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अगर कोई फिल्म किसी व्यक्ति या घटना से 'प्रेरित' होकर बनाई जाती है तो फिल्मकार के पास यह छूट होती है कि वह कथानक को अपने हिसाब से थोड़ा तोड़-मोड़ सके। इसे 'सिनेमेटिक लिबर्टी' (सिनेमाई छूट) माना जाता है। पर फिल्मकार ओमंग कुमार के पास ऐसी छूट की गुंजाइश नहीं थी। वे एक ऐसे चरित्र पर फिल्म बना रहे थे जो काल्पनिक या ऐतिहासिक नहीं है बल्कि जिसके जीवन की त्रासदी ही 1990 से शुरू होती है।
'सरबजीत' बनाने वालों की तारीफ इसलिए की जानी चाहिए कि उन्होंने अपने समय की एक अत्यंत महत्वपूर्ण कहानी को कहने की कोशिश की, भले ही कथ्य शैली पूरी तरह से दोषरहित न हो! 'सरबजीत' पंजाब के एक साधारण-से किसान सरबजीत सिंह अटवाल की कहानी है जो 1990 में शराब के नशे में सीमा पार कर में पाकिस्तान घुस जाता है और पाकिस्तानी हुकूमत उस पर आतंकवादी होने का आरोप लगाकर जेल में बंद कर यातनाएं देती है। वहां उस पर आतंकी गतिविधियों में शामिल होने के कई मुकदमे चलाये जाते हैं और अंतत: वहीं की जेल में उसकी दर्दनाक मौत हो जाती है।
सरबजीत पर फिल्म बनाने की सबसे बड़ी चुनौती यह है कि उसे पाकिस्तान की जेल में बंद कर दिए जाने के बाद से उसके बारे में जानने के लिए बहुत कम यानी न के बराबर दस्तावेज उपलब्ध हैं। ये दस्तावेज सरबजीत की एक तस्वीर, कुछ पत्र और 1 मिनट का एक वीडियो (जिसमें 30 सेकेंड में आवाज नहीं है) जिसमें सरबजीत कथित तौर पर अपने गुनाह कबूल करते हैं, की शक्ल में हैं। न केवल ओमंग कुमार के लिए बल्कि किसी भी फिल्मकार या पटकथा लेखक के लिए यह एक बड़ी चुनौती है कि वह फिल्म में सरबजीत के जीवन के पाकिस्तान वाले हिस्से को प्रामाणिकता और नाटकीयता के सही संतुलन के साथ दिखाए। लेकिन ओमंग कुमार ने फिल्म के केंद्र में सरबजीत को न रखकर उसकी बहन दलबीर कौर को रखा है जिसने पाकिस्तान की जेल से अपने भाई को रिहा करवाने की अपनी लड़ाई के लिए अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया। फिल्म के केंद्र मंे दलबीर कौर का दो दशकों का संघर्ष है और यह इस लिहाज से फिल्मकार या फिल्म के लेखक के लिए बेहतर है क्योंकि दलबीर और उसकी लड़ाई की कहानी का एक बड़ा हिस्सा इतने वषार्ें में समाचार माध्यमों में छपने या दिखने वाली कहानियों के माध्यम से उपलब्ध रहा है।
फिल्म को देखते हुए सहज ही यह अहसास होता है कि दलबीर कौर नाम की इस मजबूत औरत की भूमिका के लिए निर्देशक कुमार ने ऐश्वर्या राय का चुनाव क्यों किया? अपने रूप-रंग, चाल-ढाल और अपनी संवाद अदायगी के लहजे से ऐश्वर्या उस किरदार के आस पास भी नहीं लगतीं जो उन्होंने परदे पर निभाया है। लेकिन कई बार फिल्मकारों के पास दूसरे किस्म की बंदिशें होती हैं। ये बंदिशें व्यावसायिक भी होती हंै क्योंकि अक्सर पैसे लगाने वाले को बेहतर अभिनेता से अधिक बड़ा स्टार भाता है।
बहरहाल, सच्चाई और काल्पनिकता के बीच तालमेल कैसे बैठाना है, यह जानना किसी भी निर्देशक के लिए बहुत जरूरी होता है। दुर्भाग्य से यह फिल्म कई जगह काल्पनिकता की तरफ ज्यादा झुकी दिखती है क्योंकि पाकिस्तानी जेल के अन्दर के ज्यादातर दृश्य उपलब्ध दस्तावेजों की बजाय काल्पनिकता पर आधारित हैं। कई बार बालीवुड के फिल्मकार एक मानवीय कहानी में बेवजह बालीवुड शैली के इमोशन डाल कर मेलोड्रामा बनाने की कोशिश करते हैं जो फिल्म को मजबूत बनाने की बजाय कमजोर कर देता है। 'सरबजीत' में भी ऐसा एकाधिक बार दिखा है जबकि निर्देशक को बिना किसी अतिरिक्त प्रयास के दु:ख से भरी इस कहानी को अपने प्रवाह में चलते देना चाहिए था।
दूसरी तरफ, सरबजीत सिंह अटवाल के चरित्र के लिए रणदीप हूड्डा का चयन निर्देशक का बुद्घिमत्ता भरा फैसला कहा जाना चाहिए। रणदीप एक बेहतरीन अभिनेता हैं और उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती यही थी कि उन्हें यह किरदार निभाने के लिए सिर्फ अपनी समझ और अपनी अभिनय क्षमता का सहारा था क्योंकि जैसा कि ऊपर कहा गया है कि पाकिस्तानी जेल के अन्दर सरबजीत के जीवन से जुड़ा कोई दस्तावेज उपलब्ध नहीं है। 23 साल तक जेल में (1990 से 2013 तक) बंद और एक कसरती शरीर वाले इंसान से एक जीता जागता नर कंकाल बन जाने तक की भावनात्मक और शारीरिक तौर पर कष्टप्रद जीवन यात्रा की दौरान पनपी निराशा और लाचारी को रणदीप ने बखूबी दर्शाया है। लेकिन फिल्म देखते हुए कई बार यह अहसास होता है कि क्या सरबजीत की बहन दलबीर कौर के मन में इस तरह की कोई अपराध भावना है कि अपने भाई की उस त्रासदी के लिए, भले ही अप्रत्यक्ष तौर पर ही सही, कहीं न कहीं थोड़ी सी जिम्मेदार वह भी है?
