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कौशाम्बी जनपद में तालाब की खुदाई के दौरान मिले मौर्य सभ्यता के प्रमाण प्रधानमंत्री कार्यालय के संज्ञान लेने पर मौके पर पहुंचे पुरातत्वविद, अवशेषों को बताया 21 सौ वर्ष पुराना
सुनील राय
शांबी जनपद बौद्ध और जैन धर्मावलम्बियों के लिए पहले से की विशिष्ठ रहा है। मगर अभी हाल में मनरेगा के मजदूरों द्वारा की जा रही तालाब की खुदाई के दौरान यहां पर मौर्य कालीन सभ्यता के समय के प्रमाण मिलेे हैं। पुरातत्व विभाग की टीम ने अपने प्राथमिक निरीक्षण में माना हैं कि खुदाई में मिले अवशेष 21 सौ साल से जादा पुराने है और यहां पर बाकायदा एक पूरी सभ्यता निवास किया करती थी।
कौशांबी जनपद के चायल विकास खंड के नीबी शाना गांव में इस तालाब की खुदाई पहलेे भी मनरेगा के मजदूरों से कराई गई थी मगर पहली बार जब खुदाई कराई गई थी तो उस समय के प्रधान ने इस तालाब को बहुत गहरा नहीं खुदवाया था, मनरेगा के मजदूरों से खुदाई की एक रस्म अदायगी कर, तालाब में थोड़ा बहुत पानी भरवा कर छोड़ दिया गया था। उसके बाद वर्ष 2010 में लक्ष्मी देवी इस गांव की प्रधान चुनी गई। वर्ष 2013 में उनके कार्यकाल में तालाब फिर से खुदाई शुरू की गयी। उस समय प्राचीन काल के कई अवशेष निकले मगर अज्ञानतावश उन अवशेषों को गांव के टीलेे पर फिंकवा दिया गया था। प्राचीन काल के कुछ खिलौने निकले जिसे गांव के बच्चे घर पर खेलने के लिए उठा ले गए। वर्तमान प्रधान अनीता आर्या की देखरेख में एक बार फिर इस तालाब की खुदाई मनरेगा कार्यक्रम के तहत शुरू कराई गई। तालाब की खुदाई जब तीन फीट गहराई तक पहंुची तब अत्यंत प्राचीन अवशेष मिलने शुरू हुए। तालाब के नीचे पत्थर और अत्यंत प्राचीन दीवार मिलने पर मजदूरों ने ग्राम प्रधान को इसके बारे में सूचना दी। खुदाई में कुछ अवशेष मिलने की सूचना पर अनीता आर्या और उनके पति राम विशाल पासवान ने मजदूरों से एहतियात बरतते हुए खुदाई कराई।
राम विशाल पासवान बताते हैं '' खुदाई के दौरान एक दीवार दिखाई पड़ी। उस दीवार की सीध में जब खुदाई कराई तो देखने में आया कि दीवार बाहर की तरफ झुकी हुई थी। जब हमने प्राचीन इतिहास के जानकारों से संपर्क किया तो उन लोगों ने बताया कि यह स्नानागार हो सकता है।'' वह बताते हैं '' उत्तर से दक्षिण की दिशा में करीब 30 मीटर तक खुदाई कराई गयी, एक दीवार बाहर की तरफ झुकी हुई पायी गयी। उसके बाद इसी दीवार की खुदाई दक्षिण से पश्चिम की तरफ की गयी, इस तरफ करीब 100 मीटर दूर तक खुदाई की गयी, वैसी ही दीवार थोड़ी बाहर की तरफ झुकी हुई पाई गयी।''
