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लोकमत बनाते हैं राजनीति और पत्रकारिता

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May 16, 2016, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 16 May 2016 11:56:49

राजनीति और पत्रकारिता दोनों का लगभग एक ही लक्ष्य रहा है और वह है राष्ट्र को पुष्ट करने वाले लोकमत का निर्माण। हालांकि आज दोनों क्षेत्रों में एक क्षरण दिखता है, पर उम्मीद टूटी नहीं है

हृदयनारायण दीक्षित

पत्रकारिता सचेत मगर ध्येयनिष्ठ कर्म है। यह सूचना देकर समाज को सुचालक बनाती है और साहित्यकार अपने सृजन से। राजनीति प्रत्यक्ष हस्तक्षेप करती है लेकिन संस्कृति से बंधे रहकर ही। भारत में सचेत कमार्ें का अमृतफल संस्कृति है। महात्मा गांधी ने इतिहास में हस्तक्षेप किया। प्रत्यक्ष आंदोलनों से, लोक जागरण की राजनीति से और अपनी पत्रकारिता से। लेकिन सभी कमार्ें के मूल में संस्कृति ही थी। उन्होंने दक्षिण अफ्रीका से 'इण्डियन ओपीनियन' अखबार निकाला था। प्रथम अंक में अखबार का उद्देश्य लिखा, ''यहां जो कम उम्र में भारत से आए, यहां बस गए। उन्हें अपनी मातृभूमि का इतिहास और महानता जानने का अवसर नहीं मिला। उन्हें ऐसी जानकारी देना हमारा कर्तव्य है। इसीलिए यह अखबार निकाला जा रहा है।''
  यहां पत्रकारिता का उद्देश्य मातृभूमि और राष्ट्रीय गौरवबोध है। तिलक, गोखले, विपिनचन्द्र पाल, डॉ़ आंबेडकर और डॉ़ लोहिया आदि महानुभाव राजनीति और पत्रकारिता दोनों में ही सक्रिय थे। पं़ दीनदयाल उपाध्याय संगठन, राजनीतिक संघर्ष और पत्रकारिता में एक साथ तपरत थे और तीनों का लक्ष्य एक ही था- परमवैभवं नेतु मेतत् स्वराष्ट्रं।  राष्ट्र संवर्द्धक लोकमत बनाने का काम पत्रकारिता का है और यही काम राजनीति का भी है। दोनों लोकमत का संस्कार करते हैं। यह अलग बात है कि आधुनिक काल में दोनों क्षेत्रों में अवमूल्यन हुआ है। मैं धुर ग्रामीण क्षेत्र (उ.प्र., उन्नाव) का निवासी छात्र था। कमजोरों, गरीबों पर अराजक तत्वों के अत्याचार थे और पुलिस अत्याचार रोंगटे खड़े करने वाले। मैंने छात्रों की गोल बनाई, थाना घेरा। न कोई दल, न झंडा। भारत माता की जय। पढ़ाई और लड़ाई साथ-साथ। ग्रामीण क्षेत्रों में मेरे दलविहीन आंदोलन चरम पर थे। नहीं जानता कि क्या दलविहीन जनांदोलनों को संगठित करना राजनीति में जाना कहा जाना चाहिए। कम से कम आज के परिवेश में तो नहीं। अब राजनीति में प्रवेश के समय एक बड़ी प्रेसवार्ता होती है। संबंधित दल का नेता सदस्य बनाता है। राजनीति में प्रवेश भी गृहप्रवेश जैसा उत्सव होता है। मैं राजनीति में आए बिना ही संघर्ष की राजनीति में था। किसी समाचार पत्र विशेष से जुड़े बिना ही पत्रकारिता में भी।  पाञ्चजन्य में भी 1968 के आसपास मेरा आलेख छपा था। खुशी के कारण कई दिन नींद नहीं आई। अब राजनीति और पत्रकारिता अल्पकालिक कर्म बन गए हैं। कायदे से दोनों में दीर्घकालीन लक्ष्य ही चाहिए। डॉ़ लोहिया ने उचित ही दीर्घकालिक राजनीति को धर्म कहा है। मैं 1967-68 में भारतीय जनसंघ का सदस्य हो गया। जिला परिषद का सदस्य हो गया। आपातकाल के दौरान गोपनीय पत्रक लिखता था। पकड़ा गया तो 18 माह जेल में चिन्तन अवसर भी मिला।

सक्रिय राजनीति और निरंतर लेखन के बीच मैं 1985 में विधानसभा सदस्य बना। सोचता था कि विधायक अपने क्षेत्र की तस्वीर बदल सकता है, लेकिन ऐसी संभावनाएं थीं नहीं। बेशक लेखन और आंदोलन के चलते अपने निर्वाचन क्षेत्र में जाति आधारित अपमान और प्रशासनिक अत्याचारों के विरुद्ध प्रभावी लोकमत बनाने में सफलता मिली। लेकिन अब राजनीति लोकमंगल का अधिष्ठान नहीं रही। पर उम्मीद कायम है। संविधान की उद्देशिका 'हम भारत के लोग' – 'वी द पीपल' से प्रारम्भ होती है, लेकिन यहां 'पीपल-लोग' हैं ही नहीं। राजनीति ने अल्पसंख्यकवाद चलाया, जातिवाद बढ़ाया। प्रश्न उठता है कि क्या हमारे विभिन्न संप्रदायों, मजहबों, पंथों और जातियों ने ही यह गणतंत्र बनाया है? हमारे दृष्टिकोण में राष्ट्रनिर्माण के मुद्दों पर अतिसक्रिय राजनीतिज्ञ होने के बावजूद कोई अंतर नहीं आया। पत्रकार से राजनीतिज्ञ मैं बना नहीं और न ही राजनीतिज्ञ से पत्रकार। मैं दोनों क्षेत्रों में समान रूप से सक्रिय हूं। साल में अनेक सभाएं, बैठकें, प्रतिदिन सौ सवा सौ लोगों से संपर्क और हर माह 21 नियमित स्तंभ आलेख। अभी शब्दों की सवार्ेत्तम अभिव्यक्ति शेष है। राजनीति में आकण्ठ सक्रिय हूं लेकिन यहां मूलभूत परिवर्तन की उम्मीद नहीं। समर तो भी शेष है।
 लेखक वरिष्ठ पत्रकार और उ. प्र. विधान परिषद में भाजपा के नेता हैं)

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