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लंबे समय से भाजपा को उत्तर भारत का ऐसा राजनैतिक दल बताकर खारिज किया जा रहा था जिसका देश के अन्य हिस्सों में कोई प्रभाव नहीं है। यह मिथक वर्ष 2008 में पहली बार उस समय टूटा जब पार्टी ने अपने बूते दक्षिण के एक महत्वपूर्ण राज्य कर्नाटक के विधानसभा चुनावों में जीत हासिल की।
इसके ठीक आठ वर्ष बाद पार्टी ने पहली बार असम में शानदार जीत हासिल कर पूर्वी भारत में कदम रखा है। कुछ कथित सेकुलर दलों के लिए भाजपा शायद अभी भी 'अछूत'हो सकती है लेकिन देश की जनता के साथ ऐसा नहीं है, इस बात को इन चुनावों ने साफ कर दिया है। आज भाजपा का प्रभाव जम्मू-कश्मीर से केरल और गुजरात से लेकर असम तक है। अब यह बात बिना किसी अंतर्विरोध के कही जा सकती है कि कांग्रेस नहीं बल्कि भाजपा वह पार्टी है जिसकी पूरे देश में उपस्थिति और एक छवि है।
असम में भाजपा की जीत से राष्ट्रीय अखंडता और सुरक्षा के मामलों में भी मदद मिलेगी। राज्य को राष्ट्रवाद से ओतप्रोत सरकार की सख्त जरूरत थी क्योंकि अलगाववादी ताकतों ने राज्य को अपनी गतिविधियों के केंद्र में बदल दिया था।
असम का फैसला बांगलादेशी घुसपैठियों के अवैध आव्रजन को लेकर कांग्रेस की नीति और मुस्लिम घुसपैठियों की वजह से राज्य में हुए जनसांख्यिक परिवर्तन के खिलाफ है। बांगलादेशी घुसपैठियों के अवैध आव्रजन की समस्या का सामना करने वाला असम अकेला राज्य नहीं है, बल्कि वहां से काफी दूर स्थित बंगलूरू भी छोटे रूप में इसका सामना कर
रहा है।
पिछले वर्ष दिल्ली और बिहार के विधानसभा चुनाव में भाजपा की हार के बाद कुछ विश्लेषकों ने कहा था कि अब नरेंद्र मोदी-अमित शाह की जोड़ी का जादू खत्म हो गया है। इससे बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार इस बात की कल्पना करने लगे थे कि वे भी आने वाले समय में देश के प्रधानमंत्री बन सकते हैं। आज ऐसा कहने की बारी शायद ममता बनर्जी और जयललिता की है, ये दोनों भी अपनी जीत के बाद ऐसी महत्वाकांक्षाएं संजो सकती हैं।
यदि इस बार तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल में कुछ सीटों पर कांग्रेस ने जीत हासिल की है तो ऐसा द्रमुक और वाम दलों की मेहरबानी से हुआ है। वर्ष 1967 में एम. भक्तवत्सलम के नेतृत्व वाली कांग्रेस को द्रमुक के हाथों हार का सामना करना पड़ा था, उसके बाद से अब तक कांग्रेस कभी भी तमिलनाडु में सत्ताधारी दल नहीं बन पाई है।
पिछले कांग्रेसी मुख्यमंत्री ने उस समय आर्त स्वर में कहा था, ''तमिलनाडु में एक कैंसर फैल चुका है, अब भगवान ही जनता की रक्षा करें।'' विडंबना यह है कि यही वह कैंसर है, अन्नाद्रमुक या द्रमुक ने तमिलनाडु में कांग्रेस को जिंदा रखा है। इस बार हार कांग्रेस की हुई है, जिसे दो ऐसे राज्यों में हार का सामना करना पड़ा है जिनका नेतृत्व पार्टी के दो दिग्गज नेता, असम में तरुण गोगोई और केरल में ओमन चांडी कर रहे थे।
ये चुनाव परिणाम कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी की व्यक्तिगत हार हैं, जिन्हें प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बताया जा रहा था। एक चुनावी सभा में पश्चिम बंगाल के पूर्व मुख्यमंत्री और माकपा के वरिष्ठ नेता बुद्धदेव भट्टाचार्य ने कांग्रेस के भावी उत्तराधिकारी के लिए आदरसूचक शब्दों का प्रयोग किया था। इसमें कोई अचरज की बात नहीं है क्योंकि कांग्रेस ने राज्य में माकपा से ज्यादा सीटें हासिल की हैं। इसमें कोई संदेह नहीं है कि भाजपा दोनों ही राज्यों, पश्चिम बंगाल और केरल में और बेहतर प्रदर्शन कर सकती थी। तकनीकी रूप से यह पहला मौका नहीं है जब पार्टी को बंगाल विधानसभा में प्रतिनिधित्व मिला है। 