|
मथुरा के चर्चित जवाहर बाग प्रकरण ने कुछ ज्वलंत प्रश्न खड़े किये हैं। पुलिस के लिए, प्रशासन के लिए, पुलिस की कार्य पद्धति पर और उसके ऊपर क्या राजनीतिक दबाव रहते हैं। जवाहर बाग में उत्तर प्रदेश पुलिस को भारी कीमत चुकानी पड़ी है। एस.पी. स्तर के एक बड़े अधिकारी मुकुल द्विवेदी और अधीनस्थ संतोष यादव को खोकर। इसकी भरपाई कभी नहीं हो सकती। लेकिन अगर इसकी पृष्ठभूमि में जाएं तो रामवृक्ष यादव का मथुरा आगमन,जवाहर बाग में उसको डेरा जमाने की अनुमति दिए जाने और उसके बाद कालांतर में ढाई वर्ष तक बना रहना क्या था? उच्च न्यायालय के हस्तक्षेप के बाद भी जनवरी,2016 में अंतरिम नोटिस दिये जाने के बावजूद स्थानीय पुलिस मूकदर्शक बनी रही। शासन-प्रशासन की बिना मूक सहमति के इस प्रकार का अंधेर हो ही नहीं सकता। सबसे पहली चीज, अगर पुलिस के हाथ में सब कुछ होता तो पुलिस अधीक्षक कम से कम इस प्रकार के अवैधानिक दबाव में न आते। ये भी जानकारी मिली है कि जिलाधिकारी ने गृह सचिव को सशस्त्र बलों का मूल्यांकन करके भेजा, जिसमें 25 कंपनी सशस्त्र सैन्य बल, महिला टुकडि़यां, इसके अलावा इतने उपनिरीक्षक, 1,800 सिपाही। अगर जिलाधिकारी बल का मूल्यांकन करके गृहसचिव को भेजते हैं, ये बड़ी स्पष्ट परंपरा है। कदाचित इसमें यह हुआ होगा कि पुलिस अधीक्षक में इतना साहस नहीं था कि अपने वरिष्ठ अधिकारियों से इतनी भारी मात्रा में सशस्त्र बल मांगें। इतनी भारी मात्रा में सशस्त्र बल मांगने का यह तात्पर्य है कि या तो आपको अपना कार्य आता नहीं है या फिर इस प्रकार कार्य कर रहे हैं कि कोई अप्रिय घटना हो जाये, जैसे कोई कहे कि मैंने सशस्त्र बल मांगा, आपने उपलब्ध नहीं कराया, जिसके परिणामस्वरूप अप्रिय घटना घटित हुई। आप जब वहां पर गए, आपने कोई रणनीति, रण कौशल का परिचय भी नहीं दिया। शाम को गए तो क्या ये उम्मीद कर रहे थे कि जाते ही आपके संबोधन के उपरांत वे जमीन खाली कर देंगे? ऐसे ऑपरेशन सामान्यत: सुबह होते हैं। दिन के उजाले में कार्रवाई करने का समय मिलता है। आप अत्याधुनिक हथियारों के साथ-साथ पूरे साजोसामान के साथ गए थे, यह सवाल अहम है। वहां पर जो भागमभाग और ऊहापोह की स्थिति थी वह बिल्कुल विपरीत थी। यह ऑपरेशन संभवत: योजनाबद्ध तरीके से नहीं हुआ। मैं यह भी नहीं कह रहा हूं कि विगत में हुए सभी ऑपरेशन कामयाब रहे। लेकिन असफलता से हम सबक सीख सकते हैं।
कम से कम यह शहादत एक बात तो इंगित करती है कि 'फ्रंट लाइन लीडरशिप' आगे थी। पर आपकी रणनीति, युद्ध कौशल, आपके उपकरण और बाकी कार्ययोजना पर प्रकाश डालने की आवश्यकता है। इन सभी विषयों पर पुलिस को चिंतन करना होगा। अपने उपकरण को आगे बढ़ाना होगा। बताया जाता है कि रामवृक्ष ने अत्याधुनिक हथियारों से गोली चलाई। तो क्या पहले यह आवश्यक नहीं था कि आप अत्याधुनिक हथियारों को निष्क्रिय करते? उसके बाद अगर आपको मालूम था कि वे हथियार के साथ हैं तो क्या ये जरूरी नहीं था कि बुलेटप्रूफ गाडि़यों से आगे बढ़ते? अगर बुलेटपू्रफ गाडि़यों से आगे बढ़ते तो कदाचित इसको रोका जा सकता था। जो गलतियां इस बार हुई हैं, उनकी पुनरावृत्ति न हो, इसके लिए ठोस कार्रवाई, चिंतन और कार्ययोजना की आवश्यकता है। इसके अलावा ये देखें कि इतनी बड़ी घटना घटी पर डीआइजी रेंज, आइजी जोन, ये क्यों नहीं आए? एडीजी (कानून एवं व्यवस्था) तो आए लेकिन मैं नहीं समझता कि इसमें डीआइजी और आइजी के न आने का कोई औचित्य है। ऐसे मौके पर इनको आना ही चाहिए था। न आना एक नकारात्मक संदेश देता है। पुलिस बल नेतृत्व के निर्देश से चलता है और उनका घटनास्थल पर उपस्थित न होना, परिपक्व मार्गदर्शन न करना यह नेतृत्व का अभाव दर्शाता है। मैं समझता हूं कि पुलिस अधिकारियों को प्रशिक्षण की आवश्यकता है। इसमें सबसे पहले अपना स्वास्थ्य, रक्तचाप, अपने उपकरणों का संचालन, हथियार का प्रयोग, अच्छे उपकरण, आधुनिक हथियारों से सुसज्जित होना, वज्र वाहन को 'अपग्रेड' करने की आवश्यकता है। अधिकांश पुलिस बल के पास अभी ये संसाधन उपलब्ध नहीं हैं। सरकार की ओर से आधुनिकीकरण के लिए जो धनराशि आवंटित की जाती है वह आपको फोटो कॉपी और कम्प्यूटर खरीदने के लिए दी जाती है जो आधुनिकरण में शामिल नहीं होता है। आधुनिकरण में अच्छे वाहन, अच्छे आईटी सेलमैन, अच्छे हथियार, ये आधुनिकीकरण हुआ। घटना के बाद उम्मीद की जाती है कि न केवल उत्तर प्रदेश पुलिस बल बल्कि सभी सशस्त्र सैन्य बल और अन्य पुलिस बल इस पर चिंतन करेंगे।
(लेखक उत्तर प्रदेश के पूर्व पुलिस
महानिदेशक रहे हैं)
टिप्पणियाँ