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बाल चौपाल / क्रांति-गाथा-12
पाञ्चजन्य ने सन् 1968 में क्रांतिकारियों पर केन्द्रित चार विशेषांकों की शंृखला प्रकाशित की थी। दिवंगत श्री वचनेश त्रिपाठी के संपादन में निकले इन अंकों में देशभर के क्रांतिकारियों की शौर्यगाथाएं थीं। पाञ्चजन्य पाठकों के लिए इन क्रांतिकारियों की शौर्यगाथाओं को नियमित रूप से प्रकाशित करेगा ताकि लोग इनके बारे में जान सकें। प्रस्तुत है 29 अप्रैल ,1968 के अंक में प्रकाशित क्रांतिकारी रहे अमीरचन्द बम्बवाल का आलेख:-
ल्ल अमीरचन्द बम्बवाल
राजा महेन्द्रप्रताप जी के साथ मेरे संबंध बहुत पुराने हैं किन्तु वे अप्रकट रहे हैं। वे 20 दिसम्बर 1914 में हिन्दुस्तान से गुप्तरीति से निकल गए थे। 1915 में जर्मन सम्राट कैसर का पत्र लेकर अफगानिस्तान गए थे, ताकि तत्कालीन अमीर हबीबुल्ला खां को अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध करने पर तत्पर करें। उन्हें अपने इस उद्देश्य में सफलता नहीं मिली, क्योंकि हबीबुल्ला खां अंग्रेजों के मायाजाल में बहुत फंसा हुआ था। अलबत्ता अमीर का भाई सरदार नसरुल्ला खां वजीरे आजम उनका बहुत सहायक सिद्ध हुआ। अफगानिस्तान की राजधानी काबुल में राजा महेन्द्रप्रताप जी का जन्म दिन 1 दिसम्बर 1915 को मनाया गया। उसी दिन वहां सबसे पहली अस्थायी आजाद हिन्द सरकार की नींव रखी गयी। राजा साहब को उस अस्थायी आजाद हिन्द सरकार का प्रधान चुना गया। भोपाल के डा. बरकतुल्लाह प्रधानमंत्री और मौलाना उबेदुल्लाह गृहमंत्री बनाये गए। साल डेढ़ साल बाद पेशावर के सैयद अली अब्बास बुखारी भी अंग्रेजों की नजर बचाकर उनके साथ जा मिले।
सैय्यद बुखारी
सैय्यद बुखारी पेशावर के रहने वाले थे। पं. रामचन्द्र भारद्वाज के बचपन के मित्र थे। पिता ने उन्हें बैरिस्टर बनने के लिए इंगलैंड भेजा था। वहां वे शमजी कृष्ण वर्मा के शिष्यों से मेल-मिलाप के कारण क्रांतिकारी विचारों से प्रभावित हो, पढ़ाई छोड़कर हिन्दुस्तान वापस आ गए। रास्ते में मिस्र में तुर्क और मिस्री स्वतंत्रता-प्रेमियों से भेंट हो गईऔर वे अंग्रेजी साम्राज्य को संसार भर के मुसलमानों का सबसे बड़ा शत्रु समझकर विश्व-इस्लामिक आंदोलन में सम्मिलित हो गए। भारत पहुंचकर वे डॉक्टर अंसारी के डॉक्टरी सहायता शिष्टमंडल में शामिल हो गए तथा उनके साथ ही तुर्कों की सहायतार्थ टर्की पहुंचे। वापसी पर अंजुमन-ए-खुदा में काबा के स्थायी सदस्य बन गए।
जब मैं गुप्त प्रतिनिधि था
