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नीस का संकेत खतरनाक है। मासूमों की जिंदगियों को बेरहमी से लीलने वाले मजहबी उन्मादियों की सोच अब अपने क्रूरतम रूप में सामने आ चुकी है।नासूर बढ़ रहा है, घिनौना हो रहा है
आलोक गोस्वामी
चौ दह जुलाई। फ्रांस। नीस शहर के बेस्टीली नगर का सागरतट। उस रात समन्दर का नीला पानी आसमान में उड़ती आतिशबाजी की रंग-बिरंगी आभा से चमक रहा था। फ्रांस की आजादी का जश्न जो मनाया जा रहा था। शाम गहरा चुकी थी और लोगों का उत्साह आसमान छू रहा था…अचानक सफेद रंग का एक विशाल ट्रक सागरतट पर जश्न मना रही भीड़ की ओर बढ़ चला…शुरू में रफ्तार धीमी थी, पर अचानक रफ्तार बढ़ी और ट्रक यहां से वहां रौंदने लगा। हाहाकार मच गया देखते-देखते। तट से सटी सड़क खून से लाल हो गई….मानव रक्त के परनाले बह निकलेे….इंसानी शरीर के अंग यहां-वहां छितराने लगे…कहीं धड़ तड़प रहा था तो कहीं कटी बाजू या पैर फड़क रहा था….कहीं कोई दुधमुंहा बालक पिस कर सड़क से चिपक गया था…लाशें बिछ गईं पल भर में…डेढ़-दो मिनट में घटा पाशविकता का ऐसा नजारा दुनिया ने पहली बार देखा था। ट्रक ड्राइवर यानी हत्यारा था ट्यूनीशिया मूल का फ्रांसीसी 33 साल का मोहम्मद लाह्वाइज बॉहलेल। मुल्ला दाढ़ी बढ़ाए, छुटभैया अपराधी से बना जिहादी। गोलियों से भेद डाला उसे पुलिस वालों ने…घटनास्थल पर ही।
84 लाशें, 200 से ज्यादा घायल। फ्रांस चीत्कार उठा…गुस्से से तमतमा उठा। और सिर्फ फ्रांस ही नहीं…उपग्रहों के जरिए पूरी दुनिया के लोगों ने टेलीविजन पर जब यह दृश्य देखा होगा तब वे भी नि:संदेह जस के तस खड़े रह गए होंगे…टीवी पर टकटकी लगाए वे दृश्य देखकर अपने बालकों को सीने से चिपटा रहे होंगे…
दुनिया का हर देश हतप्रभ था। पाकिस्तान और सऊदी में जरूर कुछ हलकों में जश्न मनाया गया होगा…पर लगभग सभी देशों के नेताओं ने एक स्वर से इस बर्बर कृत्य की निंदा की, आतंकवाद से दो-दो हाथ में साथ की बात की। फ्रांस के राष्ट्रपति ओलांद विदेश में जारी बैठक छोड़कर स्वदेश लौटे और आतंक को दमदारी से कुचलने का प्रण दोहराया। सहमे फ्रांसवासी अगले दिन घरों से बाहर तो निकले, पर एक-दूसरे पर संदेह था। फ्रांस में मातम पसरा था। 2015 के नवम्बर में पेरिस में गोलियों, बमों और रॉकेट लांचरों से जिहादी दस्ते ने जो हमला बोला था, उसकी टीस गई कहां है अभी। 130 लाशें बिछी थीं उस दिन, 400 गंभीर रूप से घायल हुए थे। हिल गया था फ्रांस। इतिहास में अपने ऊपर हुए उस भीषणतम हमले से। इमरजेंसी घोषित हुई थी, सावधानी बढ़ाई गई थी, फ्रांस 'वार मोड' में आ गया था। पर…! उससे भी पहले, 2015 की जनवरी में शार्ली एब्दो पत्रिका के दफ्तर पर नकाबपोश जिहादियों ने गोलियों से छलनी किया था पत्रिका में काम करने वाले 11 पत्रकारों को, 11 को गंभीर जख्म आए थे। तीखे व्यंग्य चित्रों के लिए मशहूर उस पत्रिका ने अपने पहले पन्ने पर मोहम्मद का व्यंग्य चित्र छाप दिया था…बस। 