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राखीगढ़ी से निकल रहे अवशेषों ने बता दिया है कि सिन्धु-सरस्वती सभ्यता बहुत ही समृद्ध और सुव्यवस्थित थी। नए खुलासे आर्य-द्रविड़ संघर्ष मिथकों को तोड़ते हुए इतिहास की धारा बदलने की शक्ति रखते हैं
अरुण कुमार सिंह
कहते हैं, राख होने के बाद कुछ नहीं बचता लेकिन हरियाणा के हिसार जिले में स्थित राखीगढ़ी औैैर भिराणा में हाल में हुई खुदाई ने उन गुत्थियों को सुलझाने की कोशिश की है जो पाकिस्तान की सिंधु घाटी से होते हुए उत्तर-पश्चिम भारत तक फैली थीं। इसमें गुजरात राज्य से लेकर अरब सागर तक का क्षेत्र शामिल था। अगर कार्बन डेटिंग और सभ्यता से जुड़ीं विशेषताओं से संबंधित नतीजों की मानें तो यह हमारे प्राचीन इतिहास के पूरे विमर्श को बदल देगा और इस तरह आधुनिक इतिहास को भी। सबसे पहले तो यह सभ्यतामूलक इतिहास के समयचक्र की गणना को ही बदल देगा, जिसे अभी तक 5,000 वर्ष पुराना माना जा रहा है। इसे अब 8,000 साल या इससे भी पुराना माना जाएगा। भिराणा में मौसमी पुनर्संरचनाओं ने दिखाया है कि घग्घर-हाकड़ा घाटी में कुछ हड़प्पा बसाहटें भारत में सबसे पुरानी हैं और शायद नौवीं सहस्राब्दी बी.पी. के समय विकसित हुई थीं। घग्घर (भारत में) -हाकड़ा (पाकिस्तान में) नदी, जिसे अब ऐतिहासिक वैदिक नदी सरस्वती बताया जा रहा है, शिवालिक की पहाडि़यों से निकलती है और नीचे गुजरात में कच्छ के रण तक जाती है। इस पट्टी में पिछले 100 साल के दौरान हड़प्पा बसाहटों के 500 से ज्यादा ठिकाने खोजे गए हैं।
राखीगढ़ी में पत्थर की मूर्ति, धातु के औजार और नरकंकाल मिले हैं। नरकंकालों से लिए गए डीएनए नमूनों का अध्ययन किया जा रहा है। इसके साथ ही वहां मिले अवशेषों का अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विश्लेषण किया जा रहा है।
-प्रो. वसंत शिंदे, पुरातत्व विशेषज्ञ, डक्कन कॉलेज, पुणे
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इससे भी बढ़कर भिराणा में हड़प्पा का बना रहना बताता है कि मानसूनी बदलावों के अनुसार खुद को ढाला गया था। जैसा कि भारतीय पुरातात्विक एसोसिएशन के अध्यक्ष प्रो. के.एन. दीक्षित कहते हैं, ''भिराणा से मिलीं कार्बन-14 तिथियां सरस्वती घाटी में शुरुआती शहरीकरण को आठवीं सहस्राब्दी बी.सी.ई. के मध्य ले जाती हैं।''
ये दो पहलू हमें अपनी ऐतिहासिक समय-सीमा पर पलट कर देखने को बाध्य करते हैं, साथ ही ये कई मिथकों को भी ध्वस्त करते हैं, जो ब्रिटिश इतिहासकारों ने बनाए और जिन्हें वाम-उदार दरबारियों ने बढ़ावा दिया था।