1914 में जब अली-भाइयों को भारत सुरक्षा अधिनियम के अंगर्तत नजरबंद किया गया तो बुखारी साहब को भी नजरबंद कर दिया गया। 1916 में अपने रिश्तेदारों के प्रयत्न से वे रिहा हुए, तो पहले वे कबायली क्षेत्रों में चले गए और वहां से काबुल जाकर अस्थायी आजाद हिन्द सरकार में शामिल हुए। वे और मैं पास-पास नगर के एक ही भाग में रहते थे। मेरे बड़े मित्र थे। जब मैं दिसम्बर, 1914 में पेशावर के विद्रोह के अभियोग में फंसा तो वे मेरे बहुत हितचिंतक बन गए थे। कामचलाऊ सरकार में उनके सम्मिलित होते ही मुझे पेशावर में भारत के लिए गुप्त प्रतिनिधि नियुक्त किया गया। इस तरह अस्थायी आजाद हिन्द सरकार के प्रधान होने के कारण राजा महेन्द्रप्रताप जो मेरे भी सबसे बड़े अधिकारी बन गए थे। वह भी एक अद्भुत समय था।
राजा महेन्द्रप्रताप की आजाद हिन्द सरकार की उस जमाने की गतिविधियों का अनुमान आप निम्नलिखित घटनाओं से लगा सकते हैं।
अफगानिस्तान में अमीर के भाई सरकार नसरुल्ला खां (प्रधानमंत्री) और राजकुमार अमानुल्लाह खां अंग्रेजों के बहुत विरोधी थे तथा भारत के बहुत बड़े मित्र थे, वे राजा जी की आजाद हिन्द सरकार के हितैषी और सहायक थे।
अंग्रेज छावनियों पर हमले
1917 में भारत को स्वतंत्र कराने के लिए बारह हजार कबायली वीरों की एक स्थायी सेना तैयार की गई। सेना के पृथक उत्तर से दक्षिण तक विस्तृत सारे कबाइली क्षेत्र में फैल गए और स्थानीय अंग्रेज-शत्रुओं की सहायता से सीमा की अंग्रेज चौकियों और छावनियों पर हमले शुरू कर दिए।
डा. खानखोजे ने हल्ला बोला
गदर पार्टी के डॉक्टर पाण्डुरंग खानखोजे ने अमरीका से आकर बिलोचिस्तान की सीमा पर ईरान की तरफ से हल्ला बोल दिया। अंग्रेज सरकार इससे बहुत परेशान हुई और स्थान-स्थान पर अंग्रेज सरकार के किराए के सैनिकों से बड़ी-बड़ी घमासान लड़ाइयां हुईं। हिन्दुस्तान में विप्लव के प्रयत्न विफल हो चुके थे, किंतु हमारा अभिमत था कि अवसर मिलने पर भारतीय सेनाएं हमारा साथ देंगी। मगर परिणाम उल्टा ही निकला। अंग्रेजों की चालें भी बहुत घातक थीं। अंतत: भारत को मुक्त कराने का यह प्रयास सफल न हो सका।
बेटे का विश्वासघात
टांक, जिला डेरा इस्माइल खां के नवाब कासिम खां हमारे हितैषी थे। संपूर्ण हृदय से कबाइली मुल्लाओं और प्राणों की परवाह न करने वाले मुक्तिवीरों की सहायता करते थे। उनका बेटा कुतुबुद्दीन खां पिता से विश्वासघात कर भेदिया बन गया और एक चिट्ठी पकड़कर डिप्टी कमिश्नर के हवाले कर दी। नवाब कासिम खां बेचारे बंदी होकर बंगाल के रेगुलेशन (3), 1818 के अंतर्गत उटकमंउ में नजरबंद कर दिए गए। विश्वासघाती बेटा गद्दी