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प्रो. रमेश भारद्वाज
बीसवीं सदी के उत्तरार्ध और 21वीं सदी के उत्खननों से साबित हुआ है कि भारतीय सभ्यता 8,000 ईसा पूर्व की अटूट परंपरा रही है। बीसवीं सदी की शुरुआत में उत्खनन के आधार पर इसे सिंधु-हड़प्पा की नागरी सभ्यता कहा गया था जिसका पश्चिमी इतिहासकारों और उनके भारतीय शिष्यों ने भारत-विरोधी तौर पर इस्तेमाल किया था। आर्य आक्रमण/स्थानांतरण का सिद्धांत इसी मानसिकता की उपज थी जिसने भारतीय समाज की एकता को आर्य-द्रविड़ और वनवासी बनाम विदेशी धरातलों में बांटा था। 1940 के बाद दक्षिण और पश्चिमी भारत में शुरू हुए सामाजिक-राजनीतिक विरोधी अभियान इसी द्वेष की उपज थे।
पुरातात्विक तथ्यों की भ्रष्ट विवेचना के जवाब के तौर पर ही महान
राष्ट्रवादी पुरातत्वविद् डॉ़ बी़ बी़ लाल ने 1960-61 में कालीबंगन के उत्खनन के आधार पर सिंधु-सरस्वती सिद्धांत को स्थापित किया था। यह सिद्धांत भारत की वैदिक सामाजिक-सांस्कृतिक परंपराओं के अनुरूप था।
डॉ़ बी़ बी़ लाल का सिद्धांत मील का पत्थर साबित हुआ था क्योंकि इसके आधार पर भारत की सामाजिक-सांस्कृतिक गतिशीलता का पता चलता था। यह परंपरा वैदिक काल (8,000 ईसा पूर्व) से लेकर 3 सहस्राब्दी ईसा पूर्व तक हड़प्पा की नागरी सभ्यता तक आती है।
पाकिस्तान में जलीलपुर (मुगल, 1972), गोमल मैदान (अली एवं एल्तसव, 2009), सराय खोला-तक्षशिला घाटी (एमए हलीम-1972), रहमान देहरी (एफए दुर्रानी, 1988), मेहरगढ़-बलूचिस्तान (जेरिज और अन्य, 1995) के उत्खननों में भारतीय इतिहास की 7 सहस्राब्दी ईसा पूर्व से पूर्व-हड़प्पा कालीन यात्रा का पता चलता है। वहीं भारत में भी राजस्थान के कालीबंगन (बी.बी. लाल और बी.के. थापर, 1960-61) में 'लुप्त' नदी सरस्वती की सांस्कृतिक थाती के चिन्ह मिले हैं जिसके सिरे 6,700 ईसा पूर्व से परिपक्व हड़प्पा सभ्यता (3,000 ईसा पूर्व) तक फैले हैं।
इसी तरह सोथी की सरस्वती सभ्यता के अवशेष (घोष 1950-51), सिसवल-हिसार (भान, 1971), बनावली-फतेहाबाद (आऱ एस़ बिष्ट), बालु (यू़ वी़ सिंह व सूरज भान-1978-80), राखीगढ़ी (अमरेंद्रनाथ, 1997-99 ; जिसमें हड़प्पा काल के सभी चरणों की जानकारी प्राप्त हुई थी), कुनाल (खत्री एवं आचार्य 1994-95), भिराणा, हरियाणा (राव एवं अन्य 2003-04) कायार्ें से भी 8वीं सहस्राब्दी ईसा पूर्व से धीरे-धीरे विकसित हो रही सरस्वती-हड़प्पा सभ्यता का पता चलता है। रेडियोमीट्रिक डेटिंग पर आधारित इन तमाम पुरातात्विक साक्ष्यों से भारतीय सभ्यता के कम से कम दस हजार वर्ष पुराने संबंधों की जानकारी मिलती है। परंतु भारत के प्राचीन इतिहास की स्कूली पुस्तकों में मार्शल के 3,000 ईसा पूर्व सिद्धांत को तरजीह दी जाती रही है, जिसे तथाकथित मुख्यधारा इतिहासकारों ने हमारे अस्तित्व को तोड़-मरोड़ कर पेश करने के लिए तैयार किया था।
