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अच्छे अंक हासिल करने और प्रतियोगी परीक्षा में पास होने का दबाव छात्रों को आत्महत्या के लिए मजबूर कर रहा है। बच्चे आत्महत्या करें, इससे बुरा और क्या हो सकता है? परीक्षा के दबाव में फिर कोई जान न जाए, इसके लिए कुछ ठोस उपाय करने होंगे
अश्वनी मिश्र
मैं तीन साल से आईआईटी की परीक्षा पास करने के लिए जूझ रहा हूं। लेकिन इसे पास नहीं कर पा रहा हूं। …मां और पापा की जिद है कि मैं सिर्फ और सिर्फ इंजीनियर ही बनूं। पर मुझे शुरू से अभिनय के साथ-साथ बड़े लोगों की 'मिमिक्री' करना अच्छा लगता है। मैं बार-बार उनसे कहता हूं कि मुझे इंजीनियर नहीं बनना पर उनके दबाव के आगे मेरी एक नहीं चलती। …आत्मग्लानि और बढ़ते तनाव के चलते मैं अपना जीवन समाप्त करने का फैसला कर रहा हूं।''
यह सुुसाइड नोट उत्तर प्रदेश के बांदा के रहने वाले अभिषेक शर्मा का है। अभिषेक ने 10 फरवरी को कोटा के एक छात्रावास के कमरे में फांसी लगाकर जान दे दी। अभिषेक यहां एक कोचिंग सेंटर से आईआईटी प्रतियोगिता परीक्षा की तैयारी कर रहा था।
यह कहानी सिर्फ अभिषेक की हो, ऐसा नहीं है। गाजियाबाद की कृति (21) ने भी पिछले दिनों इसलिए आत्महत्या कर ली थी कि क्योंकि वह 'कंपिटीशन' की तैयारी करने के लिए घर से दूर नहीं रहना चाहती थी। हर महीने हजारों रुपये के खर्च और पढ़ाई में प्रतिस्पर्धा के दबाव के चलते वह काफी तनाव में थी। इस तनाव से ऊबकर उसने आत्महत्या का रास्ता चुना और जिंदगी खत्म कर ली।
राजस्थान का कोटा वर्षों से मेडिकल और इंजीनियरिंग प्रवेश परीक्षाओं में बेहतर परिणाम के लिए जाना जाता है। लेकिन इसका एक स्याह पक्ष यह भी है कि छात्र आत्महत्या कर रहे हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों पर गौर करें तो साल 2014 में कोटा में 45 छात्रों ने आत्महत्या की जो 2013 की अपेक्षा लगभग 61.3 फीसद ज्यादा थी। वहीं 2015 में भी करीब 27 से ज्यादा छात्रों ने मौत को गले लगाया। 2016 की शुरुआत से और मई तक करीब 6 छात्रों ने फांसी लगाकर आत्महत्या की। अप्रैल, 2016 के तीसरे सप्ताह में बिहार के मुंगेर की रहने वाली वैष्णवी (16) ने अपनी जीवनलीला समाप्त की। इस घटना को सुनकर किसी की भी आंखें नम हो जाएंगी। वह एक माह पहले ही कोचिंग के लिए कोटा आई थी। वह कोटा स्थित न्यू राजीव गांधी नगर के गुरु वात्सल्य छात्रावास में रहकर कोचिंग कर रही थी। जिस दिन उसने आत्महत्या की, उसी दिन उसने अपने पिता से घर आने के लिए कहा था। पर पिता ने मना कर दिया और एक स्थानीय जानने वाले के घर चले जाने को कहा। पिताजी के कहने पर वह उनके घर तो चली गई पर अगले दिन ही सुबह-सुबह हॉस्टल आ गई। वह पूरा दिन अपने दोस्तों के साथ रही। सोश्ल साइट्स पर भी जानने वालों से बात की। छात्रावास में उसकी उस दिन की सभी गतिविधियां सीसीटीवी में कैद हो गईं। सीसीटीवी फुटेज के मुताबिक रात 11 बजे व्हाट्सअप पर चैट करने के बाद उसने अपने दोनों हाथों और गले की नस काटीं। फिर हॉस्टल की गैलरी से होते हुए चौथी मंजिल पर जाकर छलांग लगा दी।