पर बैठा और नवाब साहब आयु की अंतिम श्वास तक जन्मभूमि से निष्कासित और नजरबंद रहे। मौलाना मोहम्मद अली ने नवाब साहब के पक्ष में बहुत कुछ लिखा, मगर नवाब को टांक देखने का फिर सौभाग्य न मिला। इम्पीरियल लेजिस्लेटिव असेम्बली में प्रश्न भी हुए मगर कुछ बना नहीं। नवाब साहब को अंग्रेजी सरकार का विरोधी बनाने में मेरे एक मित्र टहलराम गुंगाराम का बड़ा हाथ था।
एक अंग्रेज अफसर ने किसी से कहा कि नवाब कुत्ता है, जो सरकार के विरुद्ध बक-बक करता रहता है। उसने अपने भौंकते हुए कुत्ते की तरफ इशारा करके कहा कि यही नवाब है। जब नवाब को इस बात का पता चला तो उसने अपने कुत्तों का नाम अंग्रेज अफसरों के नामों पर रख दिया। कुत्ते थोड़े थे और अंग्रेज अफसर बहुत ज्यादा, इसलिए उसने बहुत से और कुत्ते खरीदे ताकि सब अफसरों के नाम पूरे हो जाएं।
तलाशियों का दौर
जिला बन्नू के एक गांव के नम्बरदार और जमींदार खान मोहम्मद अकरम खां ने आजाद हिंद सरकार के सैनिमों की बहुत सहायता की थी और अंतत: स्वाधीनता की खुली घोषणा कर दी थी। भारतीय दण्ड विधान की धारा 120, 121 और 124 के अनुसार अभियोग चलाकर उसे 14 वर्ष की कड़ी सजा दी गई और संपत्ति जब्त कर ली गई। सैयद अली अब्बास बुखारी का एक पत्र किसी की तलाशी में पकड़ा गया। यह पेशावर के अमीर खान के नाम था। उस पत्र का अर्थ सीआईडी की समझ में नहीं आया, मगर यह समझ लिया गया कि वास्तव में यह पत्र मेरे नाम है। इस पर अध्यादेश नियम की धारा 36 के अंतर्गत सीमा प्रांत से तुरंत निकल जाने का आदेश दे दिया गया। मेरे घर की दिन-रात में दो-दो, तीन-तीन बार तलाशियां ली जाने लगीं। मुझे लगभग दो साल तक अपने प्रांत में नहीं आने दिया गया। यह सब केवल संदेह में हुआ, क्योंकि मैं पं. रामचंद्र भारद्वाज के बताए हुए तरीकों से बड़ी सावधानी से काम करता था। मेरी दस हजार रुपए की नेकचलनी की जमानत हो चुकी थी। इसलिए मैं किसी से प्रकट रूप में मिलता भी न था। मगर सब काम ठीक चलते रहते थे।
गदर अखबर के पोस्टमास्टर के रूप में
1914 में जबकि मैं 'गदर' संवादपत्र के पोस्टमास्टर का काम करता था, वह भी इस सीमा तक सावधानी से हुआ कि अंग्रेज सरकार को मुझ पर कभी संदेह तक नहीं हो सका। जब कभी गिरफ्तार हुआ तो और आरोप लगाए गए, मगर वास्तविकता सदैव छुपी रही। यह सब ईश्वर की कृपा थी। मुझसे भी अधिक संकटपूर्ण कार्य करने वाले देशसेवकों का अंग्रेज सरकार को कभी ज्ञान भी न हो सका। मौलवी अब्दुल्लाह मेरे बहुत घनिष्ठ और वीर मित्र थे। सब डाक और हथियार आदि वही लाया करते थे।
कैसे-कैसे मित्र थे!