प्राचीन नगर व्यवस्था की प्राचीरों को देखते, ब्रश से सावधानीपूर्वक मृत्तिका अवशेषों की धूल हटाते पुरातत्वविद् विश्व की उस सबसे पुरानी सभ्यता के अंश देख रहे हैं जिसे हड़प्पा और मुअनजोदारो से भी पुराना, उनके पुरखों की सभ्यता कहा जा सकता है। सरस्वती नदी और सभ्यता को लेकर फैला भ्रम छंटता जा रहा है और इतिहास की विकृत धारणाएं ध्वस्त हो रही हैं। इन अवशेषों ने बता दिया है कि सरस्वती नदी के किनारे बहुत ही व्यवस्थित नगर और संभवत: तीर्थ भी थे। पुरातत्वविदों का मानना है कि राखीगढ़ी प्राचीन सरस्वती नदी के तीन प्रवाह मार्गों में से एक पर स्थित है। इसलिए यहां खुदाई से जो भी अवशेष मिल रहे हैं, वे सभी सरस्वती सभ्यता और सरस्वती नदी के अस्तित्व की पुष्टि करते हैं।
विज्ञान ने सरस्वती को काल्पनिक बताने वालों की बात को खारिज कर दिया है। इसरो और नासा इस नदी के प्रवाह मार्ग की खोज कर चुके हैं। देश के अनेक वरिष्ठ पुरातत्वविदों ने भी शोध के जरिए बताया है कि सरस्वती नदी थी और अभी भी उसकी जलधारा जमीन के अंदर बह रही है। यह जलधारा राजस्थान के जैसलमेर और हरियाणा के अनेक स्थानों पर निकली भी है।
हाल ही में सेटेलाइट डाटा से सरस्वती नदी के मार्ग का पता लगाने की कोशिश की गई है। इसके नतीजे बताते हैं कि हिमालय में उत्थान और शिवालिक एवं इसकी निचली पहाडि़यों में यमुना और सतलुज में आईं दरारें ही उत्तर-पश्चिमी भारत में चरम जल निकासी की वजह बनी थीं। ये आज की घग्घर को भी खाली करती गई, जो सिंधु नदी के समानान्तर एक स्वतंत्र नदी-तंत्र के नाते बह रही थी, लेकिन नारा के आज के रास्ते से नहीं। ये निष्कर्ष सिर्फ भारत के पुरातात्विक उत्खननों तक ही सीमित नहीं हैं, बल्कि पाकिस्तान में चल रहे इसी तरह के प्रयासों तक जाते हैं। पाकिस्तान में वृहत सिंधु क्षेत्र में खास तरह के मिट्टी के बर्तन पाए गए हैं, जो वहां गुम हुई हाकड़ा नदी और भारत में सरस्वती के भौगोलिक क्षेत्र में आते हैं। इसी तरह के बर्तन पहले जलीलपुर और गोमल मैदान तथा कुछ दूसरे स्थानों पर पाए गए हैं। यह साम्य बताता है कि सांस्कृतिक जीवन में कोई फर्क नहीं था। इस घाटी के खानाबदोश लोगों का जीवन भी लंबा दिखाई दिया जो मौसमी वजहों से था।
वामपंथी इतिहासकार यूं तो शुरू से ही सरस्वती नदी के अस्तित्व को नकारते रहे हैं लेकिन हैरानी की बात यह है कि एक के बाद एक, साक्ष्यों की झड़ी लगने पर वे या तो पुरानी अतार्किक बातों पर अड़े हैं या चुप्पी साधे बैठे हैं।
हाल में राखीगढ़ी में मिले प्रमाण इतिहास की स्थापित लीक से हटकर हैं और संभवत: यही बात इस चुप्पी की वजह है।
डक्कन कॉलेज, पुणे के खुदाई और पुरातत्व विशेषज्ञ प्रो. वसंत शिंदे के नेतृत्व में 20 लोगों की टीम ने लगभग साढ़े तीन वर्ष तक यहां खुदाई की। इस खुदाई से अनेक ऐसे प्रमाण मिले हैं जिनसे सिद्ध होता है कि राखीगढ़ी से ही हड़प्पा संस्कृति की शुरुआत हुई थी। प्रो. शिंदे कहते हैं, ''मेरी टीम ने राखीगढ़ी में दो जगहों पर खुदाई की। पहली जगह है लोगों का निवास स्थान और दूसरी है श्मशान घाट। खुदाई से वहां की संस्कृति, मकानों की बनावट और औद्योगिक विकास की जानकारी मिली। वहां पत्थर की मूर्तियां, धातु के औजार और नरकंकाल भी मिले हैं। नरकंकालों से लिए गए डीएनए नमूनों का अध्ययन किया जा रहा है। इसके साथ ही वहां मिले अवशेषों का अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विश्लेषण किया जा रहा है।''