पिछले साल अक्तूबर में तो जैसे आत्महत्या का सिलसिला ही चल पड़ा था। सबसे पहले 2 अक्तूबर की दोपहर को राजस्थान के पाली जिले के रहने वाले ताराचंद ने अपने ही कमरे में फंासी लगा ली। 13 अक्तूबर को सिद्धार्थ चौधरी, 21 अक्तूबर को अमितेश साहू, 27 अक्तूबर को विकास मीणा और 30 अक्तूबर को हर्षदीप कौर और अंजलि आनंद ने भी खुद को मौत के हवाले कर दिया। इसी तरह जून, 2015 में भी एक सप्ताह के अंदर ऐसे चार से ज्यादा मामले सामने आए थे।
अधिकतर मामलों की तह में जाएं तो देखने में आता है कि कोचिंग करने के लिए आए छात्र-छात्रों पर पढ़ाई का दबाव तो था ही, साथ ही उससे ज्यादा दबाव अपने परिवार की अपेक्षाओं पर खरा उतरने का था। कुछ मामलों में तो यह भी देखने में आया है कि प्रतिस्पर्धा परीक्षाओं की तैयारी करना कुछ छात्र-छात्राओं का अपना ही निर्णय था, लेकिन जब उन्होंने खुद को पिछड़ता हुआ पाया तो वे यह दबाव सह न सके।
लखनऊ के राजाजीपुरम के रहने वाले सुधीर कुमार, जिनके बेटे अनूप ने पिछले वर्ष आत्महत्या कर ली थी, बताते हैं, ''अनूप इंजीनियर बनना चाहता था। शुरुआत से ही वह पढ़ने में बहुत अच्छा था। उसके कुछ दोस्त कोटा में कोचिंग के लिए गए तो उसने भी मुझसे कहा कि मैं भी कोटा जाकर तैयारी करना चाहता हूं। मैंने उसकी इच्छा को माना और उसे तैयारी के लिए भेज दिया। पर कुछ दिन तो सब ठीक रहा, लेकिन पिछले साल उसने आत्महत्या कर ली। पता नहीं उसने ऐसा क्यों किया।'' अनूप के पिता की आंखों में आज भी उसे याद करते हुए आंसू आ जाते हैं। कोटा के प्रमुख मनोचिकित्सक एवं 'होप' हेल्पलाइन के अध्यक्ष डॉ. एम.एल.अग्रवाल तनाव से जूझ रहे छात्र-छात्राओं से समय-समय पर मिलते रहते हैं। डॉ. अग्रवाल बताते हैं, ''जो बच्चे आत्महत्या करते हैं, उनमें 80 फीसद बच्चे मनोरोगी होते हैं। रोग की पहचान न होने के कारण इनका इलाज नहीं हो पाता है। साथ ही यहां के कोचिंग संस्थान में पढ़ने वाले बच्चे अन्य पढ़ने वाले बच्चों के मुकाबले 25 फीसद ज्यादा अवसाद के शिकार पाए जाते हैं। इसके कई कारण हैं। डर, तनाव, घर से दूरी, उनकी रुचि के अनुसार पढ़ाई का न होना, कुछ हद तक पारिवारिक पृष्ठभूमि।''
वे कहते हैं, ''कुछ हद तक अभिभावक भी इसके लिए जिम्मेदार हैं। अगर बच्चा अभिभावक की इच्छा के बगैर कुछ करने की सोचता भी है तो वे उसकी रुचि पर ध्यान नहीं देते। साथ ही बच्चा जहां से आया होता है, वहां वह अव्वल रहा होता है। पर जब वह कोटा आता है तो पहले से ही यहां अपने ज्यादा पढ़ाकू बच्चे पाता है, जिसके कारण वह पहले के मुकाबले उतना अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पाता। इसे देखकर माता-पिता के साथ बच्चा भी निराश हो जाता है और आत्महत्या जैसे कदम उठा लेता है।''