मुझे जब सीमाप्रांत से निकाल दिया गया तो मैं फिर भी वेष बदल कर कभी-कभी आवश्यकता पड़ने पर चक्कर लगा जाया करता था। भाई अब्दुल्लाह कहा करते थे कि मैं सुलेमानी टोपी पहन लेता हूं, जिससे कि मैं तो सबको देखा करूं और मुझे कोई न देख सके। कैसे-कैसे क्रांतिकारी मित्र थे उस समय में। अब्दुल्लाह भाई को जब गिरफ्तार किया जाने लगा तो वे पुलिस को बेवकूफ बनाकर कबाइली क्षेत्र को भाग गये और वहां से अफगानिस्तान, ईरान और अरब पहुंच गये। उन्हें अपनी जिंदगी में अपने प्यारे हिन्दुस्तान को स्वतंत्र देखने का सौभाग्य नहीं मिला।
अनुशीलन दल के नेता सीमाप्रांत में
राजा महेन्द्रप्रताप जी की आजाद हिन्द सरकार का एक और ऐतिहासिक कार्य मई, 1919 में ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध अफगानिस्तान का युद्ध था। अंग्रेजों के मित्र अमीर हबीबुल्लाह 20 फरवरी, 1919 को कत्ल कर दिए गये और शाहजादा अमानुल्लाह राजगद्दी पर बैठे। राजा महेन्द्रद्रप्रताप उन दिनों काबुल में नहीं थे। नौजवान अमीर अंग्रेजों का शत्रु और आजाद हिन्द सरकार का हितैषी और संरक्षक था। जब महात्मा गांधी ने हिन्दुस्तान में रोलट बिल के विरुद्ध आंदोलन चलाया तो यह समझ गया कि वह भी क्रांतिकारियों के साथी हैं। जब भारत में क्रांति प्रारंभ हुई तो हम भी पीछे रहने वाले नहीं थे। बंगाल की अनुशीलन समिति के एक पुराने कार्यकर्ता चारुचंद्र घोष को नेता बनाकर सीमाप्रांत में भी 6 अप्रैल को अपने विचार के अनुसार सत्याग्रह का डंका बजा दिया गया। थोड़े समय के बाद ही, हिन्दुस्तान के अनेक भागों में विप्लव ओर उसे दबाने के लिए सरकारी अत्याचार और दमन के समाचार आने लगे।
एक और कोशिश
जब पंजाब में सैनिक शासन और जलियांबाला बाग के कत्लेआम के समाचार आए, तो हमने लोगों में विप्लव की आग खूब भड़कायी। पेशावर में अफगानिस्तान के पोस्टमास्टर सरदार गुलाम हैदर खां मेरे बड़े मित्र थे, वे सदा से भारत की स्वतंत्रता के आंदोलन के साथ रुचि और सहानुभूति रखते थे। काबुल की (प्रोविजनल गवर्नमेंट ऑफ इंडिया) भारत सरकार के मौलाना उबेदुल्लाह के साथ भी उनके घनिष्ठ संबंध थे। अपनी राष्ट्रीय सरकार के साथ पत्र-व्यवहार का हमारा अपना प्रबंध था। एकाएक काबुल से सरदार गुलाम हैदर के माध्यम से भी चिट्ठयां आने लगीं और सूृचित किया गया कि उनके साथ दिल खोल कर बातें की जा सकती हैं। इसलिए वे हमारे विश्वासपात्र बन गये। जब अमीर अमानुल्लाह खां ने अंग्रेजी साम्राज्य के विरुद्ध युद्ध करने का विचार किया और योजना तैयार की तो उसमें आजाद हिंद हुकूमत के नेताओं का परामर्श और सहयोग पूरी तरह से था। 4 मई को 4 मोर्चों पर चार तरफ से युद्ध शुरू हुआ। प्रत्येक युद्ध के मोहरे पर हमारे साथी मौजूद थे। पेशावर में 7 मई का दिन विप्लव के लिए निर्धारित था। उस दिन जेलखाने तोड़ना और रेल की पटरियों व तार के खंभों को अटक से अमरोद तक उखाड़ना था। मोविलाइजेशन गोदाम पर अधिकार करना और छावनी पर हमला करना था। हमने अपनी आजाद हिन्द सरकार के भित्ति पत्र (पोस्टर) नगर में लगा दिये कि भारत को अंग्रेजों की पराधीनता