कायदा जिहादी, सोच वहाबी
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कायदा जिहादी, सोच वहाबी
अमेरिकी जेल में बैठा डेविड हेडली हो, पठानकोट के हमलावर या पांपोर हमले में शामिल आतंकी, वहाबी विचारधारा के ऐसे पहरुओं को जमाने-बढ़ाने वाली जमीन पाकिस्तानी है। आतंक और नफरत की पाठशाला में बदला मुल्क महिलाओं और गैर मुस्लिमों के अधिकार निगलता जा रहा है
आलोक गोस्वामी, साथ में सतीश पेडणेकर
पाकिस्तान एक बार फिर अंतरराष्ट्रीय जगत में गलत कारणों से चर्चा का विषय बना है। अमेरिकी रिपब्लिकन सांसद टेड पो ने अमेरिकी संसद द्वारा पाकिस्तान को अमेरिकी सहायता बढ़ाने के निर्णय का खुलकर विरोध किया है। वरिष्ठ सांसद की आपत्ति में एक तीखा खुलासा लिपटा है।
टेड का कहना है, ''पाकिस्तान पर विश्वास नहीं किया जा सकता। उसने 2011 से ही हमारी 33 अरब डॉलर की राशि के साथ खिलवाड़ किया।''
दरअसल, पाकिस्तान के बारे में यह राय किसी एक सांसद, किसी एक दल या किसी एक देश की नहीं है। पाकिस्तान विश्व मंचों पर कैसा दिखता है और असल में उसका व्यवहार कैसा है इसका छद्म दुनिया के सामने खुलता जा रहा है। हथियार थामे हत्यारे जत्थे इस्लामाबाद के तैयार किए नक्शे पर बढ़ते हुए पाकिस्तान के मजहबी उन्मादी चेहरे से दुनिया को परिचित कराते बढ़ रहे हैं।
जैशे मोहम्मद, लश्करे तैयबा, तहरीके तालिबान या फिर लश्करे झांग्वी…नाम भले अलग हों, लेकिन सबके तार-बेतार पाकिस्तान से जुड़ते दिखाई देंगे। याद रहे, इन सबका आतंकी आदर्श ओसामा पाकिस्तान के एबटाबाद में ही तो महफूज रखा गया था। वजह यह कि पाकिस्तान को आतंकियों की जन्नत माना जाता है। अभयारण्य। सरकार, सत्ता, पुलिस, फौज…वहाबी कट्टरपंथी यहां हर तरफ से निश्चिंत हैं। इसी तरह पठानकोट हो या पांपोर, सब आतंकी हमलों के सूत्रधारों का आधार पाकिस्तान ही दिखेगा।
उस लाल मस्जिद को कौन भूला होगा जिसमें कार्रवाई होने पर एक-एक कमरे में भरा असलहा और जिहादी फलसफों और सबकों के ढेर बरामद हुए थे। बार-बार खबरें आती हैं कि पड़ोसी देशों में स्लीपर सेल जमाते-फैलाते वही जहर भरा सामान पूरे क्षेत्र में परोसा जा रहा है। सब जगह वही वहाबी उन्मादी एके-56 थामे दिखते हैं।
संवैधानिक तालिबान
ऐसा क्यों? ऐसा इसलिए क्योंकि मजहब के नाम पर जन्मे इस देश का संविधान, संवैधानिक संस्थाएं और सरकारी मुलाजिम सब इस्लामी कायदे की उसी लीक पर बढ़ते जा रहे हैं जो सुधारवाद और प्रगतिशीलता की बजाय कट्टरवाद की खोह की तरफ बढ़ती है।। ऐसी ही एक संस्था है 'काउंसिल ऑफ इस्लामिक आइडियोलॉजी (सीआईआई), जिसने हाल ही में अपनी सिफारिशों के धमाके किए, जब इसने अपना मॉडल महिला संरक्षण बिल जारी किया। प्रस्तावित बिल में कहा गया है-''अगर औरत पति का कहना न माने, उसके मुताबिक कपड़े न पहने, शारीरिक संबंध बनाने से मना करे तो पति उसे थोड़ा-बहुत पीट सकता है।'' बिल में आगे कहा गया है, ''महिलाएं हिजाब न पहनें, अजनबियों से बात करें, ज्यादा ऊंची आवाज में बोलें और शौहर की इजाजत के बिना किसी को पैसे दें तो शौहर उनकी पिटाई कर सकता है।'' इसमें यह भी कहा गया है कि ''महिला नर्स पुरुष मरीजों का ध्यान नहीं रख सकतीं।
प्राथमिक शिक्षा के बाद लड़कियां सह शिक्षा वाले स्कूलों में नहीं पढ़ सकतीं। महिलाएं किसी फौजी लड़ाई में हिस्सा नहीं ले सकतीं। साथ ही वे विज्ञापनों में काम नहीं कर सकतीं। महिलाएं विदेशी प्रतिनिधिमंडल का स्वागत नहीं कर सकतीं। वे पुरुषों से घुलमिल नहीं सकतीं, अजनबियों संग घूमने नहीं जा सकतीं। गर्भधारण के 120 दिन बाद गर्भपात करवाने को हत्या माना जाएगा।'' हालांकि महिलाओं को यह रियायत दी गई है कि वे राजनीति कर सकेंगी।
