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पाञ्चजन्य ने सन् 1968 में क्रांतिकारियों पर केन्द्रित चार विशेषांकों की शंृखला प्रकाशित की थी। दिवंगत श्री वचनेश त्रिपाठी के संपादन में निकले इन अंकों में देशभर के क्रांतिकारियों की शौर्यगाथाएं थीं। पाञ्चजन्य पाठकों के लिए इन क्रांतिकारियों की शौर्यगाथाओं को नियमित रूप से प्रकाशित करेगा ताकि लोग इनके बारे में जान सकें। प्रस्तुत है 29 अप्रैल ,1968 के अंक में प्रकाशित क्रांतिकारी रहे रवीन्द्र मोहन कर का आलेख:-
ल्ल रवीन्द्र मोहन कर
शचीनदा! मेरी चिट्ठी आपके पास पहुंच गयी है एवं आपका लिखा हुआ उत्तर भी मेरे हाथ में आ गया है, यह वास्तविक तथ्य है, यह सोचने मात्र से मेरा मन आनंदविभोर हो उठता है। जीवन में जो कुछ सच्ची घटनाएं घटा करती हैं, उनमें आनंद नाम की वस्तु बहुत कम है, इसीलिए यह बहुत अप्रत्याशित-सा लग रहा है। आपने अपने पत्र में पारिवारिक परिस्थिति के साथ अपने लोगों को व्यवस्थित कर पाने की समस्या की बात लिखी है- मैं समझता हूं कि बंगाल प्रांत में इस कठिन प्रश्न की गहराई कहीं ज्यादा है।
बेकारी और बुभुक्षा की आग में
मैं अपनी हालत ही बता रहा हूं। जेल से छूटकर मैं आकर एकदम मानों तपते तवे से आग में गिरा- इस तरह जेल के बाहर बिल्कुल अपरिचित कलकत्ता शहर की सड़क पर आकर खड़ा हुआ। इन सड़कों पर घूमते-घामते, भोजन ठीक से मिले, या न मिले, जीवन में बहुतेरे कड़वे अनुभव बटोरे हैं मैंने। जगती के आंगन में बहुत सारी वस्तुओं से मेरा स्वभाव मेल नहीं खाता है, परंतु भूख की मांग से निस्तार भी नहीं मिलता। यह मांग कितनी कठोर, कितनी निर्मम है, यह वही लोग जानते हैं जो आहार से वंचित हैं, और उनसे भी ज्यादा जानते हैं वे लोग, जो जीवन से भी प्रिय जीवनादर्श से पथभ्रष्ट होकर, अपने को नीचे गिराकर भोजन-संस्थान को प्राप्त करना ही जीवन का प्रधान धर्म मानने को बाध्य हुए हैं। इस स्थिति के साथ पहले-पहल मैं अपने को समायोजित नहीं कर पा रहा था, इसलिए मुक्त होने का साधन रहने पर भी दु:ख-कष्ट से अलग नहीं हो सका था।
पुन: सड़क पर आ खड़ा हुआ
आखिरकार एक नौकरी मिली। परंतु जब मुझे मालूम हुआ कि एक आदमी ने बीमारी के कारण पन्द्रह दिन की छुट्टी ली थी और इस अवस्था में उसकी जगह पर मैं भर्ती कर लिया गया हूं- तब मेरा नौकरी करना संभव नहीं हुआ। नौकरी छोड़कर फिर से सड़क पर आकर खड़ा हो गया- एक ही यंत्र द्वारा पीसे हुए बेकार लोगों को दैनन्दिन जीवनयापन की कर्मधारा में समानता देखकर अनेक दु:खों में भी हंसी आती थी।
चिंता की अग्नि से…