से मुक्ति दिलाने और जलियांवाला बाग का बदला लेने वाले आ रहे हैं। मगर दु:ख है कि सरदार गुलाम हैदर खां का एक पत्र राजनीतिक अफसरों के हाथ लग गया और अंग्रेजी फौजों ने शहर का घेरा डाल कर हमारे बहुत से कार्यकर्ता को गिरफ्तार कर लिए। मैं एक साथी के साथ पंजाब की तरफ निकला, ताकि रावलपिण्डी वाले साथियों को खबर दूं, मगर गिरफ्तार हो गया। सरदार गुलाम हैदर खां और सरदार फकीर मोहम्मद खां आदि भी पकड़े गये। चार मोर्चों में से तीन पर सफलता मिली। हर जगह आक्रमण में पहल की गई और अंग्रेजों की पराजय हुई। किन्तु खैबर के पार अफगान सेनापति सालिह मुहम्मद खां की मूर्खता से अंग्रेजों का पलड़ा भारी रहा। सेनापति नादिर खां ने तो जिला कोहाट का बहुत-सा क्षेत्र अपने अधिकार में कर लिया था। हर स्थान पर स्थानीय लोगों ने भारत को स्वतंत्र कराने वाली सेना का स्वागत किया। मिलिशिया और दूसरी कबायली सेनाओं ने अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया, किंतु भारतीय सैनिक अपना बचन पूरा न कर सके। आशा थी कि भारत में भी विप्लव हो जाएगा, पर ऐसा नहीं हुआ। इस प्रकार राजा महेन्द्रप्रताप जी की सबसे पहली आजाद हिन्द सरकार अपने उद्देश्य में दूसरी बार असफल हुई। अलबत्ता 1915 में जो बीच बोया गया, यह अंतत: अपना फल लाया।
जब रूस के जार का खात्मा हो गया
सन् 1919 में पेशावर में रौलट बिल के सिलसिले में विप्लव फैलाने और अस्थायी भारत सरकार का काम नियमित रूप में चलाने के लिए एक कार्यसमिति बनायी गयी थी, जिसका नाम 'अंजुमन-ए-इत्तिहाद व तरक्की-ए-हिन्द' रखा गया था। यह बिल्कुल तुर्कों की गुप्त क्रांतिकारी समिति के नाम ९स मिलता-जुलता था। तुर्कों की यह नकल हमने प्रसिद्ध तुर्क सेनापति गाजी अनवर पाशा का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने के लिए की थी। पहले विश्व महायुद्ध में जर्मनी और तुर्की की हार हो जाने के कारण तुर्की राज्य समाप्तप्राय: हो गया था। जब 1917 की रूसी क्रांति में रूस के जार का खात्मा हो गया तो सेनापति अनवर पाशा रूसी तुर्किस्तान के मुसलमान कबीलों को मिलाकर वहां अपना शासन स्थापित करने का प्रयत्न करने लगे। हमने अफरीदी सूबेदार मीरदस्त खां को उनके पास भेजा कि वह अंग्रेजी साम्राज्य को समाप्त करने में सहायता देने के लिए भारत की सीमा के कबायली क्षेत्रों में आ जाएं क्योंकि सीमांत के सब कबायली अस्थायी भारत सरकार के साथ थे। खेद है कि वह इधर आने को तैयार न हो सके और बोलशेविकों के विरुद्ध लड़ते हुए वहीं मारे गए। अगर वह हमारा प्रस्ताव मान जाते तो 1919 में ही भारत से अंग्रेज भागने पर विवश किए जा सकते थे। सीमा के कबीलों में उनका इतना सम्मान और प्रतिष्ठा थी कि वह उनके झण्डे तले जमा होकर प्रत्येक संभव बलिदान करने को तत्पर थे क्योंकि वह तो पहले ही स्वतंत्रता के युद्ध में सम्मिलित हो चुके थे। सूबेदार मीरदस्त खान अफ्रीदी भारत की अंग्रेजी सरकार की सेना में थे। जब 1914 में पहला विश्वयुद्ध प्रारंभ हुआ तो उनकी सेना उन पहली सेनाओं में शामिल थी जिन्होंने फ्रांस में जाकर जर्मन आक्रमण रोका था। सूबेदार मीरदस्त खां अफ्रीदी को उस युद्ध में वीरता दिखाने पर अंग्रेजी सामा्रज्य में सर्वप्रथम 'विजय चक्र' (विक्टोरिया-क्रॉस) मिला था। किन्तु अपने देश की स्वतंत्रता की पुकार पर वह भाग कर जर्मन सेनाओं से आ मिले और अस्थायी आजाद हिन्द सरकार के अधीन कार्य करने लगे थे।