आत्महत्या करने वाले कुछ छात्रों के अभिभावकों का यह भी आरोप था कि कोटा के कोचिंग संस्थान बच्चों पर अपेक्षित परिणाम का दबाव डालते हैं। लेकिन ये संस्थान इस बात को सिरे से नकारते हैं। उनका कहना है कि वे कोटा आने वाले बच्चों पर किसी भी तरह का कोई दबाव नहीं डालते। लगभग 30 साल से कोटा में कोचिंग क्षेत्र से जुड़े और राव आईआईटी एकेडमी के निदेशक जोगेश्वर सिंह इस मामले पर कहते हैं, ''कोटा का अपना सकारात्मक पक्ष है। तैयारी के लिए अच्छा माहौल और शिक्षण संस्थान हैं। हां, जो घटना हाल ही में देखने में आई उससे एक बात स्पष्ट है कि पढ़ाई का तो दबाव होता है। लेकिन कोई कहे कि कोचिंग संस्थान का दबाव होता है तो यह ठीक नहीं है।''
वे कहते हैं, ''असल में अभिभावकों का बच्चों पर बहुत ज्यादा दबाव होता है। उनकी इच्छाओं पर खरा उतरना उनका ध्येय हो जाता है। अब देखिए, आईआईटी जेईई में लगभग 12 से13 लाख बच्चे बैठते हैं। उसमें सिर्फ 2 लाख ही जेईई एडवांस के लिए प्रोन्नत होते हैं। फिर उस 2 लाख में सिर्फ 10 हजार का ही आईआईटी में चयन होता है। तो इससे समझ सकते हैं कि दबाव तो होता ही है। पहले वह इतना पैसा खर्च कर चुके होते हैं कि अपने माता-पिता को बोल ही नहीं पाते। और असफल होते ही मौत को गले लगा लेते हैं।''
ऐसे ही एक और कोचिंग संस्थान कुमार क्लासेज के प्रबंधक विकास कुमार कहते हैं, ''यदि कोई छात्र किसी और कारण से आत्महत्या करता है तो भी कोचिंग संस्थान का ही नाम आता है। इसलिए कोचिंग संस्थान तो बहाना है। हम सदैव से सोचते हैं कि बच्चे कुछ अच्छा करें। हम उनकी समस्या को सुनते हैं और सुलझाते हैं।''
कोचिंग संस्थान भले ही बच्चों पर दबाव न डालने की बात करते हों पर यहां पढ़ रही छात्राएं मानती हैं कि प्रतिस्पर्धा में बने रहने के लिए दबाव तो होता ही है।
रोशनी परमार कोटा के प्रमुख कोचिंग एलेन करियर इंस्टीट्यूट में पढ़ती हैं। रोशनी बताती हैं, ''यह बिल्कुल सही है कि यहां पढ़ने वाले बच्चों पर प्रतिस्पर्धा में बने रहने के लिए दबाव होता है। हम रात-दिन पढ़ते हैं। कोचिंग से लेकर हॉस्टल तक। कोचिंग में जो कुछ पढ़ाया जाता है, उसको हम कितना पचा पाते हैं, यह हमारे ऊपर निर्भर करता है।'' यह पूछे जाने पर कि आज के युवाओं का रूझान डॉक्टर और इंजीनियर बनने की ओर ही क्यों रहता है, तो रोशनी कहती हैं, ''इसमें जॉब सिक्योर है। आजकल नई-नई बीमारियां बढ़ रही हैं, आबादी के लिहाज से अब भी डॉक्टरों की कई क्षेत्रों में भारी कमी है। तो यह पेशा सदैव अच्छे से चलने वाला है। स्वाभाविक है इसमें हर कोई जाना पसंद करेगा। लेकिन जो बच्चे आत्महत्या करते हैं, उनसे मैं एक ही बात कहना चाहती हूं कि अगर वे यहां का दबाव नहीं झेल पा रहे हैं तो कोई और रास्ता चुनें पर आत्महत्या किसी भी कीमत पर न करें। जीवन से बढ़कर कुछ नहीं है।''
2 लाख
छात्र-छात्राएं हर साल कोटा आते हैं प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करने
24 छात्र-छात्राओं
ने पिछले वर्ष कोटा में की आत्महत्या
1.8 %
छात्र-छात्राओं ने 2014 में परीक्षा में फेल होने पर की थी खुदकुशी