18 महीनों में सिर्फ फ्रांस में ही घटीं इस्लामी जिहाद की इन तीन बड़ी घटनाओं से दुनिया के आतंक विशेषज्ञ, खबरनवीस हैरान हैं। खासकर तब जब इस बीच फ्लोरिडा, ढाका, सिडनी और यहां तक कि मदरसों में 'दीनी तालीम' को पैसे की भरपाई करने वाले सऊदी अरब में मदीना की मस्जिद पर हमले हो रहे थे। फ्रांस में आतंकी कहर लगातार ढाया जा रहा है। वजह क्या है? कुछ वजहें तो दिन के उजाले सी साफ हैं, जबकि कुछ इतिहास को हल्का, सा बुहारने पर दिखती हैं।
फ्रांस यूरोप में अकेला देश है जिसने अपने यहां स्कूल-कॉलेजों में बुर्के और हिजाब पर पाबंदी लगा रखी है। मस्जिदों पर कड़ी नजर रखी जाती है। मुसमलानों की बड़ी आबादी है वहां। उन अफ्रीकी देशों की बस्तियां हैं जो कभी फ्रांस के उपनिवेश रहे थे। उन लोगों की नई पीढ़ी में उस देश से अलहदगी का एक भाव है, एक आक्रोश है कि उन्हें वे तमाम सहूलियतों हासिल नहीं हैं जो बाकी फ्रांसीसियों को हैं। लिहाजा, नई पौध में उपजता यह गुस्सा जिहादी सोच में खाद-पानी का काम करता रहा है। इजिप्ट, सीरिया और इराक से शरणार्थी बनकर वहां ढेरों लोग पहंुचे हैं, जिनमें वहां के रहन-सहन को लेकर एक तरह की ईर्ष्या बनी रही है। कई एक आपराधिक और आतंकी वारदातों में शरणार्थी युवकों की संलिप्तता पाए जाने के बाद, यूरोप के तमाम शहरों में एक हवा बनी है शरणार्थियों के खिलाफ। खतरा बढ़ता जा रहा है। इस हद तक कि जाने कहां, किस देश में, इराक या सीरिया के से हालात बन जाएं। लोग सड़क चलते दाढ़ी रखे, मुस्लिम लगते लोगों को शक की निगाहों से देख रहे हैं। वे उनसे पूछना चाहते हैं, ''बताओ, तुम पहले फ्रांसीसी, जर्मन, अमेरिकन हो, फिर मुस्लिम या पहले मुस्लिम बाद में कुछ और?'' और यह संदेह सिर्फ अमेरिका और यूरोप में ही नहीं, दुनिया के तमाम सभ्य, इंसानियत-पसंद देशों में बढ़़ता जा रहा है।
फ्रांस में 'लोन वुल्फ' यानी अकेले जिहादी द्वारा भारी-भरकम ट्रक से इतने बड़े पैमाने पर तबाही मचाने की यह नई चाल सिद्धांत रूप में तो काफी वक्त से मुस्लिम उन्मादियों के बीच फैलाई जा रही थी, लेकिन उसको अमल में लाने की यह पहली घिनौनी हरकत थी। जिहादी नारे गुंजाने वाले, मुस्लिम नौजवानों को बरगलाने वाले मुल्ला-मौलवियों, स्वयंभू खलीफाओं ने मदरसों और जुमे की तकरीरों के जरिए। 'गैर-मुसलमानों को जिस चीज से भी मुमकिन हो, नेस्तनाबूद करो' का जहर फैलाना तेज किया है।
बुरहान पर बुक्के फाड़ने वालों की भीड़ सबने देखी ही है। 15 से 25 साल तक के भटके, जहर-बुझी सोच में डूबे लड़के भारतीय सैनिकों पर पत्थर फेंकने के लिए जिस गिलानी के भड़काने पर सड़कों पर उतरे, वे गिलानी खुद घाटी में भारत की रोटी खाते हैं, भारत सरकार के पैसे पर ऐश की जिंदगी जीते हैं, भारतीय अर्द्धसैनिक बलों के सुरक्षा घेरे में महफूज रहते हैं, पर शायद हर जहरबुझी बात बोलने से पहले पाकिस्तानी उच्चायुक्त अब्दुल बासित से मशविरा लेते हैं। फिदायीनों का कहर ऐसे आकाओं की सरपरस्ती में कब, किस जगह टूट पड़े, यह कोई नहीं बता सकता। कोई सुरक्षा