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केन्द्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति जुबिन ईरानी शिक्षा के क्षेत्र में नई योजनाएं लाने, छात्रों और शिक्षकों में गुणात्मक सुधार लाने के प्रयास कर रही हैं। दो साल में ऐसे कितने ही काम हुए हैं। हालांकि उनके हर काम का विरोध करने वालों की एक जमात भी है जो सदा तलवारें खींचे दिखती है। शिक्षा क्षेत्र में हुए, हो रहे और होने वाले कामों पर पाञ्चजन्य के संपादक हितेश शंकर और सहयोगी संपादक आलोक गोस्वामी ने उनसे विस्तृत साक्षात्कार किया। प्रस्तुत हैं इसके प्रमुख अंश –
विद्यांजलि योजना कैसे बनी? इसकी शुरुआत कैसे हुई?
प्रधानमंत्री जी ने एक सुझाव सबके सामने प्रस्तुत किया था कि, क्या यह संभव है कि देश का वह नागरिक जो आज भी यह विश्वास रखता है कि अगर हम उन्नति चाहते हैं तो उसके बीज शिक्षा के माध्यम से बोए जाने चाहिए, वह नागरिक जो देश के लिए अपना कुछ योगदान देना चाहता है, क्या उनके और शिक्षा व्यवस्था के बीच कोई सेतु बन सकता है, जो उन्हें स्कूलों से जोड़े, उनका योगदान स्कूलों के माध्यम से राष्ट्र की उन्नति का एक अंश बन जाए? यह देखा गया है कि सरकारी स्कूलों में पढ़ाई से इतर गतिविधियों पर उतना ध्यान नहीं दिया जाता। निजी स्कूलों की तुलना में यह अक्सर देखा जाता है कि बच्चे का जो संपूर्ण विकास होना चाहिए वह नहीं हो पाता क्योंकि वह सरकारी स्कूलों में समाज के वे अंश नहीं देख पाता जो व्यापकता निजी स्कूलों में प्राप्त होती है। तो विद्याजंलि विशेष रूप से प्रधानमंत्री जी की सोच थी, हमने तो कहीं ने कहीं उसे क्रियान्वित किया है। लेकिन हम यह भी चाहते थे कि एक ऐसा तंत्र विकसित किया जाए जहां हम प्रौद्योगिकी 'लिवरेज' करें लेकिन बच्चों की सुरक्षा के संदर्भ में भी कोई कसर न छोड़ी जाए। हम चाहते थे कि शिक्षा से समाज के जुड़ाव की गुणवत्ता का भी ध्यान रखा जाए। इसलिए हमने 'माइगॉव' की टीम के साथ बैठक करके पहले छोटी-छोटी बारीकियों पर चर्चा की, जिस प्रकार का 'मेट्रिक्स' बन सकता है, उस पर चर्चा की। कानून को देखते हुए क्या दिशानिर्देश होने चाहिए उस पर चिंतन भी किया और उस पर दूसरों की राय भी मांगी। उसके बाद पूरे ढांचे को बनाया। फिर हमने यह सुझाव राज्यों के समक्ष प्रस्तुत किया, क्योंकि शिक्षा एक ऐसा क्षेत्र है जो समवर्ती सूची में है, इसलिए इसकी नीति भले ही केंद्र बनाए पर इसका क्रियान्वयन राज्यों का विषय होता है। हमने जब विभिन्न राज्य सरकारों के साथ यह प्रस्ताव साझा किया तो हमने उनसे पूछा, क्या आप इसके साथ जुड़ना चाहेंगे, तो सबका सहयोग मिला। पहले चरण में ही 21 राज्य इससे जुड़ गए।
प्रधानमंत्री जी ने सुझाव कब रखा था?
करीब छह महीने पहले।
छह माह में इसे राज्यों के सामने रखना, 'माइगॉव' के साथ बैठक करना और बाकी तमाम बातें सोचना। यह सब बहुत जल्दी नहीं हो गया?
हां, यह तो हमारे मंत्रालय की पहचान बन गई है कि हम काम जल्दी कर लेते हैं। ऐसा शायद इसलिए है क्योंकि हमारा राज्यों के साथ परस्पर संपर्क रहता है। हम जो भी विषय शुरू करते हैं वह सबसे कटकर नहीं करते, राज्यों को संग लेकर चलते हैं इसीलिए राज्यों के साथ शायद आज तक किसी भी नीतिगत पहल पर टकराव नहीं हुआ।
आपने कहा, 21 राज्यों ने हामी भर दी। बाकी के राज्य क्यों नहीं जुड़े?