कलकत्ता शहर में बेकारों के लिए रात काटने की समस्या एक बड़ी समस्या है। साधारण बुद्धि से लोग यह समझ लेते हैं कि जब अपने रहने के लिए किसी छत के नीचे कोई जगह नहीं है, तब उन्मुक्त आकाश के नीचे रहने का हमें अधिकार है, परंतु पुलिस कानून की व्याख्या दूसरे ढंग से किया करती है। जिनका रात को रहने का कोई ठिकाना नहीं, खासकर जिनकी वेशभूषा भद्रलोक जैसी है वे लोग पुलिस द्वारा अपमानित होते हैं। मुझको भी काफी दिनों तक ऐसी समस्या का सामना करना पड़ा है। एक दिन निश्चय किया कि नीमतला (श्मशान) घाट में रहेंगे और जाड़े के कपड़ों का जो अभाव है चिंता की अग्नि से उसकी पूर्ति करेंगे।
उसी नीरव श्मशान में
शमशानयात्रियों के लिए संगमरमर के बने हुए बैठने के संकीर्ण स्थान पर लेटे-लेटे मैं सोच रहा था- वाह! बड़ी अच्छी जगह है, गरम भी है। घरबारविहीन बेकार लोगों के रात काटने के लिए उपयुक्त स्थान है लकिन है यहां बदबू। उससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। वहीं नजर पड़ी कि अर्द्धशायित अवस्था में एक भद्रपुरुष ने एक बीड़ी फूंककर करीब-करीब खत्म कर ली है। देखते ही समझ में आ गया कि शायद हैं हम दोनों एक ही रास्ते के पथिक। पैर में वही सस्ती कीमत के बाटा कंपनी के जूते, फटेहाल होने पर भी धोती-कुर्ते में साफ-सुथरापन कायम है। सिर के बाल संवारे जाने पर भी कुछ विद्रोह करते नजर आ रहे हैं। देखकर ऐसा लगता है कि पुरानी आदतें सब मौजूद हैं, लेकिन अब सभी शौकों को मुश्किलों ने आ घेरा है। चेहरे पर एक अभागे की भावभंगिमा फूटकर जाहिर होने लग गयी है, जिससे उन हजरत के बेकार होने का संदेह पुष्ट होने
लगता है।
वे भद्रपुरुष लेट गये। मैंने भी आंखें बंद कर लीं। सुबह नींद टूटने पर सड़क पर चल पड़ा, चलते-फिरते नजदीक ही कॉलेज स्क्वायर में स्थित एलर्ब हाल पुस्तकालय में चढ़कर देखा कि पिछली रात के वही भद्रपुरुष ध्यानावस्थित से होकर अंग्रेजी दैनिक स्टेट्समैन का नौकरियों वाला आवश्यकता स्तंभ देख रहे हैं। जब तक पुस्तकालय खुला रहा, मैं अखबर पढ़ता रहा। फिर रास्ते पर निकल पड़ा। सारी दुपहरिया सड़कों पर चलते-चलते गुजार दी-बहुत थक गया- कुछ देर के लिए विश्राम की आवश्यकता अनुभव की। घूमते-घामते हेदुआ पहुंच गया। एक सड़क के किनारे पड़ी बेंच पर जाकर बैठ गया और देखा- बहुत सारे बेकार लोग वहां पर जुट गये हैं। कुछ एक गपशप करने में मशगूल हैं, तो कोई चुपचाप बैठा है तो और कुछ लोग बेकार बैठने के बजाय निद्रादेवी की आराधना करना ही सबसे बढि़या काम समझकर उसी में मग्न हैं। एक कोने में देखा रात वाले वही भले आदमी अर्द्धशायित अवस्था में बीड़ी फूंक रहे हैं। मुझे देखकर मुस्करा दिये। मुझे भी हंसी आ गई। मुंह फेर कर मैं धीरे से हंस लिया।
सरकार के घडि़याली आंसू
मैंने सोचा कि जनसाधारण की दृष्टि से परे अर्थात लोकचक्षु के अंतराल में एक प्रकार के घात-प्रतिघात के बीच से गुजरते हुए कुछ विशिष्ट प्रकार के लोग, एक खास तरह के आचार-व्यवहार, सभ्यता, चाल-चलन तथा नैतिक आदर्श लेकर गठित हो उठ रहे हैं, जिनके साथ समाज के साधारण मनुष्यों का कोई मेल नहीं बैठता। इनके जीवन की समस्याओं का समाधान न समाज कर पाया- न सरकार कर पायी है- शायद कर नहीं सकेगी। व्यवस्थापिका सभा में देखा जाता है कि सरकार इस श्रेणी के लिए अक्सर 'घडि़याली आंसू' बहाती है। ये आंसू इन अभागों को लेकर दर्द या सहानुभूति के नहीं बहाये जाते हैं- बल्कि उन आंसुओं का उत्पत्तिस्थल भय है। जिनके लिए आज सरकार घडि़याली आंसू बहाती नजर आ रही है, वह दिन ज्यादा दूर नहीं जब सरकार इन्हीं लोगों को समाज तथा राष्ट्र का दुश्मन घोषित करने में कोई भी दुविधा या संकोच नहीं करेगी।