6.1%
ने पढ़ाई में मनमाफिक नतीजे नहीं आने पर कर ली थी खुदकुशी
20.5%
आत्महत्या करने वाले10वीं के छात्र थे
2.39 लाख करोड़
रुपये एसोचैम के मुताबिक है कोचिंग संस्थानों का है सालाना कारोबार
40 बड़े
कोचिंग संस्थान हैं कोटा में
6 बच्चेभारत में हर दिन परीक्षाओं में पास न होने के कारण आत्महत्या कर लेते हैं
ऐसी ही एक और छात्रा हैं प्रणीता प्रसाद। ये मुंबई से हैं और कोटा के प्रतिष्ठित कोचिंग संस्थान में मेडिकल की तैयारी कर रही हैं। वे हाल की घटनाओं से दुखी हैं। वे कहती हैं, ''मुझे यह बताने में बिलकुल संकोच नहीं कि मेरे पापा ने निर्णय लिया कि मैं मेडिकल की पढ़ाई पढूं। जबकि मुझे परिवार से दूर रहना बिल्कुल भी पसंद नहीं है। लेकिन अब मुझे लग रहा है कि उनका ही निर्णय ठीक है।'' प्रणीता कहती हैं, ''कोचिंग के एक बैच में 500 से लेकर 600 तक बच्चे होते हैं। जिसमें कुछ बच्चों को छोड़ दें तो शिक्षक और छात्र का संवाद हो ही नहीं पाता। अगर किसी को कुछ समझ में नहीं आ रहा है और वह पूछना भी चाहता है तो इतनी भीड़ में संकोच के कारण पूछता ही नहीं। धीरे-धीरे उसके संदेह बढ़ते जाते हैं और वह दबाव में आता जाता है। साथ ही मध्यमवर्गीय परिवारों के बच्चों पर एक आर्थिक दबाव भी होता है। वे यहां आकर लाखों रुपये फीस से लेकर, रहने, खाने, हॉस्टल और अन्य खर्चों पर खर्च कर चुके होते हैं जिसके कारण उन पर घर का दबाव हो जाता है। और जब वे देखते हैं कि कुछ अच्छा नहीं कर पा रहे तो गलत कदम उठाने में नहीं हिचकते।'' हालांकि ऐसी बढ़ती घटनाओं के बाद कोटा जिला-प्रशासन ने कोचिंग संस्थानों को 13 बिन्दुओं का एक विस्तृत आदेश जारी किया है। इसमें मनोचिकित्सकांे द्वारा काउंसलिंग, कोचिंग संस्थान में मनोचिकित्सक की नियुक्ति, सप्ताह में एक अनिवार्य अवकाश, तनावपूर्ण बैच व्यवस्था, फीस जमा करने के बाद वापस मांगने पर नियम के अनुसार उसे वापस करने जैसे प्रावधान किये गए हैं।
साथ ही जिला प्रशासन और समाजसेवियों ने छात्र-छात्राओं को तनावमुक्त रखने के लिए 2010 में 'होप' नाम से एक हेल्पलाइन की शुरुआत की थी। उस समय कोटा के अधिकतर कोचिंग संचालकों ने इस पर आने वाले खर्चे को मिलकर वहन करने की बात की। तीन साल तक तो यह हेल्पलाइन चलती रही,पर धीरे-धीरे इस पर ध्यान देना बंद हो गया और यह बंद हो गई। खैर फिर से इस हेल्पलाइन की शुरुआत हुई है। डॉ. एम.एल अग्रवाल कहते हैं कि जब यह हेल्पलाइन चल रही थी तो कोटा में छात्रों की आत्महत्या की दर में एक तिहाई तक कमी आई थी। राष्ट्रीय अपराध अनुसंधान ब्यूरो के आंकड़ों पर गौर करें तो स्थिति बड़ी भयावह है। वर्ष 2001 से 2014 तक के बीच भारत में परीक्षाओं में फेल होने के कारण 31,877 बच्चों ने आत्महत्या कर ली।
