राजनीति, कारोबार और खेल तक की खबरें भी इससे अछूती नहीं हैं।
धर्म और जाति के आधार पर समीकरण बिठाना अब तक नेताओं का काम हुआ करता था, लेकिन अब मीडिया भी यह काम करने लगा है। सबसे क्रांतिकारी एंकर ने हाथ मसलते हुए बताया कि गुजरात के ऊना में दलितों के साथ जो कुछ हो रहा है, उससे नया सामाजिक समीकरण बनेगा। उनके मुताबिक दलितों और मुसलमानों को एक मंच पर आना चाहिए और मिलकर लड़ाई लड़नी चाहिए। सवाल यह है कि ये तथाकथित पत्रकार दलितों और मुसलमानों को किसके खिलाफ भड़का रहे हैं? क्या उन लोगों के खिलाफ जिनका इस अपराध से कोई लेना-देना ही नहीं है। क्या यह मीडिया का काम है कि वह इस तरह से लोगों को भड़काए?
दलितों और कमजोर तबकों पर अत्याचार और भेदभाव हमारे समाज की कड़वी सच्चाई है। लेेकिन मीडिया जिस तरह की रिपोर्टिंग कर रहा है उससे और भी विषम स्थिति पैदा हो सकती है। एक तरफ ऊना में दलित परिवार की पिटाई को खूब तूल दिया गया, वहीं गुजरात के ही गोधरा में एक दलित छात्र की बर्बर पिटाई की खबर पूरी तरह गायब कर दी गई। कारण यह था कि उस छात्र को पीटने वाले सभी अपराधी मुसलमान थे। कुछ स्थानीय अखबारों को छोड़ दें तो दिल्ली के मीडिया ने इस खबर को दबा दिया। ठीक उसी समय जब वे ऊना में दलित अत्याचार के बहाने पूरे देश में सामाजिक टकराव की स्थिति पैदा करने की कोशिश कर रहे थे। ऊना को लेकर मीडिया ने अतिसक्रियता की सारी हदें पार कर दीं। बिना सोचे-समझे यह नतीजा निकाल लिया गया कि दलितों को पीटने वाले गोरक्षक थे जबकि आरोपियों की सूची में मुसलमान भी हैं। पुलिस की शुरुआती जांच में यह बात साफ हो चुकी थी कि झगड़ा जमीन को लेकर है, जिसमें गाय को बहाने के तौर पर इस्तेमाल किया गया है। क्या इससे दलित परिवार पर बेरहमी करने वाले असली दोषियों को बचने का मौका नहीं मिल जाएगा? कर्नाटक के धारवाड़ में पानी के लिए प्रदर्शन कर रहे किसानों को पुलिस ने बुरी तरह मारा-पीटा। स्थानीय चैनलों ने दिखाया कि कैसे घरों में घुस-घुसकर पुलिस ने बर्बरता दिखाई। यहां तक कि महिलाओं, बुजुगार्ें और बच्चों को भी नहीं छोड़ा। क्या यह खबर राष्ट्रीय मीडिया में नहीं आनी चाहिए थी? कहीं ऐसा तो नहीं कि दिल्ली के मीडिया के कर्ताधर्ताओं ने इसलिए इस खबर को नजरंदाज कर दिया? क्योंकि इससे किसानों का हितैषी बनने का नाटक कर रही कांग्रेस और उसके युवराज के दावों की हवा निकल जाती। यह आरोप सही भी लगता है। गुरुग्राम में ट्रैफिक जाम की खबर पर जिस तरह हंगामा खड़ा किया गया, उससे यह आशंका सही लगती है कि चुन-चुनकर भाजपा शासित सरकारों को बदनाम करने की कोशिश हो रही है। क्या इस बात को समझना बहुत मुश्किल है कि यह पिछले 60 साल की बदइंतजामी का नतीजा है कि हमारे शहरों का यह हाल है। हद तब हो गई जब सारे न्यूज चैनलों ने गुरूग्राम में जाम की समस्या पर कांग्रेस के पूर्व मुख्यमंत्री का साक्षात्कार लेना शुरू कर दिया। एक ऐसा व्यक्ति जो समस्या का हिस्सा है, मीडिया उसे समीक्षक बनाकर पेश कर रहा था। क्या एक बार फिर उनसे यह नहीं पूछा जाना चाहिए कि आपने गुरुग्राम का ये क्या हाल कर दिया?
न्यूज चैनलों पर बुनियादी ढांचे और लंबी अवधि के कामों से जुड़ी खबरों पर कमाल की अपरिपक्वता दिखाई जाती है। कई चैनलों ने तो गुरूग्राम जाम के बहाने केंद्र सरकार की स्मार्ट सिटी योजना पर ही फब्तियां कसनी शुरू कर दीं। बुनियादी ढांचे के क्षेत्र में ये काम अगर आज से 30-40 साल पहलेे हो गए होते तो आज क्या हमें ऐसी समस्याओं का सामना करना पड़ता? उधर संसद के मानसून सत्र में अब तक सोते रहने वाले राहुल गांधी ने महंगाई के मुद्दे पर छिछला सा भाषण दिया। उन्होंने बिना किसी तथ्य के सरकार पर दालों में घोटाले का आरोप लगाया। इसके बाद कई चैनलों और अखबारों ने राहुल गांधी के हवालेे से खबर दिखानी शुरू कर दी। वेे चैनल और अखबार भी जो इतने वर्षों में नेशनल हेराल्ड और वाड्रा के जमीन सौदों के लिए 'घोटाला' शब्द इस्तेमाल नहीं कर सके, उन्होंने भी 'दाल घोटाला' लिखना शुरू कर दिया। क्या चैनलों को नहीं चाहिए कि राहुल गांधी और अरविंद केजरीवाल जैसे नेताओं को अब बहुत गंभीरता से लेना बंद करें और उनके लगाए आरोपों को दिखाने से पहले कम से कम सरसरी तौर पर जांच लें?
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