माता-पिता की इजाजत के बिना निकाह कर सकेंगी। गैर-मुस्लिम महिला का जबरन कन्वर्जन करने वाले को तीन साल की जेल हो सकती है। सीआईआई का दावा है कि उसके ये प्रस्ताव कुरान और शरिया के मुताबिक हैं। उसका यह भी कहना है कि इसके जरिए घरेलू हिंसा बिल को कानूनी रूप दिया जा सकेगा। कई जानकार मानते हैं कि इससे तो घरेलू हिंसा पर रोक लगने के बजाय उसे बढ़ावा ही मिलेगा।
पाकिस्तान में बवाल
इस प्रस्ताव से पाकिस्तान में बवाल मचा हुआ है। स्वाभाविक है कि आज समानता के युग में किसी देश की संवैधानिक संस्था ऐसी संवेदनहीन और घरेलू हिंसा को बढ़ावा देने वाली बातें कहे तो वह उस देश को दुनियाभर में शर्मसार करेगी ही। ऐसे में पाकिस्तान के कुछ मानवाधिकार संगठनों ने सीआईआई को प्रतिगामी सोच वाला संगठन बताते हुए उसे भंग करने की मांग की है। कुछ लोग चाहते हैं कि इसका पुनर्गठन किया जाए या उसमें कठमुल्लों की बजाय प्रगतिशील सोच वाले लोगों को रखा जाए। इस्लामाबाद की मानवाधिकार कर्मी फरजाना बारी कहती हैं, ''काउंसिल का ऐसा रुख महिलाओं को लेकर उसकी घटिया सोच ही दर्शाता है।'' बारी का कहना है, ''प्रस्तावित बिल में कुछ भी इस्लाम के मुताबिक नहीं है। इससे देश की छवि खराब होगी।'' दरअसल विवाद शुरू होने की वजह यह है कि पंजाब विधानसभा में 2015 में एक महिला सुरक्षा बिल पेश किया गया था जिसमें महिलाओं को घरेलू मारपीट, मानसिक और शारीरिक प्रताड़ना के खिलाफ कानूनी संरक्षण दिया गया था। इसके लिए अलग टोल फ्री नंबर और पीडि़त महिलाओं को रखने के लिए शेल्टर बनाने का भी इंतजाम किया गया था। इसे सीआईआई ने गैर इस्लामिक बताकर 163 पेज का नया मॉडल बिल पेश किया है। इसमें महिलाओं पर कई तरह के प्रतिबंध लगाए गए हैं। सीआईआई को पाकिस्तान में कानूनी दर्जा हासिल है। संविधान के अनुसार, पाकिस्तान एक इस्लामिक गणतंत्र है, जिसके मुताबिक देश और राज्यों में चुनी हुई सरकार हैं। संसद को इस्लाम के मुताबिक कानून बनाने की सलाह दी गई है। सीआईआई का प्रस्ताव मानने से पहले विधायिका मौलवियों की राय ले सकती है। अगर विधायिका काउंसिल के प्रस्ताव को मानने से इनकार करती है तो उन पर ईशनिंदा का आरोप लग सकता है। यहां बता दें कि पाकिस्तान में ईशनिंदा के लिए मौत की सजा दी जा सकती है। हालांकि, इसकी सिफारिशें मानने को संसद बाध्य नहीं है। यह पहला मौका नहीं है जब सीआईआई की सिफारिशों से बवाल मचा हो। सीआईआई जब भी अपनी बैठकों के बाद अपनी राय जाहिर करती है तो देश का बहुत बड़ा तबका इसे हजम नहीं कर पाता। कुछ समय पहले भी सीआईआई ने सहशिक्षा को इस्लाम के विपरीत बताया था। बयान में कहा गया कि लड़के-लड़कियों का एक साथ पढ़ना न तो समाज के लिए जरूरी है और न ही इस्लाम के सिद्धांतों के मुताबिक है। उसने सरकार से लड़के और लड़कियों की पढ़ाई की अलग-अलग व्यवस्था करने को कहा था। पूर्व राष्ट्रपति जियाउल हक की घोषणा के अनुसार, सरकार से इस्लामाबाद में कम से कम दो महिला विश्वविद्यालयों की स्थापना की सिफारिश की गई थी। सीआईआई की ताकत का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि पाकिस्तानी सांसदों ने बालविवाह कराने वाले को कड़ी सजा देने का प्रस्ताव रखा था मगर जब सीआईआई ने इस पर सजा को इस्लाम विरोधी और ईशनिंदक बताया तो सांसदों को अपना प्रस्ताव वापस लेना पड़ा। दरअसल पाकिस्तान में विवाह के लिए लड़की की उम्र 16 और लड़के की18 है लेकिन सीआईआई का कहना है कि इस्लाम के मुताबिक शादी की कोई तय उम्र नहीं है। शारीरिक रूप से युवा होने पर लड़का या लड़की विवाह कर सकते हैं। इसलिए बालविवाह जायज है। 