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पाञ्चजन्य ने सन् 1968 में क्रांतिकारियों पर केन्द्रित चार विशेषांकों की शंृखला प्रकाशित की थी। दिवंगत श्री वचनेश त्रिपाठी के संपादन में निकले इन अंकों में देशभर के क्रांतिकारियों की शौर्यगाथाएं थीं। पाञ्चजन्य पाठकों के लिए इन क्रांतिकारियों की शौर्यगाथाओं को नियमित रूप से प्रकाशित करेगा ताकि लोग इनके बारे में जान सकें। प्रस्तुत है 29 अप्रैल ,1968 के अंक में प्रकाशित भगत सिंह के साथी रहे कमलनाथ तिवारी का आलेख:-
ल्ल कमलनाथ तिवारी
मेरे जीवन में क्रांतिकारी परिवर्तन लाने और उसकी दिशा को एकदम बदलने वाली घटना तब घटी, जब मैं केवल 15-16 वर्ष की आयु का नौजवान था। तब मैं बिहार के चंपारण जिले के बेतियाराज के स्कूल में पढ़ता था। उसी घटना से मेरे जीवन में सरकार के साथ संघर्ष मोल लेने की प्रवृत्ति पैदा हुई थी। जोशीले नवयुवकों की हमारी एक टोली थी, जो अधिकतर आर्यसमाज के धार्मिक व सामाजिक कार्यों में विशेष दिलचस्पी लिया करती थी। एक ओर आर्यसमाज का प्रचार जोरों पर था, तो दूसरी ओर कैथोलिक मिशन के पादरियों का काम भी खूब चल रहा था। 1925 में दोनों में कुछ तनाव बढ़ा और संघर्ष की सी स्थिति पैदा हो गई, तो जिला मजिस्ट्रेट ने धारा 144 लगा दी। मैंने और मेरे साथियों ने एक सभा करके धारा 144 के प्रतिबंध को न मानने की अपील की हमारी धारणा यह थी कि सरकार ने ईसाई पादरियों का पक्ष लेकर उनको संरक्षण देने के लिए धारा 144 लागू की है। रिपोर्ट जिला पुलिस सुपरिंटेंडेंट के पास पहुंची। उसने मेरे स्कूल के हेडमास्टर को मेरे विरुद्ध कार्रवाई करने को लिखा। मुझे उस टोली का नेता समझा गया और स्कूल से अलग कर दिया गया। जब मैंने स्कूल छोड़ने का सर्टिफिकेट मांगा तब उस पर यह भी नोट लिख दिया गया कि मैंने लोगों को धारा 144 के प्रतिबंध को तोड़ने के लिए उकसाया है और स्वयं उसको तोड़ा है, इस कारण मुझको स्कूल से अलग किया गया है। मैंने जिस किसी भी स्कूल में भर्ती होने की कोशिश की, वहां के अधिकारियों ने मेरे सर्टिफिकेट पर लिखा नोट देख कर मुझे अपने यहां भर्ती करने का साहस नहीं किया।
मैंने सब ओर से निराश हो और थककर अपने एक मित्र मणिभूषण भट्टाचार्य के पिता से परामर्श किया। वे उस समय बेतिया राज्य में सरकारी ऑडिटर थे। वे मुझे भली प्रकार जानते थे और यह भी जानते थे कि मेरे आर्यसमाज के अलावा जिले के उन लोगों के साथ भी संबंध हैं, जिनको क्रांतिकारी कहा जाता है। उन्होंने मुझे कलकत्ता जाकर पढ़ाई करने का परामर्श दिया, क्योंकि चंपारण में किसी स्कूल में दाखिल होना मेरे लिए संभव न रहा था। कलकत्ता मेरे लिए बिल्कुल नया था। मैं वहां उनके पुत्र मणिभूषण भट्टाचार्य के सिवाय किसी और से परिचित न था। फिर भी पढ़ाई जारी रखने की उत्कट इच्छा होने से मैंने कलकत्ता जाने का निश्चय कर ही लिया और भाई मणिभूषण भट्टाचार्य को अपने पहुंचने की सूचना दे दी। वे मुझे हावड़ा स्टेशन पर मिले और मैं उनके साथ आर्यसमाज मंदिर 19 कार्नवालिस स्ट्रीट में आ गया जहां वे रहते थे, जो आर्यसमाज से बहुत दूर न था। मैं एक छोटे से स्थान से इतने बड़े नगर में पहुंचा था। नगर बिल्कुल नया और इतना बड़ा था कि पहले ही दिन जब मैं बाहर गया तो रास्ता भूल गया। दिनभर भटकता रहा। मेरी एक कठिनाई