पटकथा में इस बात की कोई कोशिश नहीं है कि वह इस बात की पड़ताल करे कि सरबजीत को बचाने की दलबीर कौर की संघर्ष गाथा में उसके अन्दर की अपराध भावना (अगर वह है तो) भी कहीं छुपी है क्या? उस दिन, जिसने सरबजीत की किस्मत बदल दी, दलबीर अपने छोटे भाई को उसकी लापरवाही के लिए दुत्कारती है और घर से बाहर निकाल देती है। सरबजीत के विरोध का जब उस पर कोई असर नहीं होता तो वह अपनी निराशा को एक दोस्त के साथ गम के प्यालों के जरिये भुलाने की कोशिश करता है और शराब के नशे में वह गांव के रास्ते की बजाय भटक कर सीमा पार पाकिस्तान पहुंच जाता है।
लेकिन यह परिस्थिति या घटना जो उसे पाकिस्तान की जेल और अंतत: मौत तक ले जाती है, फिल्म में दुबारा नहीं दिखती। दलबीर को उसके बाद सिर्फ अपने भाई के प्रति हुए अन्याय के खिलाफ उसकी लड़ाई तक ही सीमित कर दिया गया है।
इस सब के बीच, सरबजीत की पत्नी, सुखप्रीत (ऋचा चड्ढा) को पृष्ठभूमि में धकेल दिया गया है और वह कभी-कभी ही (दो या तीन दृश्यों में ) फिल्म में बोलती दिखाई देती है। अविश्वसनीय रूप से प्रतिभाशाली ऋचा चड्ढा (सुखप्रीत), पति से प्यार करने वाली और अपनी दो बेटियों के लालन-पालन में व्यस्त और दलबीर के संघर्ष में पीछे से साथ खड़ी भर दिखाई देती है। लेकिन इन्ही दो-तीन दृश्यों में वह दर्शकों पर गहरा प्रभाव छोड जाती है। इस मार्मिक दृश्यों से स्पष्ट है कि क्यों उसे आज बॉलीवुड की प्रतिभावान अभिनेत्रियों में शामिल किया जाता है।
फिल्म देखते हुए यह भी लगता है कि काश! फिल्मकार सरबजीत के नहीं रहने से उसके परिवार पर पड़ने वाले प्रभावों को सूक्ष्म तरीके से दिखाने की कोशिश करता। उधर दर्शन कुमार उस पाकिस्तानी वकील की भूमिका में जमे हैं जिसने अपने देश की जनता की राय को खारिज करते हुए भी जासूसी और आतंकवाद के आरोपी बनाकर जेल में पड़े सरबजीत का केस पाकिस्तानी अदालत में लड़ा।
सरबजीत का संघर्ष की गाथा दरअसल उस हिंसा के शिकार व्यक्ति की कथा है कि जिस हिंसा ने सात दशकों से भारत और पाकिस्तान के आपसी के संबंधों को परिभाषित किया है। पाकिस्तान बार-बार कहता रहा है कि सरबजीत एक गुप्तचर था जो लाहौर और फैसलाबाद में हुए बम विस्फोटों के लिए जिम्मेदार था। लेकिन इस दलील को भारत सरकार और उनके परिवार वालों ने शुरू से झूठ का पुलिंदा बताया है।
उनके परिवार वालों के अनुसार, वह एक निदार्ेष किसान था जो शराब के नशे में गलती से सीमा पार चला गया। फिल्म दलबीर के नजरिए से कही गई अन्याय और संघर्ष की गाथा है। एक अच्छी बात यह भी है कि फिल्म आम पाकिस्तानियों के चित्रण में संवेदनशीलता बरतती है। फिल्म ने सीमा के दोनों किनारों पर अवैध हिरासत के खिलाफ माहौल बनाया है। कुछेक खामियों के बावजूद 'सरबजीत' एक सराहनीय प्रयास है। बॉलीबुड के फिल्मकार अब ऐसे विषयों और ऐसी कहानियों पर फिल्में बना रहे हैं जो न केवल मौजूदा दौर के लिए बल्कि आने वाली पीढि़यों के लिए महत्वपूर्ण और सोचने को विवश करती हैं। -अमिताभ पाराशर
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