शिंदे कहते हैं कि उस समय राखीगढ़ी में औद्योगिक विकास ऊंचाई पर था। वहां के लोग राजस्थान, मध्य प्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र तक व्यापार करने जाते थे। इन प्रदेशों में रहने वाले लोगों से उनके सांस्कृतिक संबंध भी थे। वे बताते हैं कि राखीगढ़ी में पहले गोलाकार झोंपडि़यां होती थीं, जो बाद में वर्गाकार होने लगीं। इसके बाद लोग घर बनाने में ईंट का इस्तेमाल करते थे। पुरातत्वविद् अब इस निष्कर्ष के करीब हैं कि राखीगढ़ी ही सिंधु-सरस्वती सभ्यता की राजधानी थी।
हरियाणा की ऐतिहासिक भूमि पर सरस्वती सभ्यता के स्पष्ट चिन्ह खोजने के लिए सबसे पहली खुदाई अंग्रेजों ने की थी। लेकिन उनके जमाने में गति बहुत धीमी थी। मुख्य रूप से खुदाई 1963 में शुरू हुई थी। तब पुरातत्वविदों ने राखीगढ़ी को सिंधु-सरस्वती सभ्यता का सबसे बड़ा नगर मानते हुए कहा था कि कभी यह नगर मुअनजोदारो और हड़प्पा से भी बड़ा रहा होगा। इसके बाद 1997 से 2000 तक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ए.एस.आई) ने यहां और खुदाई की थी। उत्खनन के दौरान ए.एस.आई को जो वस्तुएं मिलीं, उनसे पता चला कि राखीगढ़ी नगर लगभग साढ़े तीन किलोमीटर की परिधि में फैला था। इसके बाद 2006 में हरियाणा के पुरातत्व विभाग ने यहां उत्खनन किया। उसे यहां से जो भी पुराने अवशेष मिले, उनकी उम्र 8,000 वर्ष से भी अधिक बताई जाती है। 2013 में प्रो. शिंदे के दल ने यहां उत्खनन कार्य शुरू किया।
हरियाणा के पुरातत्व विभाग द्वारा किए गए अब तक के शोध और खुदाई के अनुसार लगभग 5,500 हेक्टेयर में फैली राखीगढ़ी की बसाहट ईसा से लगभग 6,500 वर्ष पूर्व मौजूद थी।
लेकिन मशहूर वामपंथी इतिहासकार प्रो. इरफान हबीब इन साक्ष्यों और तर्कों को मानने के लिए तैयार नहीं हैं। वे कहते हैं, ''राखीगढ़ी में जो भी चीजें मिल रही हैं उनसे यह तो साबित नहीं होता कि वहां सरस्वती नदी थी। प्राचीन ग्रंथों में उस सरस्वती नदी की चर्चा है, जो बहुत ही छोटी-सी थी, और थानेश्वर (कुरुक्षेत्र) से निकल कर बगल में ही घग्घर नदी में मिल गई। इसके आगे तो सरस्वती नदी है ही नहीं।''
पाञ्चजन्य संवाददाता द्वारा प्राचीन भारतीय ग्रंथों में सरस्वती नदी के स्पष्ट उल्लेख के साथ-साथ उसका प्रवाह मार्ग भी बताए जाने का संदर्भ समझाने पर वे कहते हैं, ''मुझे
माफ कीजिए, कुछ इतिहासकार पुराने संदर्भों को गलत ढंग से पेश कर रहे हैं।'' साथ ही उनका सवाल था, ''जो लोग कह रहे हैं कि सरस्वती नदी गुजरात में समंदर में मिलती है, तो फिर इलाहाबाद में संगम में कौन-सी सरस्वती नदी है?''