यह भी थी कि मैं बंगला बिल्कुल नहीं समझता था। केवल हिन्दी और थोड़ी-सी अंग्रेजी जानता था। सारा दिन इधर-उधर भटकते हुए रात को बड़ी मुश्किल से आर्यसमाज पहुंचा। तीन-चार दिन बाद श्री दीनबंधु आचार्य से मिलना हो सका। वे मेरी और मेरे घर की स्थिति से भली-भांति परिचित थे, क्योंकि वह आर्यसमाज के काम पर प्राय: बेतिया आया-जाया करते थे। उन्होंने आर्यसमाज के तत्कालीन मंत्री श्री हरगोविंद गुप्त से कहकर मेरे लिए आर्यसमाज के कार्यालय का काम मुझे सौंप दिया और आर्यसमाज में रहने की अनुमति दे दी। मैं आर्यसमाज के कार्यालय के अलावा अन्य सब काम, यहां तक कि झाड़ू लगाने और दरियां बिछाने आदि का भी बड़ी तत्परता से करने लग गया। मंत्री जी तथा अन्य अधिकारी मेरे काम से इतने संतुष्ट थे कि किसी ने कभी मेरे वहां रहने पर आपत्ति नहीं की।
डॉ. मुखर्जी की अनुमति मिली
आर्यसमाज में रहने की व्यवस्था तो हो गई, किंतु मैं अपनी पढ़ाई जारी रखने के लिए कलकत्ता गया था। मैंने बागबाजार के विद्यासागर हाईस्कूल में दखिल होने का विचार किया और वहां के हेडमास्टर साहब से मिला। वे बड़े ही सहृदय और वयावृद्ध सज्जन थे। श्री ईश्वरचंद्र विद्यासागर के संबंधी भी थे। उन्होंने अपने स्कूल में बैठने की अनुमति तो दे दी, किंतु सीनेट के सदस्य डा. श्यामाप्रसाद मुखर्जी की मार्फत सीनेट से नाम लिखवाने के लिए अनुमति प्राप्त करनी आवश्यक बताई। मैं डाक्टर साहब के पास गया और हेडमास्टर ने भी मेरी बड़ी सहायता की। सीनेट की अनुमति मिल गई और मेरी पढ़ाई का सिलसिला विधिवत शुरू हो गया। मैंने इस घटना का इतने विस्तार से उल्लेख करना आवश्यक इसलिए समझा कि इसके ही कारण मेरे हृदय में अंग्रेजी राज्य के विरुद्ध विद्रोह की भावना अंकुरित हुई थी। क्रांतिकारी दल के सदस्यों के साथ बेतिया में मेरा जो मेल-जोल था, वह कलकत्ता आकर अधिक गहरा हुआ। मैं यदि कलकत्ता न आता तो कदाचित् मेरे जीवन ने यह दिशा न पकड़ी होती, जिसमें मैं यहां आकर पड़ गया।
दिन बीतते गये। मेरे परिचय का क्षेत्र कुछ बढ़ता गया, किंतु शुरू में वह आर्यसमाज तक ही सीमित रहा। मेरा स्वभाव उन दिनों में कुछ ऐसा था कि मैं अपना अधिक समय विद्यालय की पढ़ाई में ही लगाता था और शेष समय कामकाज में बीत जाता था, आर्यसमाज के साप्ताहिक सत्संग में शहर के काफी लोग शामिल होने आया करते थे। उनमें सभी तरह के, सभी विचारों के और सभी वर्गों के लोग होते थे। इस साप्ताहिक सत्संग के माध्यम से ही मैं भाई सत्यदेव विद्यालंकार, बहिन सुभद्रा और बहिन सुशीला से मिला। उनकी एक छोटी सी मंडली थी। वे सब एक साथ सत्संग में आते, इकट्ठा बैठते और एक साथ ही वापस जाते। उनके ही कारण आर्यसमाज में समय-समय पर और आयोजन भी होने लगे। लाला लाजपतराय के स्वर्गवास और पं. जवाहरलाल नेहरू के आगमन आदि पर बहिन सुभद्रा जी की अध्यक्षता में जो सभाएं हुईं, उनमें बहिन सुशीला और भाई सत्यदेव जी ने विशेष भाग लिया। इस कारण मेरा उनकी ओर झुकाव बढ़ता गया और परिचय भी गहरा होता गया। बहिन सुशीला बाद में क्रांतिकारियों के दल में सक्रिय भाग लेने पर 'दीदी' नाम से प्रसिद्ध हुई। उनके साथ मेरा परिचय बहिन सुभद्रा जी की ही मार्फ त हुआ था। मुझे बाद में पता चला कि लाहौर में शहीद भगवती चरण के संपर्क में आने के कारण उनका क्रांतिकारी दल के अन्य सदस्यों, विशेषत: सरदार भगतसिंह के साथ भी पुराना परिचय था। परंतु इस नाते उनसे परिचय न हो सका। क्रांतिकारी दल का यह नियम था कि बिना आवश्यकता के न तो एक दूसरे से परिचय प्राप्त किया जाता था न मिला जाता था और न नाम ही पूछा जाता था। इसलिए उनके साथ मेरा परिचय कुछ अधिक न हो सका। अधिक परिचय तो बहिन सुभद्रा और भाई सत्यदेव जी के साथ ही हुआ। वह परिचय उत्तरोत्तर बढ़ता ही गया और आज भी वैसा ही कायम है।