2013 में सीआईआई ने बलात्कार के मामलों में डीएनए जांच को सबूत मानने से इनकार कर दिया था और कहा था कि इस्लामी हुकूक कानून के मुताबिक महिला को चार गवाह पेश करने होंगे। वायुसेना ने भी उससे सलाह मांगी थी कि वायुसैनिकों को दाढ़ी रखने की इजाजत दी जाए या नहीं।
मुल्क में नहीं सुरक्षित महिलाएं
पाकिस्तान जैसे इस्लामी देश में महिलाओं के खिलाफ हिंसा आम बात है। पाकिस्तान विधानसभा के सदस्य और महिला अधिकारों के लिए लड़ने वाली वकील उजमा बुकारी कहती हैं, ''हालात का तकाजा है कि विधायक और सांसद महिलाओं की सुरक्षा के कानून बनाएं। पाकिस्तान महिलाओं के लिए सबसे खतरनाक देश है। महिलाओं के खिलाफ बड़े पैमाने पर अपराध होते हैं। हमने इन अपराधों पर काबू पाने के लिए कानून पेश किए लेकिन मौलवियों ने उनका अध्ययन करने से पहले ही उन्हें खारिज कर दिया।''
यही पाकिस्तान की सबसे बड़ी विडंबना है। जिन्ना ने भले ही 'सेकुलर पाकिस्तान' की बात कही हो, मगर आखिरकार पाकिस्तान इस्लामी देश बना। जाहिर है, इसके बाद देर-सवेर इस्लामी कानून लागू होना ही था। 1962 में बने उसके संविधान में सीआईआई का भी प्रावधान था जिसके तहत उसे सरकार और संसद को यह सलाह देने का अधिकार था कि कौन से कानून इस्लाम के मुताबिक हैं, कौन से नहीं। पाकिस्तान की दुविधा है कि वहां के उदारवादी लोग, मीडिया, मानवाधिकारवादी आदि सभी चाहते हैं कि वहां की हुकूमत इस्लाम के मुताबिक चले, लेकिन जब उन्हें इस्लामी नजरिया बताया जाता है तो वे हैरान रह जाते हैं और उसका विरोध करने लगते हैं। अब अगर 'कुरान के मुताबिक पति की बात न मानने वाली बीवी को मारना जायज है' तो उदारवादी इस्लाम के कानूनों का विरोध करने के बजाय सीआईआई को दोषी करार दे रहे हैं। मगर सीआईआई तो उन्हें इस्लाम का नजरिया बता रही है। यदि पाकिस्तान इस्लामी मुल्क है तो इस्लामी कानून की बात उठना लाजिमी है।
सीआईआई ने और भी कई सिफारिशें की हैं, जैसे, ''पाकिस्तान के झंडे पर कलमा और युद्ध घोषणा 'अल्लाह हो अकबर' लिखा जाए। पाकिस्तान के नोट पर किसी व्यक्ति की तस्वीर न छपे। जिहाद को केवल रक्षात्मक युद्ध मानना गलत है। हरेक को अफगानिस्तान का शुक्रगुजार होना चाहिए जिसने जिहाद को पुनर्जीवित किया। जिहाद छोड़ देने से दुनियाभर में मुसलमानों का पतन हुआ। जिहाद में भाग लेना सबसे बड़ा फर्ज है। जो कर्मचारी नमाज नहीं पढ़ते उन्हें नौकरी से निकाला जाए। साप्ताहिक अवकाश रविवार को हो ताकि इस्लाम की दुआएं मिल सकें। किसी को जेल भेजना शरिया के खिलाफ है इसलिए जेलों को खत्म किया जाए। इस्लाम के प्रारम्भ में न जेलें थीं, न पुलिस थी, न बैंक थे, बस अपराधियों के हाथ-पांव काट दिए जाते थे। सभी तरह के बीमों और लाटरियों पर रोक लगनी चाहिए। ईशनिंदा करने वाले को सजा दी जाए।'' दरअसल सीआईआई के अध्यक्ष मौलाना मोहम्मद खान शेरानी तालिबान की मित्र देवबंदी पार्टी जमीयत उलेमा ए इस्लामी से जुड़े रहे हैं। उन्हें उदारवादी पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी ने सीआईआई का अध्यक्ष बनाया था, अब मुस्लिम लीग की सरकार ने उनके कार्यकाल को बढ़ा दिया है।
पाकिस्तान पर अमेरिकी नरमी क्यों?
अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा के परमाणु सुरक्षा शिखर सम्मेलन में यह चिंता जताने के बावजूद, कि पाकिस्तान के परमाणु बम कहीं गलत हाथों में न पड़ जाएं, वह पाकिस्तान को पैसा देता रहा है। इसके पीछे है पाकिस्तान की रणनीतिक स्थिति और आइएसआइ की उसे अपने आतंंकी सूत्रों के जरिए परोक्ष रूप से मदद पहंुचाने की काबिलियत। पाकिस्तान आज भी आतंकवाद का केन्द्र बना हुआ है जहां से ज्यादातर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिबंधित आतंकवादी संगठनों का जमावड़ा है। यहां हजारों आतंकी प्रशिक्षण शिविर हैं, जिहादी सोच फैलाने वाले मदरसे हैं। उसके अफगानिस्तान और भारत में परोक्ष युद्ध छेड़े रहने के बावजूद अमेरिका का उसके प्रति नरम रुख रहता है। अमेरिका बखूबी जानता है कि पाकिस्तान के लाख मना करने के बावजूद ओसामा बिन लादेन वहीं मारा गया था और सिंक्यांग में आतंकवादी हमले में हुई मौतों के तार उससे जुड़ते थे।
चालाक चीन
हैरानी की बात है कि 2001 में जैशे मोहम्मद के सरगना मसूद अजहर को वैश्विक आतंकी घोषित होने से बचाने के लिए चीन ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में अपनी वीटो ताकत इस्तेमाल की थी।
पाकिस्तान
द्वारा ऑपरेशन
जर्ब-ए-अज्ब चलाना और वैश्विक दबाव में गिनती के कुछ आतंकी गुटों को प्रतिबंधित करना केवल दिखावा है।
दुनिया समझ गई है पाकिस्तान की असलियत
पाकिस्तान की भारत के प्रति नीति 1947 से एक ही रही है। उस वक्त भी पाकिस्तानी की चुनी हुई सरकार के नुमाइंदे बातचीत करने की मंशा जताते थे जबकि उनकी फौज घुसपैठियों का इस्तेमाल करती थी। उस जमाने में भी वे जिहाद की बात करते थे, आज भी जिहाद की बात करते हैं। वे जिहाद शब्द का गलत इस्तेमाल करते हैं, पर वह बात अलग है। पर कुल मिलाकर उनकी दोगली नीति में कोई बदलाव देखने में नहीं आया है। हमारे प्रधानमंत्री ने कई अवसरों पर कहा है कि हमारा प्रयास है अमन कायम हो। अपनी तरफ से उन्होंने बातचीत के रास्ते खोलने की कई बार कोशिश भी की है। उन्होंने पाकिस्तान के प्रधानमंत्री को अपने शपथ समारोह में बुलाकर अच्छी पहल की थी। वे यह भी साफ कर चुके हैं कि जब तक आतंकवाद जारी रहेगा, बात नहीं हो सकती। वे अपनी इस नीति पर कायम हैं, इससे हटे नहीं हैं। इस मत में हमारे देश की सुरक्षा और नीति दोनों की झलक है। जहां तक सुरक्षा की बात है तो वह हमारी फौज, हमारे जवान देख ही रहे हैं, ईंट का जवाब पत्थर से दे रहे हैं। कूटनीति अपना काम कर रही है। मैं यह नहीं मानता कि पाकिस्तान में एक तरफ चुनी हुई सरकार है, दूसरी तरफ आतंकी तत्व और तीसरी तरफ फौज, इन तीन आयामों की वजह से हमारे लिए दिक्कत बढ़ या घट जाती है। समस्या तो वही है। और मैं समझता हूं कि हमें यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि अगर हमें एक पठानकोट या पांपोर नजर आता है, तो ऐसे कितने ही उदाहरण हैं जहां हमारे सुरक्षाबलों की वजह से बड़ी घटनाएं नहीं हो पाईं। ऐसी चीजें भले सुर्खियों में नहीं आती, पर आएदिन ऐसे हादसे रोके जा रहे हैं।
