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फिल्म 'बुद्धा इन ए ट्रैफिक जाम' और इसके निर्देशक विवेक अग्निहोत्री से नक्सली और वामपंथी कामरेड इतने नाराज हैं कि उन्होंने सोशल साइट्स पर उनके खिलाफ एक अभियान ही नहीं छेड़ा हुआ है बल्कि हिंसक तेवर तक अपनाए गए हैं। आखिर ऐसा क्या है इस फिल्म में? क्यों चिढ़े वामपंथी छात्र उनसे? ऐसे ही कुछ सवालों पर फिल्मकार विवेक अग्निहोत्री से बात की पाञ्चजन्य के सहयोगी संपादक आलोक गोस्वामी ने। यहां प्रस्तुत हैं उसी वार्ता के प्रमुख अंश :
आपकी फिल्म ने देश में एक वर्ग विशेष में हड़कंप सा पैदा कर दिया है। आखिर मुख्य विषय क्या है फिल्म का?
मुझे लंबे अरसे से ऐसा महसूस होता रहा है कि हिन्दुस्थान की समस्याएं, जैसे गरीबी, बेरोजगारी, भुखमरी आदि, ये तो अपनी जगह हैं ही। इनके अलावा ऐसा लगता है कि हमारे यहां एक तरह का बौद्धिक आतंकवाद भी बढ़ता जा रहा है। मतलब यह कि एक आदमी जो अपने देश के लिए कुछ करना चाहता है, जो अपने कामों से देश को सशक्त बनाना चाहता है, जैसे ही वह अपनी यह बात बुलंद करता है, कुछ लोग उसे पिछड़ा हुआ, संकीर्ण या आर.एस.एस. का बताने लगते हैं। मुझे इससे बड़ी आपत्ति है। जब मैं भारतीय परंपरा या सभ्यता की बात करता हूं तो, फिल्म इंडस्ट्री में होने के बावजूद, मेरी बातों का विरोध होता है। मैंने इस पर काफी शोध किया। तब मेरी समझ में आया कि नक्सल की लड़ाई कई स्तर पर चल रही है और बहुत से लोग हैं जो इससे सहानुभूति रखते हैं। एक नक्सली लड़ाई लड़ी जा रही है जंगलों में, बंदूकों के साथ। और दूसरे स्तर पर उस लड़ाई को बुद्धिजीवी वर्ग में ले आया गया है। नक्सल विचार को अब कोई पूछता नहीं है, देश में यह तकरीबन खत्म हो गया है। इसलिए अब उनकी रणनीति वही है जो हर आतंकी गुट की होती है, जैसे आईएस या तालिबान युवाओं के दिमागों में जहर भरकर उनको फिदायीन या जिहादी बनने को उकसाते हैं, उसी तरह हमारे कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में नक्सली भी बहुत से शिक्षक और छात्र-छात्राओं को बहकाकर, उनका 'बे्रन वॉश' करके उनको बौद्धिक आतंकी बना रहे हैं। यही मेरी फिल्म का केन्द्रीय विषय है।
क्या इसीलिए आपका कई कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में विरोध हुआ?