नौकरी मिली
इन बातों को जाने दीजिए, अब मैं अपनी बातें कहूं। बहुतेरी जगहों पर मत्थे मारकर, आखिरकार एक नौकरी मिली। तनख्वाह कम होने पर भी, नौकरी में एक स्थिरता तो है। अनिश्चित बेकारी से मुक्ति पा गया, यह सोचकर जब कुछ राहत की सांस ले रहा था- ठीक उसी समय शैतान मेरी तरफ देखकर हंस रहा था एवं एक दिन सबेरे मैंने अपने आप को उसी शैतान का शिकार बना हुआ पाया भी। प्रचुर रक्वमन हो गया एक दिन। एक्स-रे परीक्षा में बीमारी की निश्चयता के संबंध में समस्त संदेह दूर हो गया।
स्वयं-निर्वासित
उसके बाद किस-किस अवस्था में होकर गुजरना पड़ा है, उस विषय में ज्यादा विस्तार से कुछ नहीं लिखूंगा। आप अंदाज कर लीजिएगा- जितना अंदाज आप कर सकते हैं। पहले पहल छह महीने तक एक आयुर्वेदिक अस्पताल में रहकर इलाज करना संभव हो सका था। उसके बाद आज एक साल हो रहा है- कोई भी चिकित्सा नहीं करायी जा सकी है। बीमार पड़ने के बाद उपाय-हीन साथी-मित्रों को बहुत परेशान किया था। अब यहां पर उन सबसे दूर सर्वथा अज्ञात स्थान में अपने को निर्वासित कर रख छोड़ा है मैंने। कर्तव्य के तकाजे पर बड़े दादा जो थोड़े से रुपये भेजते हैं- उससे भोजन का खर्च चल जता है। लेकिन समस्याओं के उत्पीड़न से रिहाई कहां? अब भी थोड़ा बहुत चल फिर लेता हूं, परंतु यह भी समझ रहा हूं कि और थोड़े दिन बाद यह क्षमता भी नहीं रहेगी। और तब जिन कठिन समस्याओं का सामना करना पड़ेगा, समाधान करना मेरे लिए असंभव हो जाएगा। शरीर में कुछ सामर्थ्य रखते हुए भविष्य में आने वाली समस्याओं का उपाय करना ही होगा, इस कारण दूर्गापूजा के बाद कुछ प्रचेष्टा के प्रयोजन में यह जगह छोड़कर कलकत्ता जाऊंगा।
जब नया पता स्थिर करूंगा
आजकल अखबारों में पढ़ता हूं कि कुछ तैराक लोग दोनों हाथ-पैरों को जंजीरों से बांधकर लगातार तैरते रहने की प्रतियोगिता में रिकार्ड तोड़ने की चेष्टा किया करते हैं। मेरे लिए सामने आनेवाली समस्याओं का मुकाबला करने की प्रचेष्टा करना करीब-करीब उसी तरह की घटना है। मेरे जीवन की जंजीर दिन पर दिन कसती जा रही है। अत: मैं ठीक से बता नहीं सकता कि तैरना मेरे लिए कब तक संभव होगा। अपने इस पत्र का उत्तर ऊपर लिखे पते पर पाने की आशा मैं नहीं करता। नया पता स्थिर होना संभव होने पर आपकी सूचित करूंगा।
आप मेरा प्रणाम तथा श्रद्धया प्रेम स्वीकार कीजिए। योगेश बाबू, योगेशचंद्र चटर्जी को भी मेरा श्रद्धया प्रेम कह दें। ल्ल
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