हमने अभी 'शुरुआती चरण' की बात की है जिसमें फिलहाल 21 राज्य जुड़े हैं। दिसंबर तक यह पूरे राष्ट्र के स्कूलों में लागू हो जाएगा। हमारा यह मानना था कि जब आप 'पायलट फेज' में शुरुआत करेंगे तो कहीं न कहीं हर राज्य के समक्ष चुनौतियां आएंगी। उन चुनौतियों का अध्ययन करने में हमें आसानी हो जाएगी। वास्तव में जब हमने राज्यों की बैठक की थी उस वक्त हमारे पास 16-17 राज्यों का आंकड़ा आया था, लेकिन राज्यों ने तत्परता से रुचि ली और जल्दी ही 21 राज्यों में काम शुरू हो गया, क्योंकि हमने सबके साथ हर चीज साझा की थी। सब चाहते हैं कि सरकारी स्कूलों में गुणवत्ता की दृष्टि से ढांचागत प्र्रगति होनी ही चाहिए।
स्कूलों का समय तो तय है। विद्यांजलि के अंतर्गत योगदान देने आने वाले समय का तालमेल कैसे बैठाएंगे?
विद्यांजलि के अंतर्गत पहले तो कोई व्यक्ति खुद को पंजीकृत कराएगा, वह जिस स्कूल मेें योगदान देना चाहता है उसे 'ऑनलाइन' चिन्हित कर सकता है। फिर स्कूल के प्रधानाचार्य उस व्यक्ति के साथ बात करेंगे कि वे कब, किस समय आकर सेवा दे सकेंगे। हमने जिस दिन इसकी शुरुआत की थी उसी वक्त हमसे ऑनलाइन जुड़े इंडोनेशिया स्थित भारतीय दूतावास की एक महिला ने हमसे कहा,''क्या हम इसमें परफोर्मिंग आर्ट्स को भी जोड़ सकते हैं? हममें से जो चित्रकार हैं, गायक हैं, संगीतकार हैं, वे भी अपने सेवाएं देना चाहते हैं।'' तब हमने इन सब विधाओं को भी उसमें शामिल किया। फिर कुछ लोगों की राय थी कि 'क्योंकि हम एन.आर.आई. हैं इसलिए अपना समय तो नहीं दे सकते। क्या हम किताब कॉपियों तथा अन्य सामग्री का दान दे सकते हैं?' हमने इस राय को भी शामिल किया है। किसी ने कहा कि, ''क्या ऐसा हो सकता है कि जो स्कूली शिक्षक सेवानिवृत्त हो चुके हैं उनको भी इनमें जोड़ा जा सके?'' तो कहने का अर्थ है, हमारी यही कोशिश थी। आज अगर आप शिक्षा का स्तर देखें, विशेषकर कमजोर तबकों के बच्चों में, तो उनको उपचारात्मक शिक्षा की जरूरत होती है। जो बच्चा सरकारी स्कूल में जाता है वह उपचारात्मक, बकाया पढ़ाई नहीं कर पाता क्योंकि वह कोचिंग के लिए पैसा नहीं निकाल पाता। तो हमारा मकसद है कि अगले चरण में किसी जिले में सेवानिवृत्त शिक्षक वहां के स्कूल में जाकर शैक्षिक दृष्टि से कमजोर बच्चों को सहायता देेना चाहें तो उसका भी हम एक ढांचा बना रहे हैं। उनको साथ लिया जाएगा। क्योंकि वर्तमान में जो शिक्षक पढ़ा रहे हैं उनको भी यह संकेत नहीं जाना चाहिए कि उनके काम में कोई कमी है। मेरा मानना है कि अगर हम सरकारी स्कूलों में इस प्रकार का प्रयोग नहीं करते, तो हम जिस शैक्षिक वातावरण में बदलाव की अपेक्षा करते हैं उसे लाने में बहुत वक्त लग जाएगा। दुनिया में इस धारणा के प्रमाण हैं कि जहां-जहां समाज शैक्षणिक संगठनों, विशेषकर स्कूलों से जुड़ा है वहां-वहां सरकारी स्कूलों की गुणवत्ता में सुधार आया है। इसके उद्घाटन कार्यक्रम में हमारे साथ वर्ल्ड बैंक प्रतिनिधि थे, यूनिसेफ के प्रतिनिधि थे, वे स्वयं अचंभित थे कि आज तक इतने बड़े स्तर पर कहीं भी ऐसा प्रयास नहीं किया गया था।
क्या इस योजना के तहत जुड़ने वाले लोगों को मानदेय भी मिलेगा?