इतनी चाक-चौबंद नहीं हो सकती कि फ्रांस में सार्वजनिक आयोजन जैसे भारी भीड़ वाले जलसे-जुलूसों को पूरी हिफाजत दे सके। अंतरराष्ट्रीय मंचों पर सरकारें कितनी भी साझी गुप्तचरी की बात कर लें, पर बात सधेगी तो मुसलमानों में नफरती सोच बदलने से ही। बंगलादेशी लेखिका तसलीमा ने फ्रांस हमले के बाद टिप्पणी की थी-''उदारवादी मुसलमान कहते हैं कि मुस्लिम-आतंकवादी मुस्लिम नहीं हैं। लेकिन फिर वे मारे गए मुस्लिम आतंकवादियों के लिए जनाजे और दफनाने की रस्में क्यों आयोजित करते हैं?'' बात कांटे की है पर 'आलिमों' की तरफ से इस पर कोई जवाब सुनने में नहीं आया। फ्रांस के मशहूर दैनिक 'ली फिगारो' के दक्षिण एशिया प्रमुख रहे वरिष्ठ पत्रकार फ्रास्वां गोतिए की इस बात में दम है कि फ्रांस के ही उदारवादी मुस्लिम यह तो कहते हैं कि 'नीस में हुआ हमला 'गलत' था, 'लेकिन' फ्रांस भी तो अमेरिका के कहे में आ रहा है'। ये 'लेकिन' ही सब फसाद की जड़ है। वे समझदारी की बात करते हैं, पर 'लेकिन' जैसा शब्द उन बद्दिमागों की करनी को हवा देता है। रक्षा विशेषज्ञों को नीस हमले में ट्रक को हथियार बनाए जाने पर हैरानी इसलिए नहीं है क्योंकि आइएस के आका कहते आ रहे थे कि 'चाहे जिससे हो, बड़े पैमाने पर मार होनी चाहिए'। ट्रक का इस्तेमाल करके हत्यारे जिहादी ने उसी सोच पर अमल किया था। मेजर जनरल (सेनि) अफसिर करीम कहते हैं, ''चूक तो कहीं न कहीं सुरक्षा में भी थी। क्योंकि जिस सड़क पर इतनी भीड़ थी, बड़ा जश्न था वह सड़क यातायात के लिए खुली कैसे थी? नीस में ट्रक को ठीक वैसे ही मिसाइल की तरह इस्तेमाल किया गया जैसे 9/11 की घटना में हवाई जहाजों का वर्ल्ड ट्रेड टॉवर उड़ाने के लिए इस्तेमाल किया गया था।'' भारत के संदर्भ में, उनका कहना है कि फ्रांस से सबक लेते हुए भारत को भी उन बस्तियों और इलाकों पर पैनी नजर रखनी चाहिए जहां हिज्बुल मुजाहिदीन, लश्करे तैयबा जैसे गुट लोगों को बरगला रहे हैं। चुपचाप कार्रवाई हो, और जल्दी हो। वे कहते हैं, ''केरल और उत्तर प्रदेश के कई क्षेत्र हैं जो कट्टर मुल्ला-मौलवियों के प्रभाव में हैं। वहां उनसे मिलने वालों पर नजर रखनी होगी।''
पाञ्चजन्य से बात करते हुए मेजर जनरल (सेनि) गगन दीप बख्शी कहते हैं, ''ट्रक से इतनी भीषण तबाही पहली बार देखी गई, लेकिन आश्चर्य नहीं अगर इस तरह गाडि़यों का इस्तेमाल करके और हमले हों। आइएस के जिहादियों में सामने से टक्कर लेने की हिम्मत नहीं है, इसलिए वे ऐसे वार करते हैं। आइएस में हताशा है क्योंकि उसके कब्जे वाला 45 प्रतिशत हिस्सा उसके हाथ से निकल चुका है। सीरिया और इराक की फौजों ने उसे बांधा हुआ है। इंटरनेट और सोशल साइट्स से वे जहर फैलाकर लड़कों को फुसला रहे हैं क्योंकि उनके पास ज्यादा लड़ाके नहीं हैं। जिहादी आइएस गज्वा-ए-हिन्द को मुकम्मल देखना चाहते हैं और इसलिए खुरासान से लड़ाई भारत में आएगी। लेकिन भारत को इस जिहाद को कुचलने के लिए हर पल तैयार रहना होगा।''
