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कुछ स्वार्थी तत्व लोगों को जागरुक बनाने की बजाय पूर्वाग्रहों में डुबोने में मशगूल हैं
खबर आई कि दिल्ली में खुद पर हो रहे हमलों के विरोध में अफ्रीकी छात्र कल जंतर-मंतर पर विरोध प्रदर्शन करेंगे। दोपहर बाद से ही सभी चैनलों ने इसे हेडलाइन बना लिया। न्यूज वेबसाइटों पर यह खबर पहले पेज पर दिखने लगी। अगली सुबह अखबारों में भी पढ़ने को मिल गया कि हमलों के विरोध में अफ्रीकी छात्र आज जंतर-मंतर पर जमा हो रहे हैं। सुबह 10 बजे से सभी चैनलों की ओबी वैन जंतर-मंतर पर तैनात थीं। थोड़ी देर में 15-20 छात्रों का एक समूह नाचता-गाता जंतर-मंतर पर पहुंचा। मीडिया उन पर टूट पड़ा।
सवाल दिल्ली में आप पर इतने हमले हो रहे हैं, आपके लिए दिल्ली में रहना मुश्किल होता जा रहा है, आपका क्या कहना है?
जवाब : बिल्कुल नहीं, हम लोग तो भारत को अपना दूसरा घर मानते हैं। हमें कभी नहीं लगा कि यहां के लोग हमें नफरत से देखते हैं। हो सकता है कि कोई एकाध घटना हुई हो, लेकिन उसका मतलब यह नहीं कि हम असुरक्षित हैं। हम तो यहां पर अपने देश बियाफ्रा की नाइजीरिया से आजादी की मांग करने के लिए जुटे हैं। इतना सुनते ही इंडिया टुडे टीवी की रिपोर्टर ने उस अफ्रीकी युवती के सामने से अपना माइक खींच लिया। कैमरा दूसरे अफ्रीकी नौजवानों की तरफ तेजी से बढ़ा। जब हर किसी ने इसी से मिलता-जुलता जवाब दिया तो रिपोर्टर मानो झल्ला गई। वह चीखती रही कि दिल्ली में अफ्रीकी लोग निशाना बन रहे हैं। उनका यह विरोध प्रदर्शन इसी मुद्दे पर है। तस्वीरों में छात्र तख्तियां लिए खड़े थे जिन पर लिखा था 'बियाफ्रा के लोगों को आजादी दो', 'हमें भारत से प्यार है', 'हमारी लड़ाई में भारत सरकार साथ देश वगैरह-वगैरह। लेकिन तमाम हिंदी, अंग्रेजी समाचार चैनलों पर देर रात तक खबर चलती रही कि आज अफ्रीकी छात्रों ने हमलों के विरोध में प्रदर्शन किया।
आज की मीडिया की भेड़चाल का यह आदर्श उदाहरण है। खबरों के साथ ऐसा आए दिन होता रहता है। न यह परवाह कि ऐसी खबर से दुनिया में देश की क्या छवि बनेगी, न इस बात की फिक्र कि ऐसी रिपोटिंर्ग से खुद उनकी विश्वसनीयता का क्या होगा। प्रदर्शन अगर सचमुच का हो तो दिखाओ, लेकिन किसी दूसरे मुद्दे पर हुए जमघट को अपनी सुविधा के हिसाब से बदल लेने का देश-विरोधी कारनामा सिर्फ भारतीय मीडिया ही कर सकती है। मीडिया की ऐसी चूकों के लिए चैनलों, अखबारों और संपादकों की तमाम जेबी संस्थाएं क्यों कभी मुंह नहीं खोलतीं?
कुछ ऐसा ही तमाशा हुआ केंद्र सरकार के 2 साल पूरे होने को लेकर। करीब एक हफ्ते पहले से ही सारे चैनलों और अखबारों ने 2 साल के कार्यक्रमों को 'ग्रैंड सेलिब्रेशन', 'मेगा शो' जैसे नाम देने शुरू कर दिए। ऐसा जताया गया कि इंडिया गेट पर कोई बहुत बड़ा नाच-गाना होने वाला है। जबकि सच्चाई यह थी कि केंद्र के सारे मंत्री बारी-बारी आकर अपने मंत्रालयों के कामकाज का हिसाब दे रहे थे। यह सब कुछ अगर राष्ट्रीय प्रसारक दूरदर्शन पर नहीं दिखाया जाएगा तो कहां दिखाया जाएगा? लोगों को बांधे रखने के लिए बीच-बीच में कुछ सांस्कृतिक प्रस्तुतियां रखी गईं। कार्यक्रम के अंत में अपने भाषण में प्रधानमंत्री ने मीडिया के रवैये पर चुटकी ले ली कि उन्हें वहीं पर हेडलाइन दिखती है जहां पर मसाला हो। इस बात से कई संपादकों को मिर्ची लग गई। उन्होंने ट्विटर और फेसबुक पर अपनी खीझ निकाली, लेकिन यह सोचने की जरूरत नहीं समझी कि प्रधानमंत्री जो कह रहे हैं, वह आज हर आम व्यक्ति महसूस करता है।
उधर, विश्व हिंदू परिषद के शिविरों को लेकर विवाद पैदा करने की कोशिश जारी है। एनडीटीवी तो मानो इस खबर से ऐसा चिपक गया कि दिन भर खबर ही नहीं हटी। ऐसे आयोजन जो हर साल होते हैं और जिनसे किसी तरह की समस्या पहले कभी पैदा नहीं हुई, उन्हें लेकर इसी साल विवाद खड़ा करने के पीछे निश्चित तौर पर ठीक मंशा नहीं लग रही है। कभी राजनीतिक तो कभी आर्थिक दबावों का मीडिया पर असर बढ़ता ही जा रहा हैं। दिल्ली में ये दोनों दबाव अखबारों और चैनलों पर छाए हुए हैं। बताया जा रहा हैं कि एक बड़े अखबार के वरिष्ठ पत्रकार को सिर्फ इसलिए नौकरी छोड़नी पड़ी क्योंकि उन्होंने अपने सोशल मीडिया पेज पर अरविंद केजरीवाल के विरोध में कुछ लिख दिया था। उनसे माफी मांगने को कहा गया, लेकिन जब उन्होंने माफी मांगने से मना कर दिया तो अखबार को दिल्ली सरकार के विज्ञापनों की धौंस दी गई।
नतीजा यह कि पत्रकार को नौकरी छोड़नी पड़ी। मीडिया की स्वतंत्रता पर इतना बड़ा हमला होता है, लेकिन कुछ दिन पहले तक अपने सियासी आकाओं को खुश करने के लिए सड़कों पर उतरे कठपुतली पत्रकारों ने मुंह तक नहीं खोला। विज्ञापनों का दबाव ऐसा है कि दिल्ली में भयानक बिजली-पानी संकट, डॉक्टरों से लेकर सफाई कर्मचारियों के साथ हो रहे अन्याय की खबरें पहले पन्नों से गायब हैं।
मीडिया का काम लोगों को सूचित करना और जागरूक बनाना है। लेकिन शायद कुछ स्वार्थी तत्व नहीं चाहते कि ऐसा हो। उनका सारा जोर लोगों को सूचित करने की बजाय भ्रमित करने और जागरूक बनाने की बजाय पूर्वाग्रहों में डुबोने पर है।
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