नहीं, यह पूरी तरह स्वैच्छिक गतिविधि है। मध्यप्रदेश के शिक्षा सचिव ने तो बताया कि उद्घाटन के दिन ही उनके पास 12 हजार लोगों ने इसके लिए नाम दे दिए थे। सेवादान के लिए कोई पैसा नहीं लिया जाता। हमने इसके अंतर्गत एक फिल्टरेशन प्रक्रिया रखी है जिसमें से गुजरकर सही व्यक्ति जुड़ पाएंगे।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति पर रिपोर्ट आने के बाद इसके कब तक लागू होने की उम्मीद है?
वह रिपोर्ट तो पूरी प्रक्रिया का एक छोटा सा हिस्सा मात्र है। हमारे पास जब सब राज्यों से उस रिपोर्ट पर सुझाव आ जाएंगे, उससे हम एक खाका बनाएंगे जिसे फिर राज्यों के साथ साझा करेंगे। उसके बाद यह कैबिनेट में जाएगा। फिर से यह नीति के रूप मंे राष्ट्र के सामने आएगा। यही संवैधानिक पद्धति है। मैं इतना कह सकती हूं कि इस पर काम चल रहा है। मेरा यही कहना है कि अगर श्री सुब्रह्मण्यम इस रिपोर्ट को तैयार करने में समय न बढ़ाते जाते तो शायद इतनी देर न होती। लेकिन मुझे हैरानी है कि 30 साल से किसी को यह आभास ही नहीं था कि कोई शिक्षा नीति नहीं है। अब हमने कम से कम इस पर काम शुरू किया है।
हम काम जल्दी कर लेते हैं। ऐसा शायद इसलिए है क्योंकि हमारा राज्यों के साथ परस्पर संपर्क रहता है। हम जो भी विषय शुरू करते हैं वह सबसे कटकर नहीं करते, राज्यों को संग लेकर चलते हैं इसीलिए राज्यों के साथ शायद आज तक किसी भी नीतिगत पहल पर टकराव नहीं हुआ।
शिक्षा क्षेत्र में बुनियादी तौर पर क्या सुधार होना चाहिए?
शिक्षा क्षेत्र का सबसे बड़ा दुर्भाग्य रहा कि सबने अपने आपको सिर्फ घोषणाओं तक सीमित रखा। हम बार-बार यह तो कहते हैं कि हमारे यहां पढ़ाने के तरीके में बदलाव आना चाहिए, लेकिन वह बदलाव तो आता है डी.आई.ई.टी के जिला केंद्रों से। आप किसी भी राज्य के शिक्षा मंत्री से पूछें कि आपके जिलों में डी.आई.ई.टी. के क्या हाल हैं तो वह आपको जवाब नहीं दे पाएगा। क्योंकि किसी ने विस्तार में जाकर आज तक काम ही नहीं किया है। मैंने अपने अफसरों से कहा कि हम घोषणाएं करने की बजाय चीजों की बारीकी में जाकर देखें तभी बेहतर काम हो पाएगा। 30 जून को हम पहली बार देश का एक 'टीचर एजुकेशन पोर्टल' बनाने जा रहे हैं। इसमें हम जिलेवार शिक्षकों और शिक्षा की तमाम बारीकियों का मानदंड रखेंगे। हर तीन महीने बाद एक रिपोर्ट जारी करेंगे प्रदेश के लिए। इससे पता चलेगा कि किस जिले में शिक्षकों का प्रशिक्षण स्तर ऊंचा है, किसमें नीचे। जब हमारे पास यह बुनियादी आंकड़ा होगा तब आप देख पाएंगे कि कहां-कहां शिक्षकों का प्रशिक्षण बड़ी गंभीरता से हो रहा है। यह पूरी शिक्षा व्यवस्था की बुनियाद है। इतिहास में हमने पहली बार कहा कि भारत सरकार हर सरकारी स्कूल, कॉलेज के प्रधानाचार्यों का प्रशिक्षण कराएगी। 2016 में हमने पहली बार कहा कि कॉलेजों में रैगिंग निरोधी, भेदभाव निरोधी और लिंग के प्रति संवेदना के प्रकोष्ठ होने अनिवार्य हैं। अभी 22 जून को ही हमने भारत के शिक्षा संस्थानों को यह अधिकार दिया है कि अगर वे किसी विदेशी संस्थान के साथ डिग्री कार्यक्रम के लिए गठजोड़ करना चाहते हैं तो वे कर सकते हैं किंतु अंडर ग्रेजुएशन की पढ़ाई कर रहे बच्चे को कम से कम दो सेमेस्टर उस संस्थान में पढ़ाई करने दीजिए, पोस्ट ग्रेजुएशन में एक सेमेस्टर विदेशी संस्थान में पढ़ने दीजिए। उसकी डिग्री हिन्दुस्थानी संस्थान ही देगा। हमने यह भी कहा कि अगर कोई बच्चा विदेशी संस्थान में जाता है तो उनको भारत के संस्थान के श्रेय को स्वीकार करना पड़ेगा। ऐसा हमने पहली बार किया है।
भारत का एक स्कूली शिक्षक पढ़ाने के अलावा और कितनी ही तरह के काम करता है, ऐसा क्यों?