जी हां। मुझे जब विश्वविद्यालयों के छात्रों ने अपने यहां फिल्म दिखाने के लिए बुलाना शुरू किया तो सबसे पहले जेएनयू ने मेरी फिल्म के प्रदर्शन से इनकार कर दिया। वहां के उन्हीं लेफ्टिस्ट प्रोफेसरों ने खुद आगे आकर फिल्म दिखाने का विरोध किया जो अपने मुंह से खुलेआम बोलते हैं कि, 'हां, हम लेफ्टिस्ट हैं'। दूसरे कुछ विश्वविद्यालयों में जब हमने फिल्म दिखाना शुरू किया तो इन लोगों की बेचैनी बढ़ने लगी। आइआइटी, मद्रास में जब यह तय हो गया कि 5-6 हजार छात्र फिल्म देखने आने वाले हैं तो ठीक एक रात पहले डीन ने अनुमति वापस ले ली, यह बोलकर कि 'गर्मी बहुत है'। अरे, उसके एक हफ्ते पहले वहां एक फिल्म दिखाई गई थी और एक हफ्ते बाद भी एक फिल्म दिखाई गई, तो गर्मी क्या मेरी फिल्म दिखाए जाने वाले दिन ही हो गई थी? साफ था कि वह फिल्म दिखाने से रोकने का बहाना था। उसके बाद एक और विश्वविद्यालय में ऐन वक्त पर प्रदर्शन रोका गया। फिर जादवपुर विश्वविद्यालय में प्रदर्शन रोकने को जो हुआ, वह तो हद थी।
ल्ल जादवपुर विश्वविद्यालय में आपके साथ वामपंथी गुट के छात्रों ने जो व्यवहार किया, उसके बारे में बताएं।
मैं टैक्सी करके गया था जादवपुर विश्वविद्यालय। वहां के वामपंथी छात्रों ने उस टैक्सी को तोड़ डाला। मुझ पर हमला बोल दिया, मेरा कंधा तोड़ डाला। जिस स्क्रीन पर हम फिल्म दिखाने वाले थे, उसे उन्होंने अंदर नहीं आने दिया। मैंने वहां के कुछ छात्रों से हॉस्टल से सफेद चादर मंगाई और आखिरकार उसी पर फिल्म दिखाई।
आप अब तक कितने कॉलेजों, विश्वविद्यालयों में फिल्म दिखा चुके हैं?
मैं भारत के चोटी के 35 संस्थानों में जा चुका हूं। आइआइटी, आइआइएम, बीएचयू, उस्मानिया विश्वविद्यालय, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय, जेएनयू, जादवपुर विश्वविद्यालय, हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय, पंजाब विश्वविद्यालय, भोपाल, इंदौर, अमदाबाद, वडोदरा….जितने नाम गिनाए जा सकते हैं, मैं सब जगह गया हूं।
ल्ल फिल्म प्रदर्शित होने के बाद उस विरोधी गुट में क्या प्रतिक्रिया देखने में आई?
फिल्म प्रदर्शित होने और उसकी तारीफ होने के बाद ये लामबंद होने लगे। आप यकीन नहीं करेंगे, पिछले 5-6 दिन में इन लोगों ने पैसा खर्च करके व्हाट्स एप, एफबी और ट्विटर पर फिल्म को गाली देने के लिए 200-300 ट्रोल एकाउंट्स खोले हैं। मेरे पास सबूत हैं कि ये सब कैम्पेन 'आम आदमी पार्टी' (आआपा) के लोग चला रहे हैं। उनके जितने भी ट्वीट्स या फेसबुक पोस्ट्स हैं, वे सब इस फिल्म के विरोध में ही हैं। इन सबकी कड़ी आआपा से जुड़ती है। उसके पास अपना आइटी प्रकोष्ठ है। हालांकि वे खुद को वामपंथी कहते नहीं हैं पर भीतरखाने
उनसे जुड़े हैं। हमारी पूरी लड़ाई इस बात की है कि हिन्दुस्थान में यहां की बात होनी चाहिए, जैसे अमरीका में अमरीका की होती है। वहां चीन और एशिया का विमर्श तो बाद में ही आएगा न। लेकिन हमारे यहां उलटा हो रहा है, यहां माओ को तरजीह दी जा रही है और भारत की बात करने वाले को दुत्कारा जाता है।
क्या इसीलिए भारत विरोधी नारे लगाने वालों का हौसला बढ़ता है?
बिल्कुल, ऐसे तत्व इसीलिए पैदा होते हैं। जादवपुर विश्वविद्यालय में एक लड़का मुझसे बोला, आपने रोहित वेमुला का मर्डर किया है। मैंने उसको कहा, रोहित का मर्डर नहीं हुआ, उसने आत्महत्या की है। वह बोला, ''आप झूठ बोल रहे हैं।'' मैंने उससे कहा, ''भाई, मैं उसकी बात मानूंगा जो चिट्ठी लिखकर गया है।'' अब पता चला है कि रोहित ने आत्महत्या इसलिए की थी क्योंकि उसे उसकी पार्टी ने ही धोखा दिया था।
जेएनयू में तो आपको सभागार तक देने से मना कर दिया गया था। वहां कितने छात्रों ने वह फिल्म देखी?