इसका जवाब सरस्वती नदी पर शोध करने वाले और अखिल भारतीय इतिहास संकलन योजना के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष प्रो. शिवाजी सिंह के पास है। वे कहते हैं, ''सरस्वती नदी के बारे में प्राचीनकाल से दो धारणाएं हैं। एक धारणा कहती है कि सरस्वती नदी गुप्त रूप से प्रयाग में गंगा में मिलती है, तो दूसरी धारणा कहती है कि सरस्वती नदी सोमनाथ के पास अरब सागर में मिलती है। ये दोनों मान्यताएं अपनी जगह ठीक हैं। इनमें कोई विवाद नहीं है। पहली वाली धारणा उस समय की है जब सरस्वती नदी स्थिर नहीं हो पा रही थी। कभी उसकी धारा यमुना में मिलती थी तो कभी सतलुज में। दूसरी धारणा उस समय की है जब सरस्वती नदी स्थिर हो गई और कच्छ के रण की ओर बढ़ गई। इन दोनों मान्यताओं को पुरातत्वविदों ने भी माना है। इसलिए जो लोग इन मान्यताओं के आधार पर सरस्वती नदी के अस्तित्व को नकारते हैं, वे इतिहास के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं।'' उन्होंने यह भी कहा कि भारत के स्वतंत्र होने से पहले ही सरस्वती नदी की धारा की जानकारी मिल गई थी। विद्वानों को उसी समय इसकी झलक मिल गई थी। हुआ यह था कि जैसलमेर में सरकारी अमला एक सड़क के निर्माण के लिए लगा था। उसी दौरान खुदाई के जरिए उन्हें एक चौड़ा रास्ता मिला तो वे लोग चकित रह गए। बाद में उन अधिकारियों की रपट पर सरकार ने भी माना कि जो रास्ता मिला है, वह सरस्वती नदी का पाट है।
इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय (इग्नू) में इतिहास विभाग के अध्यक्ष प्रो. कपिल कुमार भी प्रो. शिवाजी की बातों का समर्थन करते हैं। वे कहते हैं, ''जो मार्क्सवादी इतिहासकार बिना साक्ष्यों के आधार पर प्राचीन भारत के इतिहास को झुठलाने में लगे हैं, राखीगढ़ी से सामने आए तथ्य उनके लिए करारा जवाब हैं। ऐसे इतिहासकारों ने भारत में औपनेवेशिक शासन बनाए रखने के लिए प्राचीन भारतीय इतिहास से खिलवाड़ किया। इतिहास साक्ष्यों के आधार पर लिखा जाता है, न कि राजनीतिक लफ्फाजी पर। ''
प्रो. कपिल कहते हैं कि इससे पहले द्वारका के समुद्र में हुई खुदाई ने द्वारका के अस्तित्व को साबित किया था। अब वह दिन दूर नहीं जब सरस्वती नदी का अस्तित्व भी सामने आएगा। इसमें दो राय नहीं कि ताजा खुदाई इतिहास की धारा को बदलने का दम रखती है। सरस्वती नदी की खोज में जीवन खपा देने वाले इतिहासकार डॉ. एस. कल्याण रमन कहते हैं, ''राखीगढ़ी में मिले नरकंकालों की डी.एन.ए. जांच से यह सिद्ध हो जाएगा कि भारत में रहने वाले सभी लोग भारत के ही हैं। कोई बाहर से नहीं आया है। आर्य बाहर से आए हैं, यह बात भी निर्मूल हो जाएगी।'' डॉ. रमन के अनुसार सरस्वती नदी के किनारे अब तक 5-6 जगहों पर ही खुदाई हुई है। ऐसे 2,000 स्थल हैं, जहां उत्खनन होना चाहिए। उन्होंने यह भी कहा कि यमुना-सरस्वती लिंक, सरस्वती राजस्थान लिंक और राजस्थान-साबरमती लिंक पर ईमानदारी से काम किया जाए तो तीन वर्ष के अंदर 1,300 किलोमीटर लंबी सरस्वती नदी फिर से बहने लगेगी।