साथ ही कभी-कभी मैं सोचता हूं कि न जाने यह मान्यता कहां से आई है कि पाकिस्तान में चल रहीं 'जिहादी फैक्टरियां' हमारी सीमा से सटे इलाकों में हैं, पहले उन पर चोट हो। मेरा तो यह कहना है कि, ये 'फैक्टरियां' लाहौर में , उत्तरी वजीरिस्तान में या जहां कहीं भी हों, उन्हें खत्म करो। दूसरे, पाकिस्तान कहता है कि 'हाफिज सईद उसके यहां नहीं है, हम कैसे कार्रवाई करें।' हम ऐसे मुद्दों पर भी दुनिया भर से उस पर दबाव बनानेे में कामयाब हुए हैं। यह हमारी कूटनीति की कामयाबी ही है कि अमेरिका ने पाकिस्तान को एफ-16 विमान नहीं दिए। यानी दुनिया समझ रही है कि हमारी नीयत सही है, हम अमन चाहते हैं और अगर इसमें कोई बाधा पहंुचा रहा है तो वह है इस्लामाबाद। उल्लेखनीय है कि एक जमाने में पाकिस्तान की कूटनीति ऐसी थी कि जब भी हम आतंकवाद के संदर्भ में उसका नाम लेते थे तो उलटे हमसे कहा जाता था, अरे, यह आतंकवाद नहीं, कानून-व्यवस्था की समस्या है। कितने ही देश इस बात पर यकीन करने को तैयार नहीं थे कि आतंकवाद पाकिस्तान से हमारे यहां आ रहा है। आज एक-दो मुल्कों को छोड़कर सब समझ रहे हैं कि पाकिस्तान की असलियत क्या है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राज्यसभा सांसद हैं)
हम 60 साल से अपने बच्चों को पढ़ाते आए हैं कि हमारी राष्ट्रीय पहचान दूसरों से नफरत करना है। इसकी वजह से आज भारत और अफगानिस्तान से हमारे रिश्ते तनावपूर्ण हैं।
-हिना रब्बानी खार, पूर्व विदेश मंत्री, पाकिस्तान
बातचीत से कुछ हासिल नहीं हुआ
सियोल में जारी एनएसजी की बैठक के दौरान पांपोर में सुरक्षा बलों पर हमला पाकिस्तान की मंशा साफ करता है। चीन की मदद से वह भारत के खिलाफ ऐसे षड्यंत्र रचता रहता है। हमें अपना मत दृढ़ रखना चाहिए। जब तक पाकिस्तान आतंकी गतिविधियों को हवा देने से बाज न आए उससे कोई बातचीत नहीं होनी चाहिए। क्या1947 से आज तक पाकिस्तान से बातचीत करके कुछ हासिल हुआ है? तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू जब लियाकत अली से बातचीत कर रहे थे, पाकिस्तानी फौज कश्मीर में अंदर आ चुकी थी, पर लियाकत ने भनक तक नहीं लगने दी थी। अब भारत को किसी विदेशी दबाव में आए बिना पाकिस्तान को साफ कह देना चाहिए कि आतंकी घटनाओं के रुके बिना कोई बातचीत नहीं हो सकती। केन्द्र में सरकारें जो भी रहीं, फौज ने अपना काम हमेशा मुस्तैदी से ही किया है। पर वह हमेशा सुरक्षात्मक ही रहा है। प्रो-एक्टिव हुए बिना हम पाकिस्तान द्वारा प्रायोजित आतंकवादी हमले झेलते रहेंगे। सभी जिहादी गुट इस्लामी विचारधारा के मुताबिक अपनी मजहबी किताब के 'हुक्म' पर चलते हुए गैर इस्लामी भारत पर चोट कर रहे हैं। ऐसे में वह कहावत झूठी साबित हो जाती है कि 'इस्लाम शांति का मजहब है'।
(लेखक वरिष्ठ रक्षा विश्लेषक हैं)
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