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नैतिकता को छोड़ झूठी और भ्रामक खबरों के सहारे लोगों को बरगलाने से बाज नहीं आ रहा मीडिया
दशकों पहले जो कुछ कश्मीरी पंडितों के साथ हुआ था वही कैराना में दोहराया जा रहा है। मीडिया का रवैया जो उस वक्त था, करीब-करीब वही अब भी है। कैराना में जो कुछ हो रहा है वह आज की खबर नहीं है। बीते 3-4 साल से यह बात लोकल अखबारों में छपती रही है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कई कस्बों में हिंदू कारोबारियों के लिए काम-धंधा मुश्किल हो चुका है। पर तथाकथित सेकुलर मीडिया को दिल्ली से सिर्फ 100-200 किलोमीटर की दूरी पर हो रही यह घटना कभी दिखाई नहीं दी। अब जब स्थानीय भाजपा सांसद हुकुम सिंह ने अपने स्तर पर ऐसे लोगों की सूची बनाई जो बीते कुछ साल में घर-बार छोड़कर चले गए, तो सेकुलर चैनलों और पत्रकारों को सांप सूंघ गया। पहले तो ऐसा लगा जैसे किसी ने न कुछ सुना, न देखा। जब मानवाधिकार आयोग ने राज्य सरकार को नोटिस भेजा, तब जाकर मीडिया की नींद टूटी। जी न्यूज और कुछ स्थानीय चैनल तो पहले से ही यह मामला उठा रहे थे, लेकिन बाकी मीडिया का रवैया अजीब रहा।
कैराना मामले पर अगर आप 12 जून और 13 जून की मीडिया कवरेज को उठाकर देखें तो जमीन-आसमान का अंतर नजर आएगा। रविवार 12 जून को पहली बार ज्यादातर चैनलों ने कैराना पर रिपोर्ट दिखाई। इसी दिन अखबारों में भी खबरें छपीं। ज्यादातर अखबारों और चैनलों के संवाददाताओं ने कैराना में पहुंचने के बाद माना कि डर का माहौल है। कई घरों पर ताले लटके हैं और कई घरों-दुकानों पर बिकाऊ होने का नोटिस लगा है। कोई खुलकर बोलने को तैयार नहीं था। सिर्फ इतना पता चला कि ज्यादातर घर हिंदुओं के हैं। लेकिन अगले ही दिन यानी सोमवार की कवरेज देखें तो तस्वीर बिल्कुल उलट चुकी थी।
अखबारों में जान-बूझकर विरोधाभासी खबरें छापी गईं। 12 जून को आजतक चैनल बता रहा था कि कैराना में हिंदू मुहल्लों की गलियां सूनी पड़ी हैं, लोग डर के मारे बात करने को तैयार नहीं हैं। 13 जून को वही चैनल 'कैराना का 100 सच' दिखाने का दावा करने लगा। अबकी बार रिपोर्टर बार-बार खुद कह रहा था कि वह प्रशासन के साथ यहां आया है। इस रिपोर्ट में हिंदू मुहल्लों की गलियां गायब हो गईं। बंद ताले गायब हो गए। 346 परिवारों के पलायन का 100 सच दिखाने के लिए चैनल ने प्रशासन के बताए 3-4 लोगों से बात की और घोषित कर दिया कि सब कुछ ठीक है। अगले ही दिन टाइम्स ऑफ इंडिया समेत कुछ अखबारों ने बिना किसी बयान के खबर छाप दी कि आरोप लगाने वाले सांसद ने यू-टर्न ले लिया। दिल्ली के ज्यादातर अखबार और न्यूज चैनल दरअसल यू.पी. में नोएडा से चलते हैं। कैराना मामले पर 12 और 13 तारीख के बीच मीडिया के यू-टर्न की असली वजह भी यही लगती है। इन दिनों अखबारों में रोज 2-2 पेज के अखिलेश सरकार के विज्ञापन छप रहे हैं। जल्द ही न्यूज चैनलों पर भी ऐसे विज्ञापन दिख जाएंगे। अगर इस कारोबारी फायदे में हजारों हिंदुओं पर अत्याचार की खबर दबा दी गई तो इसमें कोई बड़ी बात नहीं। इससे ठीक पहले मथुरा कांड में भी यही देखने को मिला। हिंसा की पहली खबर आने के 24 घंटे तक दिल्ली की मीडिया जवाहर बाग को आश्रम बताती रही। जब मुलायम परिवार के अंदरूनी झगड़े की बात आई तो सांसद हेमामालिनी पर हमले शुरू कर दिए गए। किसी ने नहीं पूछा कि मुख्यमंत्री कहां हैं। उत्तर प्रदेश में मीडिया जिस तरह मुलायम कुनबे के बचाव में खड़ी है कुछ वही स्थिति बिहार में भी है। फर्जी टॉपर मामला खुलने के कई दिनों तक किसी चैनल ने आरोपियों के राजनीतिक संपकोंर् की चर्चा करने की हिम्मत नहीं की।
दिल्ली सरकार के आगे तो मीडिया का हाल और भी बुरा है। केजरीवाल की पार्टी किन पत्रकारों पर बरस रही है उसकी लिस्ट भी सोशल मीडिया पर आ चुकी है। दिल्ली में हाल ही में बने एक फ्लाई ओवर में दरार पड़ने का समाचार एक अखबार में छपा, लेकिन अगले ही दिन वो खबर गायब हो गई। उसकी जगह दिल्ली के आत्ममुग्ध मुख्यमंत्री की मुस्कुराती तस्वीरों वाले विज्ञापनों ने ले ली। केजरीवाल विज्ञापनों के दम पर मीडिया को नचा रहे हैं। पिछले साल नवंबर में द हिंदू अखबार ने खबर छापी थी कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ नाथूराम गोडसे की पुण्यतिथि मनाएगा। वह खबर फर्जी है ये मानने में अखबार के संपादकों को छह महीने से ज्यादा लग गए। बीते हफ्ते एक छोटी सी सफाई छापकर अखबार ने अपना कर्तव्य पूरा कर लिया। इसी तरह जब इलाहाबाद में भाजपा कार्यकारिणी की बैठक चल रही थी तो नवभारत टाइम्स की वेबसाइट पर खबर पोस्ट की गई कि मुरली मनोहर जोशी को बुलाया तक नहीं गया। जिस वक्त यह खबर पोस्ट की गई, उसी वक्त डॉक्टर जोशी बैठक में विचार-विमर्श में शामिल थे। अखबार के एक संपादक ने जान-बूझकर यह मनगढ़ंत रिपोर्ट लिखी थी। मीडिया में बैठे कांग्रेसी और वामपंथी कार्यकर्ता चुपचाप इस तरह की फर्जी खबरों से लोगों में भ्रम पैदा करने की कोशिश करते रहते हैं। लेकिन शायद ही कभी 'आत्म नियंत्रण की वकालत करने वाली मीडिया की संस्थाओं ने इस प्रवृत्ति पर कोई चिंता जताई हो।
नारद
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