श्री पासवान ने बताया '' यह अंदाजा लगने पर कि तालाब के नीचे ऐतिहासिक महत्व के अवशेष हैं, बहुत ही एहतियात के साथ खुदाई करायी गयी। खुदाई के दौरान एक छोटे से जानवर की कोई आकृति मिली है जो पत्थर की बनी हुई है। मृद्भांड मिले है, कुछ कच्ची मिटटी के बर्तन के टुकड़े मिले हैं जो एक तरफ से जले हुए है, अनुमान लगाया जा रहा है कि इन मिट्टी के बर्तनों में खाना बनाया जाता रहा होगा। एक चकरी मिली है जिसे खेलने में इस्तेमाल किया जाता रहा होगा। तालाब के नीचे एक विशाल स्नानागार होने के प्रमाण मिले हैं, इसके साथ ही कुछ बड़े कमरों और उनकी दीवारों का ढांचा मिला है।''
तालाब के नीचे पौराणिक महत्व के अवशेष मिलने के बाद राम विशाल पासवान ने प्रधानमंत्री कार्यालय, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री कार्यालय समेत सभी संबंधित विभागों को पंजीकृत डाक से पत्र और ई मेल के जरिये सूचित किया। वे बताते हैं '' केवल प्राधानमंत्री कार्यालय ने इस सम्बन्ध में तत्परतापूर्वक संज्ञान लिया और वहां के आदेश पर पुरातत्व विभाग सारनाथ मंडल (वाराणसी, उतर प्रदेश) से पुरातत्वविदों की टीम तालाब पर पहुंची। पुरातत्व टीम के लोगांे ने प्राचीन अवशेषों को देखकर बताया कि यह अवशेष 21 सौ साल से जादा प्राचीन हैं, मौके पर देखकर ऐसा लगता है कि यहां पर एक सभ्यता निवास करती थी, इसकी विधिवत खुदाई करने पर ही इस प्राचीन सभ्यता के रहस्य से पर्दा उठेगा।''
तालाब की खुदाई में मिले अवशेषों को देखने के बाद सहायक पुरातत्वविद् अब्दुल आरिफ ने बताया, ''अधिकतर लोग इन अवशेषों को देखकर इसे करीब दो हजार वर्ष पुराना मान रहे थे, अर्थात् इन अवशेषों को कुषाण काल का मान रहे थे मगर खुदाई में जो ईंटे मिली हैं उनकी लम्बाई और चौड़ाई को देखकर यह लगता है कि यह अवशेष करीब 21 सौ साल पुराना है और कुषाण काल का न होकर मौर्य काल का है।''
आरिफ बताते हैं, ''अभी तक यह देखने में आया है कि जहा पर भी मौर्य काल के अवशेष मिले हैं, वहा पर उत्तरी कृष्ण चमकीले मृद्भांड जरूर पाए गए हैं, मगर यहां की खुदाई में उत्तरी कृष्ण चमकीले मृद्भांड नहीं पाये गए हैं, इसी आधार पर कुछ लोगों का यह मानना है कि यह अवशेष मौर्य काल का न होकर कुषाण काल का है। पहली, दूसरी और तीसरी शताब्दी तक कुषाणों का राज था, उसके पहले मौर्य काल था। कुषाणों का राज करीब दो हजार वर्ष पुराना है जबकि मौर्य वंश 2100 वर्ष पुराना है।'' वे कहते हैं, '' मिट्टी के बर्तन की अपेक्षा मेटल का बर्तन उस समय भी महंगा हुआ करता था, मौर्य काल में जहां पर भी लोग पीली धातु का बर्तन उपयोग नहीं कर पाते थे तो उसकी जगह मिट्टी का ऐसा बर्तन तैयार करते थे जो बाहर से चमकीला होता था और पीली धातु की तरह चमकता था। इसे बनाने में काफी खर्च आता था जिसकी वजह से यह साधारण मिट्टी के बर्तनों की अपेक्षा महंगा होता था। इस चमकीले बर्तन में खाना बनाने की वजह से इसका कुछ हिस्सा जल कर काल हो जाता था।'' जहां-जहां पर भी मौर्य सभ्यता के प्रमाण मिलें है, वहां पर चमकीले और काले मृद्भांड जरूर मिले हैं। आरिफ कहते हैं, '' उत्तरी भारत में जब यह मृद्भांड मिले तो जले होने की वजह से वे काले थे और चमकीले थे, इसलिए इसके नामकरण पर काफी विचार हुआ। उत्तरी भारत में यह पाया गया था, और रंग काला था, भगवान कृष्ण का रंग भी सांवला था। इसलिए इसका नाम, उत्तरी कृष्ण चमकीला मृद्भांड रखा गया। यह कोई सिद्धांत नहीं है कि अगर उत्तरी कृष्ण चमकीला मृद्भांड नहीं मिला है तो उन अवशेषों को मौर्य काल का नहीं माना जा सकता है। कौशांबी जनपद में तालाब के नीचे खुदाई में जो ईंटे मिली हैं वे बिलकुल मौर्य काल की हंै।''