इस दहशत और दरिंदगी का खात्मा कैसे होगा? हर आतंकी घटना के बाद हर दिमाग में उठने वाला यह सवाल अगली घटना होने तक जवाब का इंतजार करता है। पर जवाब इसलिए सामने आने से कतराता रहता है क्योंकि सभ्य समाज में ही ऐसे 'हमदर्द' छुपे हुए हैं जो हर जिहादी हमले के बाद 'आतंकियों के किसी मजहब के न होने', उनसे सख्ती से न पेश आने और 'वह तो गलत हुआ लेकिन…' जैसे जुमले उछालने लगते हैं…मंचीय बहसों में, अंतरराष्ट्रीय सेमिनारों में, मीडिया में और विश्वविद्यालयों में।
नासूर का इलाज नश्तर से ही हो सकता है…फिर चाहे वह नासूर बगदाद में हो, सीरिया, नीस, ढाका, सिडनी, लंदन, कश्मीर, या फिर आतंकी 'तालीमों' की आर्थिक भरपाई करने वाले सऊदी अरब के मदीना में ही क्यों न हो।
सच को समझे मुस्लिम समाज
फ्रास्वां गोतिए
फ्रांस, यू. के. या भारत में आ बसे मुसलमान उसी हाथ को काट रहे हैं जो उन्हें खिला रहा है, क्योंकि इन देशों ने उन्हें वही हक दिए हैं जो बाकी नागरिकों के हैं
सैमुअल हंटिंग्टन का कहना सही है: आज सभ्यताओं में संघर्ष चल रहा है, एक तरफ है इस्लाम और दूसरी तरफ मुक्त विश्व, जिसका भारत एक अहम हिस्सा है क्योंकि इसकी सभ्यता न केवल प्राचीनतम है, बल्कि इसने सदियों तक बेहद खूंखार इस्लामी हमले झेले हैं। नीस (फ्रांस) हमले को इसी के प्रकाश में देखा जाना चाहिए जिसमें 84 लोग मारे गए हैं। इससे तीन बातें साबित होती हैं: 1. कि इस्लामी आतंकवादियों के लिए कोई भी चीज हथियार का काम कर सकती है और, कि जिहादी लोगों को मारने की लगातार नई तरकीबें खोज रहे हैं। 2. कि इस तरह के हमले में सबकी हिफाजत करना लगभग नामुमकिन है। इसके मायने हैं कि, इस्लामी आतंक के चलते हम और ज्यादा सुरक्षा में घिरी दुनिया में रहने को विवश होकर, ज्यादा से ज्यादा परेशानी भुगतेंगे, न सिर्फ हवाई अड्डों पर, बल्कि मॉल, रेलवे स्टेशनों और यहां तक कि सार्वजनिक आयोजनों आदि में भी। 3. और कि समस्या कुरान में है : वह आदमी (नीस घटना का हत्यारा) मजहबी नहीं था, न पीता था, न महिलाओं का संग करता था, पर उसने चंद दिनों में ही हाजियों से गूगल के जरिए प्रेरणा ले ली, कि 'ज्यादा से ज्यादा काफिरों को मारो।'
इससे निष्कर्ष निकलता है कि समस्या जिहादियों की कम है-वक्त के साथ, हिटलर की तरह, वे भी लड़ाई हारेंगे, क्योंकि वे सारे लोकतांत्रिक जगत से लोहा नहीं ले सकते-समस्या हैं, चुप रहने वाले बहुसंख्यक मुसलमान, जो हर बम धमाके के बाद कहते हैं, ''हां, लेकिन..''। समस्या की जड़ इस 'लेकिन' में है। नीस में यही दिखा, हमले पर पढ़े-लिखे फ्रांसीसी मुसलमानों की प्रतिक्रियाओं में, जिनमें फ्रांसीसी मुस्लिम फुटबॉल खिलाड़ी, फ्रांसीसी मुस्लिम लेखक, गायक थे, और बेशक, फ्रांस के मीडिया ने उनको खूब कवरेज दी-''हां, हम हिंसा की भर्त्सना करते हैं, 'लेकिन' राष्ट्रपति ओलांद अमेरिका का समर्थन कर रहे हैं।'' ''हां, मोहम्मद लाह्वाइज बॉहलेल एक भटका मुसलमान था, 'लेकिन' फिलिस्तीन, चेचन्या, कश्मीर में मुसलमानों पर अत्याचार हो रहा है।'' ''हां, पेरिस