पिछले तीन वर्ष के दौरान दिल्ली विश्वविद्यालय का संस्कृत विभाग वैदिक कालक्रम नामक एक परियोजना चला रहा है। इसके आधार पर ऋग्वेद की तिथि (खगोलीय साक्ष्यों द्वारा प्रस्तावित 6,000 ईसा पूर्व) आंकी गई है। यह वामपंथी और पश्चिमी इतिहासकारों द्वारा प्रस्ताविक एक सहस्राब्दी ईसा पूर्व के सिद्धांत से बिल्कुल जुदा है। इसके अलावा, परिपक्व हड़प्पा काल उत्तर वैदिक साहित्य (ब्राह्मण आदि) से जुड़ा है, जिनकी निकटता और संगम उस समय के पुरावशेषों से संबद्ध हैं।
सितंबर, 2015 में हमने 'द क्रोनोलॉजी ऑफ वैदिक लिटरेचर (संहिता, ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद एवं सूत्र) : ए रीअसेसमेंट (लिपि, पुरातात्विक, खगोलीय, पौराणिक, सामाजिक, पुरालेखों एवं जेनेटिक अध्ययनों) पर राष्ट्रीय गोष्ठी का आयोजन किया था। इसमें विशेषकर पुरातात्विक विशेषज्ञों सहित अनेक कार्यक्षेत्रों के तीन सौ से अधिक विशेषज्ञों ने शिरकत की थी। विशेषज्ञों ने विचार व्यक्त किए थे कि वैदिक सभ्यता विशुद्ध भारतीय है और यह दस हजार वर्ष से भी अधिक पुरानी है। उनके अनुसार इस वैज्ञानिक एवं तार्किक इतिहास को देश की शिक्षा व्यवस्था में शामिल किया जाना चाहिए।
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में संस्कृत के विभागाध्यक्ष हैं)
सभ्यता की अनूठी बातें
ल्ल राखीगढ़ी-भिराणा की खुदाई बताती है कि यह सभ्यता भी हड़प्पा कालीन अन्य सभ्यताओं की तरह चार चरणों से गुजरी। पहले दो चरणों में कृषि और ग्राम व्यवस्था की ही प्रमुखता थी। 2600-1900 ईसा पूर्व का कालखंड तीसरा चरण है। जब यह सभ्यता एक मजबूत नगरीय सभ्यता के तौर पर ढल चुकी थी, जबकि 1900-1300 ईसा पूर्व का कालखंड इस सभ्यता के क्षय का चरण कहा जा सकता है।
ल्ल भिराणा के ही करीब फोरमाना से मिले साक्ष्य गेहूं और जौ की फसलों में भारी गिरावट का संकेत करते हैं। यह उस समय की बात है जब सभ्यता अपने विकास काल से क्षय की ओर बढ़ रही थी। इससे संकेत मिलते हैं कि लोगों ने खुद को मानसून के मुताबिक ढालना सीख लिया था और ये ऐसी बात थी जो वे पहले नहीं करते थे।
ल्ल 1900-1300 ईसा पूर्व के दौरान इस सभ्यता के लोगों ने बड़े मोटे दाने वाली गेहूं जैसी फसल की बजाय जौ की खेती शुरू कर दी थी। इसके अलावा वे सूखा झेलने में सक्षम छोटे अनाज और चावल की कुछ किस्मों को भी आजमाने लगे थे। यानी भूख मिटाने के लिए मुनासिब दाना और मौसम की परख ये दोनों ज्ञान उस सभ्यता के पास थे।
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