उनका तर्क है कि जिस तरह से आज की तारीख में शहर में जो सुविधाएं उपलब्ध हैं वैसी सुविधाएं ग्रामीण इलाकों में उपलब्ध नहीं हैं, उसी तरह यह जो तालाब है, कौशाम्बी जनपद से करीब 25 किलोमीटर दूर है, उस समय भी यह ग्रामीण इलाका रहा होगा, इसलिए इस इलाके में मिटटी के बर्तनों को धातु की तरह चमकीला बनाने पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया जाता होगा। ग्रामीण और पिछड़ा इलाका होने की वजह से यहां के लोग चमकीला मृद्भांड बनाने का खर्च वहन करने की स्थिति में नहीं रहे होंगे। यही वजह है कि यहां जो भी मृद्भांड मिले हैं, वे साधारण किस्म के हैं मगर जो ईंटे मिली हैं उससे साफ जाहिर है कि ये सभ्यता मौर्य काल की हंै। तालाब की खुदाई के दौरान तमाम अवशेषों के साथ मिली ईंटों की लम्बाई 55 सेंटीमीटर, चौडाई 28 सेंटीमीटर और मोटाई 8 सेंटीमीटर है। इस आधार पर इन अवशेषों को 2100 साल से ज्यादा पुराना माना जा रहा है। पुरातत्व विभाग ने अपनी रिपोर्ट मुख्यालय भेज दी है, उम्मीद है कि आगे अक्टूबर के महीने में खुदाई की जायेगी, तभी इस प्राचीन सभ्यता के रहस्य से पर्दा उठ पाएगा।
मौर्य काल में ब्राह्मण, बौद्ध और जैन भिक्षु थे कर मुक्त
मौर्य काल के बारे में यूनानी भाषा में लिखा हुआ मेगस्थनीज का वृत्तांत है , जिसमंे यह विवरण मिलता है कि मौर्य काल में लकड़ी के मकान हुआ करते थे , परन्तु राजा का महल पत्थर का बना हुआ था। मौर्य काल के राजा, जनता की शिकायत सुनने के लिए सदैव तैयार रहते थे । मौर्य काल में ज्यादातर लोग खेती किया करते थे। गांवों- गावो में पशु पालन कर के जीवन यापन करने वाले लोग भी थे, जो गांवों में ही रहा करते थे। मेगस्थनीज ने अपने विवरण में लिखा है कि मौर्य काल में ग्रामीण क्षेत्र अधिक था, गांवों में बुनकर, बढ़ई , लोहार एवं कुम्हार रहा करते थे। उस दौर में जाति के आधार पर ही व्यवसाय होता था , इसलिए कुम्हार मिट्टी के बर्तन बनाते थे , लोहार लोहे से बनी वस्तुएं तैयार करते थे। सभी कारीगर अपने अपने द्वारा बनी वस्तुओं का को राज्य के कोने-कोने में बेचने जाया करते थे। इससे अनुमान लगाया जाता है कि मौर्य काल में व्यापार काफी अच्छी स्थिति में था। मौर्य काल में किसान , कारीगर और सैनिकों की तुलना में ब्राह्मणों, जैन, तथा बौद्ध भिक्षुओं की संख्या कम हुआ करती थी। परन्तु हर कोइ उनका सम्मान करता था, ये लोग राजा को कोई कर नहीं देते थे ।
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