राखीगढ़ी गांव दिल्ली से 150 किलोमीटर की दूरी पर है। यहां कुल नौ टीले हैं। उनका नामकरण शोध की सूक्ष्मता के आधार पर आरजीआर-1 से आरजीआर-9 तक किया गया है। आरजीआर-5 की खुदाई बताती है कि इस क्षेत्र में घनी जनसंख्या थी। इस समय भी इस क्षेत्र में बड़ी आबादी है इसलिए आरजीआर-5 में अधिक खुदाई संभव नहीं है, लेकिन आरजीआर-4 के कुछ हिस्सों में उत्खनन संभव है।
'रेडियो-कार्बन डेटिंग' के अनुसार 2014 में यहां से प्राप्त वस्तुओं का संबंध हड़प्पा-पूर्व और प्रौढ़-हड़प्पा काल के अतिरिक्त उससे भी हजारों वर्ष पूर्व की सभ्यता से है। आरजीआर-6 से मिली वस्तुएं भी इस सभ्यता को करीब 8,000 वर्ष पूर्व तक ले जाती हैं।
मार्क्सवादी इतिहासकार बिना साक्ष्यों के आधार पर प्राचीन भारत के इतिहास को झुठलाने में लगे हुए हैं, उनके लिए यह एक करारा जवाब है। इतिहास साक्ष्यों के आधार पर लिखा जाता है, न कि राजनीतिक लफ्फाजी पर।
-प्रो. कपिल कुमार, अध्यक्ष, इतिहास विभाग, इग्नू
राखीगढ़ी में जो भी चीजें मिल रही हैं उनसे यह तो साबित नहीं होता कि वहां सरस्वती नदी थी। प्राचीन ग्रंथों में एक छोटी-सी सरस्वती नदी की चर्चा है, जो थानेश्वर से निकल कर बगल में ही घग्घर नदी में मिल गई है। इसके आगे तो सरस्वती नदी है ही नहीं।
-प्रो. इरफान हबीब, प्रसिद्ध वामपंथी इतिहासकार
1921 में हड़प्पा संस्कृति की खोज के बाद 1958 में हड़प्पा पूर्व का इलाका पुरातत्व विभाग के महानिदेशक एफ.ए. खान द्वारा कोट-डीजी में देखा गया था और 1960-61 में प्रो. बी.बी. लाल ने कालीबंगा में देखा था। 20वीं सदी के अंत में और 21वीं सदी की शुरुआत के आसपास खुदाई में शुरुआती हड़प्पा स्तर से पहले की सभ्यता कुनाल, गिरबाड़, परवना और राखीगढ़ी की खुदाइयों में देखी गई थी। बहरहाल, भारत में भिराणा, राखीगढ़ी, गिरबाड़ और पाकिस्तान मंे मेहरगढ़ से प्राप्त रेडियो मीट्रिक तिथियां उस सभ्यता के उदय को सुनिश्चित करती हैं, जो सातवीं, आठवीं सहस्राब्दी बी.सी. के आसपास की सभ्यताओं से उभरी थी।
अब सभी पुरातत्वविद् इस निष्कर्ष पर पहंुचे हैं कि जनसंख्या की दृष्टि से उस समय राखीगढ़ी सबसे बड़ा शहर था। राखीगढ़ी और उसके आसपास के क्षेत्र में विकास की तीन-तीन परतें मिलीं हैं। पूरी तरह से नियोजित इस शहर की सभी सड़कें 1़ 92 मीटर चौड़ी थीं। यह चौड़ाई काली बंगा की सड़कों से भी ज्यादा है। एक ऐसा बर्तन भी मिला है, जो सोने और चांदी की परतों से ढका है। इसी स्थल पर एक 'फाउंड्री' यानी ढलाईघर के भी चिह्न मिले हैं, जहां संभवत: सोना ढाला जाता होगा। इसके अलावा टेराकोटा से बनी असंख्य प्रतिमाएं, तांबे के बर्तन और कुछ मूर्तियां एवं एक 'फर्नेस' यानी भट्ठी के अवशेष भी मिले हैं। एक श्मशान-गृह के साक्ष्य भी मिले हैं, जहां 8 कंकाल हैं। कंकालों का सिर उत्तर दिशा की ओर था। उनके साथ कुछ बर्तनों के अवशेष भी हैं।
4,000 किलोमीटर लंबी यात्रा में मुझे अनेक हस्तलिखित ग्रंथ, मुद्राएं, जीवाश्म और लेख मिले, जो सरस्वती नदी से संबंधित थे। इस यात्रा के निष्कर्ष में यह बात सामने आई कि सरस्वती की मुख्यधारा आदिबद्री के निकट ही थी और महाभारत काल में इसका प्रवाह अवरुद्ध हुआ था। सरस्वती के किनारे के प्रमुख तीर्थस्थान हड़प्पीय या प्राग हड़प्पीय सभ्यता से संबंधित हैं।