1967 में अपने पुराने अवतार यानी भारतीय जनसंघ में पार्टी को अपने प्रत्याशी हरिपद भारती (स्कूल शिक्षक) के माध्यम से बंगाल विधानसभा में एक सीट हासिल हुई थी। इसके अलावा भी डॉ. श्यामाप्रसाद मुकर्जी, एन. सी. चट्टर्जी एवं अन्य नेताओं के नेतृत्व में हिंदू महासभा ने अविभाजित बंगाल में एक मजबूत राजनैतिक आंदोलन चलाया था। श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने 1941 में फजलुत हक के नेतृत्व वाले मुस्लिम लीग से अलग हुए एक धड़े के साथ यहां गठबंधन सरकार भी बनाई थी। लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि इस बार भाजपा ने अपने बूते पश्चिम बंगाल का चुनाव लड़ा था। 2014 में हुए लोकसभा चुनाव के 17 प्रतिशत के मुकाबले इस बार पार्टी का वोट प्रतिशत सिर्फ 10 रहा। भाजपा बंगाल विधानसभा में अपनी उपस्थिति का लाभ उठा सकती है। उसे इस बात का फायदा मिल सकता है कि तृणमूल कांग्रेस 'वन वूमन पार्टी' है जो ममता बनर्जी की छवि, उनकी लहर और उनके रवैये पर निर्भर करती है। कांग्रेस और वाम दल दोनों की ही स्थिति लगातार कमजोर ही रही है।
कुछ इसी तरह की स्थिति तमिलनाडु की दोनों द्रविड़ पार्टियों की है, जिनकी झोली में जयललिता और करुणानिधि के करिश्मे, अभिमान और भ्रष्टाचार के अलावा और कुछ नहीं है। तमिलनाडु की अगली अन्नाद्रमुक सरकार पर हमेशा इस बात की तलवार लटकती रहेगी कि जयललिता के खिलाफ आय से अधिक संपत्ति के मामले में सर्वोच्च न्यायालय क्या निर्णय लेता है। कर्नाटक सरकार ने वैसे भी उच्च न्यायालय द्वारा उन्हें छोड़े जाने के खिलाफ अपील की है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि तमिलनाडु चुनाव में भ्रष्टाचार कोई मुद्दा नहीं था क्योंकि दोनों ही द्रविड़ पार्टियों पर इसके आरोप हैं। उपभोक्ता वस्तुओं के मुफ्त वितरण को लेकर तमिलनाडु का आम मतदाता पहले ही भ्रष्टाचार में डूबा है तथा जयललिता और करुणानिधि को अपना मसीहा मानता है। दोनों द्रविड़ पार्टियों के इन 'आकाओं' की पूजा करने के लिए जो लोग आए थे, उन्हें ये लोग गलत उपदेश दे रहे थे। भाजपा दोनों द्रविड़ पार्टियों में से एक के साथ मिलकर तमिलनाडु विधानसभा में सीटें जीत सकती थी, लेकिन उसने निष्पक्षता का मार्ग अपनाया। यहां कर्नाटक का उदाहरण सामने था जब भाजपा ने सत्ता में आने, अपनी पहचान बनाने और लोगों द्वारा सम्मान पाने के लिए धैर्य रखकर एक लंबा इंतजार किया था।
हालांकि भाजपा के पास अगली केरल विधानसभा के लिए केवल एक सदस्य होगा, तो भी यह ईश्वर का उपकार है क्योंकि उसे एलडीएफ और कांग्रेस के नेतृत्व वाले गठबंधन यानी दोनों की कमियों को उजागर करने का मौका मिलेगा। केरल का नतीजा कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार के भ्रष्टाचार के खिलाफ फैसला है। लेकिन वहां भाजपा को दोनों राजनैतिक गठबंधनों का विकल्प बनने के लिए लोगों को प्रभावित करना पड़ेगा। इन दोनों ही गठबंधनों, जिनकी मुसलमानों और ईसाइयों के प्रतिनिधित्व वाले सांप्रदायिक दलों के साथ सांठगांठ है, ने केरल के हिंदुओं को लंबे समय से महत्व नहीं दिया है।
ममता बनर्जी और जयललिता की जीत से नरेंद्र मोदी सरकार की विदेश नीति पर दबाव बढ़ेगा। तीस्ता नदीं के जल बंटवारे जैसे मामलों पर पहले भी तृणमूल नेता यूपीए सरकार पर बांगलादेश से उसके संबंधों को लेकर दबाव बनाने का प्रयास कर चुके हैं। जयललिता श्रीलंका के खिलाफ कठोर नीति अपनाने को लेकर दबाव बनाने का प्रयास कर सकती हैं। संघवाद को लेकर भी उनका रवैया अडि़यल रहा है।
तमिलनाडु ने पिछड़ा वर्ग, अनुसूचित जाति एवं जनजाति आरक्षण मामले पर सर्वोच्च न्यायालय की 50 प्रतिशत की सीमा को मानने से इनकार कर दिया था, राज्य में अभी यह 69 प्रतिशत है। यहां उल्लेखनीय है कि आरक्षण को लेकर तमिलनाडु का 1921 से अब तक का लंबा इतिहास रहा है। यहां का पिछड़ा वर्ग देश के कई अन्य हिस्सों के अगड़े वर्ग से कई मायनों में बेहतर स्थिति में है। असम की शानदार जीत से कुछ हद तक राज्यसभा में भाजपा की ताकत बढ़ेगी। यह भी हो सकता है कि अगले राज्यसभा चुनावों के लिए पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को यहां से कोई सीट न मिल पाए। -अराकेरे जयराम
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