और नीस हमले गलत थे, 'लेकिन' ये इसलिए होते हैं क्योंकि फ्रांस के मुस्लिम गरीब हैं और सरकार उनकी अनदेखी करती है।'' ये पूरी तरह तर्क से परे बातें हैं, क्योंकि इसके मायने हैं कि, 'आप गरीब हैं, तो बम फोड़ने, हत्याएं करने, मारने और बलात्कार करने में कुछ गलत नहीं है।' सवाल है कि क्या इस्लाम खुद को कन्वर्ट करेगा? क्योंकि समस्या मुसलमानों में नहीं, कुरान में है। क्या यह समाज खामख्याली में बने रहने (कि, इस्लाम हर जगह खतरे में है, चाहे वह फिलिस्तीन हो, चेचन्या, कश्मीर या फ्रांस हो) की बजाय यह समझेगा कि असल में पूरी दुनिया में इस्लाम खुद आक्रामक है, कि फ्रांस, यू. के. या भारत में आ बसे मुसलमान उसी हाथ को काट रहे हैं जो उन्हें खिला रहा है, क्योंकि इन देशों ने उन्हें नागरिकता दी है, वही हक दिए हैं जो अपने तमाम नागरिकों को दिए हैं? क्या इस्लाम के मुल्ला कुरान में सुधार करना स्वीकार करेंगे?
हम सब इसी की उम्मीद बांधे बैठे हैं। यही पश्चिम के ज्यादातर नेता भीतर ही भीतर चाहते हैं, जब वे तय रास्ते से अलग जाते हुए अपने देशों के उदार मुसलमानों की तारीफ करते हैं। मुस्लिम नेताओं से बात करके, मुस्लिम देशों से रिश्ते कायम करके या ध्यान के जरिए कश्मीरी आतंकवादियों को सुधार कर श्री श्री रविशंकर कुछ हद तक सफलता के साथ यही तो करने की कोशिश कर रहे हैं।
दुर्भाग्य से, वक्त बीतता जा रहा है। फ्रांस, भारत या और देशों के मुसलमान यह नहीं समझ रहे हैं कि वे धीरे-धीरे उतने मासूम नहीं समझे जा रहे हैं। अभी तो इस्लाम को मीडिया से हमदर्दी मिल रही है, जो बराबर इस्लामी कट्टरवाद से इनकार करते हुए उस बुरहान वानी जैसों को हीरो बनाता है, जो हाल में कश्मीर में मारा गया था। वहां लोग बच्चों को भारतीय सेना पर पत्थर मारने को उकसा रहे थे, उसे खलनायक के तौर पर पेश कर रहे थे, जो कि बस उस हिंसक उपद्रव को रोकने गई थी जिसने 4 लाख हिन्दुओं को उनकी पुश्तैनी धरती, घरों को छोड़कर जाने को मजबूर कर दिया था। लेकिन आज मुसलमान उस हदमर्दी को भी खो रहे हैं। वक्त आ रहा है, जब पूरी दुनिया इस्लाम के खिलाफ जंग छेड़ेगी, यूरोप से चीन तक, रूस से पाकिस्तान तक। कहीं ऐसा वक्त न आए, जब हर कोई इस्लाम से जुड़ी हर चीज पर शक करने लगे। जो भी मुस्लिम जैसा दिखे उसे संदेह की निगाहों से देखे। मुस्लिम नाम होने पर किसी देश में जाने में दिक्कत आए। नीस में जो आतंक दिखा कश्मीर के हिन्दुओं ने उससे हजार गुना ज्यादा आतंक झेला है।
पिछली 15 सदियों में हिन्दू अब तक के सबसे बड़े और रक्तरंजित इस्लामी आतंक के शिकार हुए हैं।
(लेखक फ्रांस के दैनिक 'ली फिगारो' के
दक्षिण एशिया प्रमुख रहे हैं और भारतीय इतिहास के गहन अध्येता हैं)
फ्रांस से सबक लेते हुए भारत को भी उन बस्तियों और इलाकों पर पैनी नजर रखनी चाहिए जहां हिज्बुल मुजाहिदीन, लश्करे तैयबा जैसे गुट लोगों को बरगला रहे हैं।
-मेजर जनरल (सेनि) अफसिर करीम
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