-विष्णु श्रीधर वाकणकर (1985 में सरस्वती शोध यात्रा की शुरुआत करने वाले)
एक धारणा कहती है कि सरस्वती नदी गुप्त रूप से प्रयाग में गंगा में मिलती है, तो दूसरी धारणा कहती है सरस्वती नदी सोमनाथ के पास अरब सागर में मिलती है। ये दोनों मान्यताएं अपनी जगह ठीक हैं। इसलिए जो लोग भी इन मान्यताओं के आधार पर सरस्वती नदी के अस्तित्व को नकारते हैं वे लोग इतिहास के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं।
– प्रो. शिवाजी सिंह, पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष, अखिल भारतीय इतिहास संकलन योजना
अप्रैल, 2015 में आरजीआर-7 की खुदाई के दौरान चार कंकाल भी मिले। इनमें से तीन की पहचान पुरुष और एक की स्त्री के रूप में की जा सकी है। इनके पास से भी कुछ बर्तन और कुछ खाद्य पदार्थ मिले हैं। कंकालों की डी.एन.ए. जांच की जाएगी, ताकि लगभग 8,000 वर्ष पहले लोगों की शारीरिक संरचना से जुड़ी जानकारियां सामने आ सकें।
गुजरात पुरातत्व विभाग से इहिासकार युद्धवीर सिंह रावत कहते हैं, राखीगढ़ी में 'हाकड़ा वेयर' नाम से चिह्नित ऐसे अवशेष भी मिले हैं, जिनका निर्माण काल सिंधु घाटी सभ्यता और विलुप्त हो चुकी सरस्वती नदी घाटी के कालखंड से मेल खाता है। इस क्षेत्र में आठ ऐसी समाधियां और कब्रें भी मिली हैं, जिनका निर्माण काल ईसा से लगभग 8,000 वर्ष पूर्व बताया जा रहा है।
अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में इतिहास विभाग के अध्यक्ष और समन्वयक प्रो. अली अतहर कहते हैं,''कोई भी सभ्यता किसी नदी के किनारे ही विकसित होती है। राखीगढ़ी प्राचीन सरस्वती नदी के प्रवाह मार्ग के किनारे स्थित है। वहां हो रही खुदाई से सरस्वती संस्कृति की जानकारी मिल सकती है।''
सरस्वती नदी के किनारे अब तक 5-6 जगहों पर ही खुदाई हुई है। ऐसे 2,000 स्थल हैं, जहां उत्खनन होना चाहिए। यमुना-सरस्वती लिंक, सरस्वती राजस्थान लिंक और राजस्थान-साबरमती लिंक पर ईमानदारी से काम किया जाए तो तीन वर्ष के अंदर 1,300 किलोमीटर लंबी सरस्वती नदी फिर से बहने लगेगी।
– डॉ. एस. कल्याण रमण, निदेशक, सरस्वती नदी शोध संस्थान
कोई भी सभ्यता किसी नदी के किनारे ही विकसित होती है। राखीगढ़ी प्राचीन सरस्वती नदी के प्रवाह मार्ग के किनारे स्थित है। वहां हो रही खुदाई से सरस्वती संस्कृति की और जानकारी मिल सकती है।
-प्रो. अली अतहर, अध्यक्ष और समन्वयक, इतिहास विभाग, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय
धरती के नीचे दबी जानकारी का यह खजाना अनमोल है। मई, 2012 में राखीगढ़ी को 'ग्लोबल हैरिटेज फंड' ने एशिया के दस ऐसे विरासत-स्थलों की सूची में शामिल किया, जिनके नष्ट हो जाने का खतरा है। यह भी खबर आती रहती है कि यहां कुछ इतिहास-खोजी और ग्रामीण अवैध रूप से खुदाई करते रहते हैं और वहां जो भी वस्तुएं मिलती हैं, उन्हें अंतरराष्ट्रीय बाजार में ऊंची कीमत पर बेच दिया जाता है। फिलहाल, राखीगढ़ी में कुछ समय से उत्खनन बंद है, क्योंकि सीबीआई इस क्षेत्र में राजकीय अनुदानों के दुरुपयोग संबंधी आरोपों की जांच कर रही है।