प्रशासन ने जब सभागार देने से मना कर दिया तो आयोजन करने वाले छात्रों ने कहा कि, कोई बात नहीं, हम खुले में फिल्म दिखाएंगे, 300-400 छात्र देखने आएंगे। लेकिन जब हम फिल्म दिखाने पहंुचे तो वहां करीब 4,500 छात्र थे। जेएनयू के इतिहास में पहली बार 'वंदेमातरम' और 'भारत माता की जय' के नारे लगे। लेकिन दिक्कत यह है कि मीडिया में कुछ लोग एक ही पक्ष दिखाकर हिन्दुस्थान को समस्याओं से जूझता देश दिखाना चाहते हैं। मोदी सरकार बनने से पहले यही लोग राजनीति की बातें करते थे पर अब सामाजिक व्यवस्था, पुरस्कार वापसी, असहिष्णुता, छात्र में रोष आदि की बातंे करते हैं।
एक ही पक्ष को दिखाने वाले ऐसे अंग्रेजी मीडिया के प्रति क्या कहना चाहेंगे?
मैं जहां गया, वहां छात्रों से पूछा कि हिन्दुस्थान जैसे देश में सोचिए, एक पत्रकार के पास कितना पैसा हो सकता है? देश के ये जो कुछ चोटी के पत्रकार माने जाते हैं,
उनके पास अंदाजन कितना पैसा होगा? तो ज्यादातर का कहना था, ''सर, ये पत्रकार नहीं मीडिया के दलाल हैं।''इनके पास हजारों करोड़ की संपत्ति कहां से आई? ये लोग आमतौर पर लेफ्टिस्ट सोच को बढ़ाते हैं।
क्या आपको लगता है कि भारत के कुछ एनजीओ नक्सलियों के साथ मिले हुए हैं? या कन्वर्जन कराते हैं?
जी, कुछ मामलों में ऐसा लगता है। आप इनमें से किसी एनजीओ पर उंगली उठा भर दीजिए और देखिए, उसके बचाव में कौन-कौन लोग आ खड़े होते हैं। ये वही लोग होंगे जो नक्सल इलाकों में काम कर रहे हैं। यही लोग मीडिया, विश्वविद्यालयों और बौद्धिकों की जमातों में मिलेंगे। आप एक नक्सली पर उंगली उठाइये और देखिए कि उसके बचाव में कितने एनजीओ उठ खड़े होंगे। साथ ही, सवाल उठता है कि नक्सलियों के पास पैसा कहां से आता है बंदूकों और बारूदी सुरंगों के लिए? आज भारत के करीब 20 राज्यों में चल रहे नक्सल आंदोलन की फंडिंग, प्रबंध और संचालन कौन कर रहा है?
फिल्म इंडस्ट्री में 'असहिष्णुता' पर आंसू बहाने वालों के लिए क्या कहेंगे?
इतना ही कि भगवान उनको सद्बुद्धि दे। ऐसी बातें करने वालों में से आधों का मकसद तो सिर्फ केन्द्र सरकार को बदनाम करना है।
आपकी इस फिल्म को कौन-कौन से अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार मिले हैं?
हिन्दुस्थान में मीडिया घराने जो पुरस्कार चलाते हैं उन्होंने फिल्म को पहले आमंत्रित किया, फिर कन्नी काट गए। तब मैंने इसे विदेशों में भेजा जहां इसे सर्वोत्तम पटकथा, सर्वोत्तम फिल्म, सर्वोत्तम निर्देशन, सर्वोत्तम अदाकारा आदि के कई पुरस्कार मिले। वरिष्ठ अभिनेत्री पल्लवी जोशी जी को सर्वोत्तम अदाकारा पुरस्कार मिला।
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