सोच और चिंताओं का दायरा नहीं बदला
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सोच और चिंताओं का दायरा नहीं बदला

by
May 16, 2016, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 16 May 2016 12:37:38

 

डॉ. सेबेस्टियन पॉल

मेरा लंबा राजनीतिक कॅरियर रहा है। पत्रकारिता के पेशे के दौरान भी मैं राजनीति से जुड़ा था। 1970 के दशक के उत्तरार्द्ध में मैं कोच्चि में इंडियन एक्सप्रेस के लिए काम करता था और जनता पार्टी प्रत्याशी के तौर पर मैंने कोच्चि कॉपार्ेरेशन का चुनाव लड़ा था। बेशक इसके लिए मुझे एक्सप्रेस मैनेजमेंट ने इजाजत दी थी। बाद में जब मैंने वकालत शुरू की, उस दौरान भी मैं जनता पार्टी के सदस्य के तौर पर सक्रिय रहा, बाद में मैं जनता दल से जुड़ा। मैं हमेशा राजनीतिक तौर पर कांग्रेस विरोधी रहा हूं। महाराजा कॉलेज के दिनों में और बाद में कोच्चि लॉ कॉलेज में शिक्षा प्राप्ति के दौरान मैं कांग्रेस की राजनीतिक विचारधारा के खिलाफ छात्र राजनीति में सक्रिय रहा था। उस दौरान हमने परिसर में प्रोग्रेसिव फ्रंट नामक मुहिम भी शुरू की थी।
संभवत: यही कारण है कि पत्रकारिता से राजनीति तक के सफर के दौरान मेरी सोच में परिवर्तन नहीं आया। दोनों पेशों में मूलभूत अधिकारों और मानवाधिकारों से जुड़े मुद्दों में मेरी गहरी रुचि रही।
चुनावी राजनीति में मेरा औपचारिक आगमन 1997 के दौरान तब हुआ जब मैंने एर्नाकुलम से लोकसभा चुनाव लड़ा। उस समय वहां के तत्कालीन सांसद की मृत्यु के बाद इस सीट पर उप-चुनाव हुआ था। मैं चुनाव जीता था। परंतु जब मैंने 1998 में चुनाव लड़ा, उस समय किस्मत मेरे विरोधी के साथ थी। उस असफलता के तुरंत बाद मैंने एर्नाकुलम से राज्य विधानसभा का उप-चुनाव लड़ा। मैं वह चुनाव जीता और 2001 तक विधायक रहा। 2001 में मैं कांग्रेस के प्रो. के़ वी़ थॉमस से चुनाव हारा था।  
2003 में जब एर्नाकुलम लोकसभा संसदीय क्षेत्र के सांसद जॉर्ज ईडन का निधन हुआ, तो मुझे कांग्रेस प्रत्याशी के खिलाफ चुनाव लड़ने के लिए चुना गया था। 2004 में एक बार फिर मेरा चुनाव संसद के निचले सदन के लिए हुआ। बेशक इस बार मैंने कांग्रेसी प्रत्याशी को हराया था। आगामी विधान सभा चुनाव में मेरा मुकाबला कांग्रेस उम्मीदवार पी़ टी़ थॉमस से है। 2011 तक के सभी चुनावों तक मैं स्वतंत्र प्रत्याशी था जिसे माकपा की अगुआई वाले लेफ्ट डेमोक्रेटिक फ्रंट (एलडीएफ) का समर्थन प्राप्त था। मैं हमेशा से माकपा के निकट रहा था। मैं विदेश मंत्रालय की स्थायी समिति, रेल मंत्रालय की सलाहकार समिति और प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया की विशेषाधिकार समिति का सदस्य रहा हूं। केवल सात वषार्ें में छह चुनाव लड़ने का दुर्लभ रिकॉर्ड मेरे नाम है जिनमें से चार चुनाव मैंने जीते थे; ये चुनाव मैंने एक ही चुनाव क्षेत्र से निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में लड़े थे।
  मैंने अपने तीनों पेशों में बराबर संतुलन बनाए रखा है। मैं कभी पूरी तरह राजनीतिज्ञ नहीं रहा। मैंने वकालत नहीं छोड़ी, चैनलों पर मीडिया समीक्षक, टीवी चैनल की बहसों, समाचार पत्रों में नियमित स्तंभकार और पुस्तक लेखक के रूप में काम करता रहा हूं। जजों की नियुक्ति के लिए चलने वाली कोचिंग क्लासों के छात्रों को भी मैं पढ़ाता रहा हूं।         मैं नहीं मानता कि चुनावी या संसदीय राजनीति में उतरने के बाद आपके जीवन में आमूल परिवर्तन आ जाता है। मैंने पुस्तक लेखन का अपना कार्य जारी रखा है। 'लॉ, एथिक्स एंड द मीडिया' मेरी नई    पुस्तक है।
बतौर पत्रकार मेरा मिशन जन-साधारण के विचार और उनमें जागरूकता फैलाना रहा है। लेकिन जब मैं संसदीय राजनीति में उतरा तो मैं विकासपरक मुद्दों में सक्रिय भूमिका निभाने लायक बन सका, क्योंकि चुनावी राजनीति के जरिये आप 'सत्ता' के कहीं निकट होते हैं। 'सत्ता' से निकटता के कारण पुल या मार्ग निर्माण आदि जैसे कायार्ें को गति देने मेें मुझे खासी मदद मिली। इस तरह मैं अपने चुनाव क्षेत्र के विकास कायार्ें का हिस्सा बनता हूं, जैसा बतौर पत्रकार मैं कभी नहीं कर पाता।
यह भी रोचक तथ्य है कि वाम मोर्चे के समर्थन के बावजूद मैं हमेशा निर्दलीय प्रत्याशी ही रहा। अपने राजनीतिक जीवन में पहली बार अब मैं माकपा के आधिकारिक चिन्ह के सहारे वोट मांग रहा हूं।
(लेखक सांसद और विधायक रह चुके हैं। वे केरल राज्य विधान सभा चुनाव में कोच्चि के त्रिक्काकारा चुनाव क्षेत्र से माकपा प्रत्याशी के तौर पर चुनाव लड़ रहे हैं। )     प्रस्तुति: टी़ सतीशन

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