सिन्धु-सरस्वती सभ्यता के नए स्पष्ट साक्ष्य-संकेतों पर दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रो. रमेश भारद्वाज कहते हैं, ''रेडियो मीट्रिक तिथियों द्वारा सिद्ध यह पुरातात्विक डाटा पिछले करीब 10,000 साल की अखंड भारतीय संस्कृति की ओर संकेत करता है।
दिल्ली विश्वविद्यालय का संस्कृत विभाग पिछले तीन साल से वैदिक अनुक्रमणिका की परियोजना चला रहा है, जिसके जरिए हमने स्थापित किया है कि ऋग्वेद (6000 बी.सी.) पहली सहस्राब्दी बी.सी. का नहीं हो सकता जैसा कि पश्चिमी और कम्युनिस्ट इतिहासकार फैलाते हैं।'' राखीगढ़ी और अन्य स्थानों से निकलने वाले अवशेष उस इतिहास के अस्तित्व पर मुहर लगाने वाले हैं जिसके पक्ष में प्रमाण हैं। सरस्वती नदी और इसके किनारे अपने पुरखों की सभ्यता को नकारने वाले इतिहास की इस धारा को पार करने के लिए किन पतवारों का सहारा लेते हैं, देखना दिलचस्प होगा।
सभ्यता के उद्गम स्थलों पर नई बहस
पुरातत्वविदें द्वारा हमारी सभ्यता, अतीत की रवायतों और प्राचीनकाल के लोगों की जीवनशैली के बारे में जानने के प्रयास लगातार रोचक नतीजे देते रहे हैं। हाल में विभिन्न स्थानों से प्राप्त साक्ष्यों ने हमारी प्राचीन समृद्ध सभ्यता पर नई रोशनी डाली है।
खड़गपुर आईआईटी और भारतीय पुरातत्व विभाग (एएसआई) ने हाल में नए साक्ष्यों के हवाले से साबित किया है कि सिंधु घाटी सभ्यता 5,500 वर्ष पुरानी न होकर 8,000 वर्ष पुरानी है। यही नहीं, उससे भी 1,000 वर्ष पुरानी एक पूर्व-हड़प्पा सभ्यता भी अस्तित्व में थी। इसके बाद दुनियाभर में 'सभ्यता के उद्गमस्थलों' पर बहस नया रूप ले सकती है।
वहीं तमिलनाडु में नए उत्खनन के आधार पर प्राचीन तमिल जीवनशैली से जुड़े नए साक्ष्य प्राप्त हुए हैं। शिवगंगा जिले का अनजाना कीझादी गांव उत्खनन के बाद ऐतिहासिक संदर्भ प्राप्त कर चुका है। उत्खनन में प्राप्त चार दर्जन वर्गाकार क्षेत्र मिले हैं जिसे पुरातत्वविद् संगम काल के सबसे महत्वपूर्ण रिहाइशी स्थानों में मान रहे हैं।
2013-14 में वइगई नदी के निकट खोज कार्य शुरू हुआ था। इसके बाद 2015 में इस स्थान से पहली बार ऐतिहासिक महत्व की वस्तुएं, लौह सामग्री और मिट्टी के बर्तन प्राप्त हुए थे, जिनकी निर्मिति देश में और उससे बाहर की थी। मिट्टी के बर्तनों के टूटे हिस्से 3 ईसा पूर्व के थे जिससे साबित होता था कि प्राचीनकाल में विदेश व्यापार था। इससे जुड़े पहले चरण की खुदाई में पता चला था कि वह प्राचीन नागरी व्यवस्था थी। अगले चरण की खुदाई कीलादी में हुई थी। खुदाई से ये साक्ष्य मिले थे कि पल्लीचंदाई थिदल नामक यह स्थान उस समय मदुरई से अलागंकुलम के बीच महत्वपूर्ण व्यापार मार्ग रहा होगा।
32 चतुर्थांशों में संपन्न उत्खनन के बाद पंड्या काल के प्रचुर साक्ष्य प्राप्त हुए हैं जिनमें शीशा, मोती, मनके और मूर्तियां, चक्कियां, ईंटों के अलावा पूर्व ऐतिहासिक बर्तन, काली एवं लाल रंग की विभिन्न वस्तुएं एवं रंगों की परत चढ़ी वस्तुएं प्राप्त हुई हैं। विशेषज्ञों के अनुसार ये पुरावशेष पूर्व ऐतिहासिक लौह युग और परवर्ती सांस्कृतिक परिवर्तनों के बीच की खोई कडि़यों को जानने में सहायक हो सकते हैं।