पहले तो यह देखना होगा कि शिक्षक शिक्षा के लिए कितने घंटे देता है, पर इसके लिए कोई डाटा नहीं है, यह एक चुनौती है। ऐसा डाटा हो तो हमें हर जिले का पता हो कि कौन शिक्षक कितना पढ़ा रहा है। हम एक शाला अस्मिता योजना शुरू करने जा रहे हैं जिसके अंतर्गत स्कूल के सभी छात्रों और शिक्षकों का डाटा उपलब्ध होगा। यह काम फरवरी 2017 तक हो जाएगा। दुनिया के इतिहास में कहीं भी इतना बड़ा डाटा उपलब्ध नहीं है। हमारे यहां 25 करोड़ बच्चे शिक्षा व्यवस्था से जुड़े हुए हैं। इन सबका डाटा हम इस योजना के अंतर्गत उपलब्ध कराएंगे।
जब वे दरारें, जिनसे कुछ लोगों को लाभ पहुंचता रहा है, बंद हो जाएं तो वे लोग तंत्र में सेंध लगाकर चीजों को अव्यवस्थित करने का प्रयास करते हैं, वे डरे हुए हैं। ऐसे लोगों ने मेरा रास्ता रोकने का प्रयास किया।
आप इतने सारे अच्छे काम इतनी तेजी से कर रही हैं, लेकिन फिर भी विरोधियों के निशाने पर आप ही रहती हैं। ऐसा क्यों?
क्योंकि मैं इतना अच्छा, इतनी तेजी से काम कर रही हूं। मुझे लगता है कि जिन लोगों ने मुझ पर प्रहार किया वह इसीलिए कि उन्हें भय था कि मैं इस तंत्र से नहीं हूं। इस क्षेत्र से नहीं हूं। कहीं मैं उनका नुक्सान न कर दूं। उनका भय स्वाभाविक था। जिन लोगों ने यह सोचकर मुझ पर आक्रमण किया कि मुझ पर हमला करने से राहुल जी प्रसन्न होंगे उनका भी ऐसा करना स्वाभाविक था। कुछ ऐेसे भी हैं जो यह मानते हैं कि यह कल की आई लड़की जाने अपने आपको क्या समझती है। वह भी स्वाभाविक है। कुछ तो इसलिए हमला करते हैं क्योंकि उनको इसकी आदत है। लेकिन कुछ ऐसे लोग भी आक्रमण करते हैं जो तंत्र के भीतर पैठ बनाए हुए हैं और सिस्टम की अकर्मण्यता से उनको लाभ होता रहा है। तो मेरी चिंता इस आखिरी वर्ग के लोगों को लेकर है। इससे पहले के पांच प्रकार के विरोधियों की मुझे ज्यादा परवाह नहीं है। मेरी चिंता तो छठे किस्म के लोगों को लेकर है क्योंकि जब आपके माध्यम से वे दरारें, जिनसे उनको लाभ पहुंचता रहा है, बंद हो जाएं तो उससे आर्थिक लाभ उठाने वाले लोग तंत्र में सेंध लगाकर चीजों को अव्यवस्थित करने का प्रयास करते हैं, वे लोग जो बहुत सालों से शैक्षिक स्वतंत्रता के नाम पर किताबें लिखने का पैसा लेते रहे हैं (पर लिखते नहीं हैं), उनको चिंता हो रही है, वे डरे हुए हैं। वे लोग जिन्होंने अपना पूरा शैक्षिक कॅरियर सिर्फ एक विचाराधारा के विरोध में निकाला,लेकिन उनके पढ़ाने के घंटे देखें जाएं तो हफ्ते में सिर्फ दो ही निकलेंगे, उनको डर लगता है। ऐसे लोगों ने मेरा रास्ता रोकने का प्रयास किया। लेकिन देश उनसे जानना चाहता है कि मोटी तनख्वाह लेने के बाद भी वे पढ़ाते क्यों नहीं हैं। मेरा मानना है कि अगर आप अच्छी नीयत के साथ बदलाव चाहें तो बदलाव लाया जा सकता है।
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