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पहले तुर्की का इस्तांबुल, फिर बगदाद, फिर ढाका की आर्टीजन बेकरी…और फिर मदीना मस्जिद, घटते रमजान के साथ बढ़ते इस्लामी आतंक की घटनाओं ने उन बहसों को फिर सतह पर ला दिया जिन्हें कभी भी पर्याप्त मंच और मौका नहीं मिलता। बात रस्मी सवालों से उठी—क्या ये लोग मुसलमान कहे जाने के लायक हैं? क्या ये लोग सुन्नी कहे जाने के लायक हैं? क्या ये इनसान कहे जाने के लायक हैं?
लेकिन सामूहिक स्वर में ज्यादा तीखा और सच्चा वैश्विक जवाब उभरा। दुनिया भर में लोग पूछने लगे—इस्लामी आतंकवाद पर डाले जाने वाले ये पर्दे क्या वास्तव में डाले जाने के लायक हैं?
प्रश्न परिस्थिति से जन्मते हैं इसलिए किसी भी सवाल को आप अनंतकाल के लिए नहीं थाम सकते। इसी तरह इन प्रश्नों के उत्तर भी अनंतकाल तक नहीं टाले जा सकते। सोशल मीडिया पर तीखे सवाल उठ रहे हैं। लोग रमजान के महीने में, मुसलमानों द्वारा मुसलमानों को, और तो और, मदीना मस्जिद को निशाना बनाने से हैरान हैं। फिरकों में बंटे और एक-दूसरे के प्रति गहरी नफरत से भरे मुस्लिम समाज की फांकों को इन घटनाओं ने पूरी दुनिया के सामने उजागर कर किया है।
मदीना मस्जिद पर हमले के बारे में, काफिरों को ठिकाने लगाने के आसमानी आदेशों के बारे में, पीस टीवी का मंच सजाकर अशांति का तूफान उठाने वाले जाकिर नाइक के बारे में लोग चर्चा कर रहे हैं। कैसे इस देश में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को आतंकी प्रेरणा के औजार के तौर पर इस्तेमाल किया गया! कैसे धुली-पुछी अंग्रेजी ने बुद्धि साफ कर दिमागों में जिहादी जहर भर दिया!
किसी देश में रहते हुए उसके ही संसाधनों और व्यवस्था का इस्तेमाल करते हुए आतंकी फैलाव के नए समीकरण गढ़े जा रहे हैं। यह पूरी दुनियंा में हो रहा है। क्या यूरोप की तरह भारत की अति उदारता और तुष्टीकरण की राह उसके लिए भविष्य की फांस साबित हो सकती है?
सवाल है, जब दर्द पूरी दुनिया को मिल रहा है तो क्यों नहीं इस्लामी उन्मादियों को पूरी दुनिया में हर ओर से खुलकर ललकारा जाता?
आतंकी भले डर के बूते इस्लामी साम्राज्य फैलाने के मंसूबे बांधें, लेकिन सच यह है कि पूरी दुनिया में खुद मुसलमानों के लिए यही परीक्षा की घड़ी है। यह कड़वा इम्तिहान दुनिया की घृणा से बचने और खुद को आतंकियों से अलग दिखाने का है।
परीक्षा इसलिए कड़ी है क्योकि रोज इस्लामी बर्बरता देख रही दुनिया को अमनपसंद मुसलमानों की ओर से किसी प्रतिरोध और टकराहट के साफ, पुख्ता संकेत नहीं दिखते। राजनीति अगर 'रेडिकल इस्लाम' यानी कट्टरवादी इस्लाम शब्द को जबान पर लाने में शर्माती है तो शर्माती रहे, सच बात यह है कि सचाई को छिपाने और अमनपसंद इस्लाम बनाम वहाबी उन्माद की टकराहट का छद्म लोगों को झूठी बहस में उलझाने की कोशिश से ज्यादा कुछ नहीं लगता। लेकिन चीजें कब तक दबी रह सकती हैं?
छिपाने से बीमारी बढ़ती है। इस्लामी उन्माद का ज्वर छिपाने का ही नतीजा है कि आतंकियों का दुस्साहस और करतूतें बहुत बढ़ गई हैं और दुनिया इस पूरी बीमारी का कोई सर्वमान्य निदान ढूंढने दिशा में बढ़ रही है। यह निदान सिर्फ आतंकियों तक केंद्रित रहे और सामान्य मुसलमान बाकी दुनिया की नजरों में घृणा के पात्र न बनें, चुनौती यह है। 'काफिर' दुनिया से नफरत करने वालों से दुनिया कैसे निपटे, चुनौती यह भी है।
कट्टरवादी इस्लाम अगर गैर-मुसलमानों के गले बर्बरता से रेतता है तो नर्म दिल, अमनपसंद, मानवाधिकारवादी, सेकुलर चेहरे कहां जा दुबकते हैं? चुनौती उन्हें तलाशने की है। काफिरों के इस कत्लेआम पर उनकी राय क्या है? जिहाद, जन्नत और सपनीली हूरों के बारे में मौलवियों की राय को टटोलने और बताने की चुनौती है।
यह चुनौती आगे बढ़ती दुनिया को जहालत के गड्ढों में धकेलने और मेधावी मस्तिष्कों में जिहाद का जहर भरने वालों से उन्हें समझ में आने वाले तरीकों से निबटने की है। विश्वभर में इस्लाम से हो रही दिक्कतों पर लोग मुखर हैं। मुंह सिले हुए हैं तो सिर्फ मुल्लाओं के। यह चुप्पी खतरनाक है। यह चुप्पी मानवता के हत्यारों का मौन समर्थन ही मानी जाएगी। चुनौती इस चुप्पी को तोड़ने की है।
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