बंेगलुरू की एएसआई उत्खनन इकाई के नियंत्रक पुरातत्ववेत्ता के़ अमरनाथ रामकृष्ण के अनुसार, 'द्वितीय चरण में 53 स्थानों पर उत्खनन नई खोज साबित हुए हैं। हमारा मानना है कि यह नागरी सभ्यता हड़प्पा और मुअनजोदारो के बराबर थी क्योंकि जिस टीले के पास हमने खुदाई की वह 80 एकड़ कृषि भूमि में फैला 3़ 5 किलोमीटर परिधि का स्थान था। इस स्थान पर हमें तमिलनाडु में पहली बार एक-एक कर कई प्राचीन ढांचे प्राप्त हुए। वइगई के तट पर यह एक स्वतंत्र सभ्यता का विशाल शहरी हिस्सा रहा होगा।'
द्वितीय चरण के उत्खनन से संगमकाल की साहित्यिक परंपरा भी पुख्ता हो रही है। इस कालखंड के साहित्य में प्राचीन तमिल जीवनशैली का गहरा उल्लेख मिलता है। इस साहित्य में 2000 वर्ष और उससे प्राचीनकाल के तमिल शासकों और आम जनजीवन के बारे में विपुल वर्णन मिलता है। हालांकि, पुरातत्व में संगमकाल की जीवनशैली के बारे में कोई विश्वसनीय जानकारी प्राप्त नहीं होती।
कीझादी का महत्व इसलिए भी बढ़ा है क्योंकि यह एक रिहाइशी स्थान है। पुरातत्वविदों के अनुसार खुदाई में प्राप्त ईंटें 36७22७5 सेमी, 38७22७6 सेमी और 34७21७5 सेमी आकार की हैं। संगमकाल में इस्तेमाल की जाने वाली ईंटें इसी आकार की होती थीं। दसवीं सदी तक कीझादी निर्जन हो चुका था। हालांकि, किसी तरह की प्राकृतिक या मानवीय आपदा के चिन्ह नहीं मिलते हैं। इसलिए कीझादी के साक्ष्य मदुरई के अतीत को एक सहस्राब्दी और पीछे ले जा सकते हैं। अमरनाथ के अनुसार, 'तुलनात्मक अध्ययन से इस स्थान को हम 3 ईसा पूर्व का मान सकते हैं, जो कि 2,500 वर्ष पूर्व का समय था। लेकिन इसके सही समय को कार्बन डेटिंग से ही प्राप्त किया जा सकता है।'
इससे पहले तमिलनाडु में नागापट्टिनम, त्रिची, तिरुनेवेली जिलों और पुद्दुचेरी में उत्खनन कार्य हो चुके हैं। रोचक तथ्य यह है कि उत्खनन किए गए अधिकांश स्थान प्राचीनकाल के कब्रिस्तान थे।
टी.वेंकटेश्वर, चेन्नै
ल्ल आज तक हड़प्पा सभ्यता का उद्भव काल 3,200 से 3,600 ई.पूर्व के आसपास माना जाता था। लेकिन हरियाणा के भिराणा के उत्खनन से इस सभ्यता का कालक्रम लगभग 6,000 ई. पूर्व होने के साक्ष्य मिले हैं। भिराणा और राखीगढ़ी को समकालीन माना जाता है।
ल्ल आज तक यह माना जाता रहा है कि हड़प्पा सभ्यता का उद्भव केन्द्र मध्य एशिया या मेहरगढ़ (हिन्दूकुश पर्वत) के आसपास है। अब यह साबित हो गया है कि इस सभ्यता की उत्पत्ति और विकास आज के हरियाणा क्षेत्र में ही हुआ है।
ल्ल भारतीय संस्कृति के काल निर्धारण को, जिसे अंग्रेजों और अन्य विदेशियों ने निर्धारित किया है, फिर से निर्धारित करने की जरूरत महसूस हो रही है।
ल्ल भिराणा की खुदाई में साक्ष्य मिले हैं कि 6,000 से 7,000 ई. पूर्व के बीच में पशुपालन शुरू हो गया था। अत: माना जा सकता है कि हड़प्पा सभ्यता के शुरुआती काल से ही पशुपालन किया जा रहा है। यानी पशुपालन का भी नए सिरे से कालनिर्धारण होना चाहिए।
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