जहां खुदीराम की चिंता चली थी
अस्तु, डा. घोष कांग्रेस के नाम ेस कार्य करते थे। वे 1917 में बिहार में महात्मा गांधी से मिल चुके थे। वे प्रतिवर्ष कलकत्ता जाते हुए मुजफ्फरपुर में उस जगह फूलों के हार रखते िो, जहां 30 अप्रैल, 1908 को खुदीराम बोस के साथी प्रफुल्ल चाकी ने पुलिस के हाथों गिरफ्तार होने से बचने के लिए खुद को गोली मार ली थी। 1917 में वह इसी क्षेत्र में गांधीजी से मिले और बहुत हद तक उनके सिद्धांतों को समझने की कोशिश करते रहे। इसीलिए तो हम उसे सीमाप्रांत में महात्मा गांधी का सबसे पहला चेला कहा करते थे। मैं तो गांधीजी का भक्त उस समय बना जब गिरफ्तार होकर वर्मा के लिए देशनिकाला कर दिया गया।
विभाजन की ठेस
यूनिटी एण्ड प्रोग्रेस ऑफ इंडिया कमेटी (भारतीय एकता एवं प्रगति समिति) के प्रधान अब्दुल वली खां थे। वह भी त्राबलस के युद्ध के दिनों में डॉक्टर अंसारी के मेडिकल मिशन में शामिल होकर तुर्की गए थे। 1919 में ये पुलिस के हाथ नहीं आए और भागकर काबुल चले गए थे। वहां अमीर अमानुल्लाह खां ने उन पर संदेह किया, इस पर वे दूसरे रास्ते से यूरोप चले गए। जब भारत स्वतंत्र हुआ, उस समय वे मिस्र में थे। 1946 में अंतरिम सरकार बनी तो मुझे उनका एक पत्र मिला था कि वे मिस्र में भारत का प्रतिनिधित्व करना चाहते हैं। मैंने उस पत्र के बारे में डॉक्टर खां साहब को बताया था। उन्होंने कहा था कि अंग्रेज अब जाने वाले हैं, उनके चले जाने के बाद परामर्श किया जाएगा। किंतु खेद है कि देश स्वतंत्र होने के साथ विभाजन की विभीषिका भी आ गयी। काजी अब्दुल वली खां अभी पांच वर्ष पूर्व पेशावर पहुंचे, किंतु चंद महीने बाद ही हमेशा के लिए चल बसे। 43 साल की तपस्या का परिणाम देश के विभाजन के रूप में देखकर वास्तव में उन्हें भारी ठेस पहुंची होगी।
पाकिस्तान की जेल में
काबुल भाग जाने वाले एक बहुत ही भव्य और वीर साथी हकीम मोहम्मद असलम खां संतरी थे। महान देशभक्त और सच्चे क्रांतिकारी आजकल पाकिस्तान की जेल में पड़े हैं। काबुल में भी अमीर अमानुल्लाह खां के बाद 17 साल अपने भाइयों सहित जेल में रहे। 1947 में अंग्रेजी शासन समाप्त होने के बाद पेशावर पहुंचे, और उन्हें पख्तूनिस्तान आंदोलन का समर्थक होने के आरोप में जेल में डाल दिया गया। कई साल से मुझे उनका कोई पत्र नहीं मिला। इससे मैं समझता हूं कि सैकड़ों पठानों की तरह वे भी जेल में सड़ रहे हैं। पेशावर के अखबार बड़े ध्यान से पढ़ता हूं पर उनके विषय में बिल्कुल पता नहीं चलता, हमारा कर्तव्य है कि हम इन वीर पठानों की याद को न केवल ताजा रखें बल्कि इस बनावटी विभाजन की परवाह किए बिना उन्हें हर तरह से सहायता दें कि वे स्वतंत्र हो सकें।
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