जब भगतसिंह कलकत्ता आए
दिसम्बर, 1928 में सौंडर्स हत्याकांड के कुछ दिन पहले सरदार भगतसिंह देशी बम बनाने के लिए कुछ आवश्यक केमिकल्स खरीदने के उद्देश्य से कलकत्ता आये। वह काम मुझे सौंपा गया। उनका बाजार में जाना संदेहास्पद हो सकता था। मैं बहुत सी दुकानों पर गया, अधिकतर दुकानदारों ने सरकारी प्रतिबंध के कारण केमिकल्स देने से इनकार कर दिया। बाद में क्रांतिकारी दल से सहानुभूति रखने वाले दुकानदारें के यहां मैं भाई बैजनाथ सिंह विनोद के साथ गया। उनसेे आवश्यक केमिकल्स मिल गये। उनमें 'बी. पाल' का नाम मुझे आज भी याद है। उनको एक भूटिया के सिर पर रखवा हम दोनों आर्यसमाज लौट रहे थे कि भूटिया की टोकरी उसके सिर से गिरने को हुई और हमने उसकी कुछ ऐसे डांटडपट करनी शुरू कर दी, जैसे कि हमारा उससे कोई संबंध ही न हो।
बात यह थी कि सामने ही एक सार्जेंट खड़ा था। हमें भय हुआ कि यदि कहीं उसको केमिकल्स के बारे में संदेह हो गया तो हम दोनों उसके चंगुल से बच न पाएंगे। हमारी डांटडपट काम कर गई। भूटिया संभलकर आगे बढ़ गया और साजेंट का ध्यान उसकी ओर से हटकर हम पर लग गया। उसने हमको समझाया कि उस मामूली सी बात पर गरीब भूटिया को डांटने की क्या जरूरत थी। थोड़ी दूर जाकर सामान रिक्शा पर रख दिया गया और हम दोनों सकुशल सामान के साथ आर्यसमाज पहुंच गये। दूसरे दिन सबेरे सरदार भगतसिंह फणीन्द्रनाथ घोष और जतीन्द्रनाथ दास के साथ आर्यसमाज में आये। ये दोनों बाद में लाहौर षड्यंत्र केस के लिए गिरफ्तार किये गये थे। फणीन्द्रनाथ घोष तो गिरफ्तार होते ही सरकारी गवाह बन गया और जतीन्द्रनाथ दास लाहौर जेल में लंबा अनशन करने के कारण शहीद हो गये। तीनों ने मिलकर देशी बम बनाने में काम आनेवाली 'गन काटन' तैयार की। शेष केमिकल्स और गन काटन लेकर सरदार भगतसिंह आगरा के लिए रवाना हो गये। वहां ही हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोशिएशन की बम फैक्ट्री थी। तब भी सरदार भगतसिंह के संबंध में मैं सुशीला दीदी से नहीं मिला था।
जनता के जागरण हेतु
1928 की कलकत्ता कांग्रेस की प्रतिक्रिया उग्र विचारों के कांग्रेसियों में कुछ अधिक अनुकूल न हुई थी। उनमें से बहुत से तो निराश होकर ही अपने घरों को लौटे थे। नेहरू रिपोर्ट का आधार औपनिवेशिक स्वराज्य था। क्रांतिकारी दल में विशेषत: हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन के सदस्यों में तो यह विचार घर कर गया था कि कांग्रेस एक बार फिर नरम दल का मार्ग अपनाने जा रही है। इस कारण सारी परिस्थिति पर विचार करने के बाद हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन ने तय किया कि कोई ऐसा कार्य किया जाना चाहिए, जिससे देश में छाई हुई निराशा, निष्क्रियता तथा निर्जीवता दूर होकर कुछ चेतना पैदा हो जाये।
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