एनसीईआरटी के निदेशक रहे प्रो. जगमोहन सिंह राजपूत इस विषय पर कहते हैं, ''अभिभावकों को बच्चों की रुचि को जानना होगा और उसे उसी क्षेत्र में आगे बढ़ने में मदद करनी होगी। हमें ये प्रावधान करने होंगे कि अध्यापक, विद्यालय और अभिभावक मिलकर हर बच्चे को उसी दिशा में आगे बढ़ने दें, जिसमें उसकी रुचि हो।'' वे कहते हैं, ''अध्ययन-अध्यापन की विधा आमूल-चूल परिवर्तित हो सकती है, यदि हमारे अध्यापक यह समझ लें कि ज्ञान, विज्ञान और कुशलता का खजाना हर विद्यार्थी में निहित है। अगर किसी विद्यार्थी को ट्यूशन या कोचिंग जाना पड़ता है तो इसे उनके स्कूल की कार्य संस्कृति में कमी और उनके अध्यापकों की अक्षमता माना जाए तो सब कुछ बदल सकता है। स्कूल, अध्यापक और अभिभावक ये तीनों अगर एक साथ निर्णय करें तो कोचिंग भी बंद होंगी और आत्महत्याएं भी।''
वर्तमान में मेडिकल और इंजीनियिंंरग के अलावा बहुत से ऐसे क्षेत्र हैं जहां युवा अपने हुनर के दम पर नाम कमा रहे हैं। वह बड़े से बड़े पद पर हंै। बहरहाल, अभिभावकों का यह सोचना कि मेरे बच्चे को प्रतियोगी परीक्षा में सफलता का परचम हर हाल में लहराना है, गलत है। साथ ही बच्चों का यह सोचना कि एक असफलता उनकी प्रगति के सारे रास्ते बंद कर देगी, यह भी गलत है। कोटा की घटनाएं बता रही हैं कि अभिभावकों और बच्चों दोनों को अपनी गलतियों से सबक सीखना होगा।
स्कूल निर्णय करें कि उनके किसी विद्यार्थी को ट्यूशन या कोचिंग जाना पड़ता है तो इसे उनकी कार्य संस्कृति में कमी और अध्यापकों की अक्षमता माना जाएगा। अगर वे ऐसा करते हैं तो सब कुछ बदल सकता है।
—प्रो.जे.एस.राजपूत, पूर्व निदेशक, एनसीईआरटी
जो बच्चे आत्महत्या करते हैं,उनमें 80 फीसद मनोरोगी होते हैं। इसके अलावा डर, घर से दूरी, रुचि के अनुसार पढ़ाई का न होना,माता-पिता का दबाव, आत्महत्या के अन्य कारण हैं।
—डॉ. एम.एल.अग्रवाल, मनोचिकित्सक, कोटा
पोर्टल की शुरुआत
केन्द्र सरकार कोचिंग संस्थानों पर नकेल कसने के लिए आईआईटी एप शुरू करने पर विचार कर रही है। मानव संसाधन विकास मंत्रालय आने वाले दिनों में एक मोबाइल एप और पोर्टल शुरू करेगा, जहां विभिन्न विषयों पर आईआईटी शिक्षकों के व्याख्यान उपलब्ध होंगे। इसमें छात्रों को तैयारी करने में मदद मिलेगी। इसके आलावा पिछले वर्षों के प्रश्न पत्र भी यहां उपलब्ध होंगे।
भावनात्मक अपील
खुदकुशी की घटनाओं से व्यथित होकर कोटा के जिला कलेक्टर रवि कुमार सुरपुर ने जनवरी महीने में पांच पन्नों की भावनात्मक अपील की थी। इसमें उन्होंने गुजारिश की कि माता-पिता अपनी अपेक्षाओं और सपनों को बच्चों पर न थोपें, बल्कि वे जो करना चाहते हैंं, उन्हें वही करने दें। साथ ही उन्होंने कोचिंग संस्थानों से भी कहा, ''बच्चों के बेहतर प्रदर्शन के लिये उन्हें डराने धमकाने के बजाए आपके सांत्वना के बोल और नतीजों को भूलकर बेहतर करने के लिए प्रेरित करना उनकी कीमती जान बचा सकता है। मेरा दुर्भाग्य है कि मुझे 20 से ज्यादा बच्चों के सुसाइड नोट पढ़ने पड़े। इन्हें पढ़कर लगा, अधिकतर बच्चों ने माता-पिता की इच्छा पूरी न होने और पढ़ाई के दबाव में आत्महत्या की है।''
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