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बालेन्दु दाधीच
इंटरनेट, विशेषकर सोशल मीडिया की क्रांति ने पारंपरिक मीडिया पर पारस्परिक विरोधाभासी प्रभाव डाला है। समकालीन मीडिया इंटरनेट के माध्यम से सामने आ रहे नए लाभप्रद अवसरों से रोमांचित और प्रफुल्लित भी है, लेकिन दूसरी ओर पाठकों की बदलती आदतों, पसंद और समय की सिकुड़ती उपलब्धता के मद्देनजर अपने भविष्य को लेकर सशंकित भी होता चला गया है।
तकनीक के प्रभाव में खबर खोजना, रिपोटिंर्ग करना, लिखना, भेजना, प्रकाशित करना और वितरित करना आसान हो गया है। संदर्भ सामग्री की तलाश तो अब कोई मुद्दा ही नहीं रही। इंटरनेट साथ है तो किसी भी मुद्दे का तमाम कोणों और पहलुओं से विश्लेषण आसान हो गया है। न आंकड़ों की कमी है और न ही दिलचस्प उद्धरणों की। ट्विटर पर ताजा खबरों के संकेत मिल जाते हैं और बचे-खुचे फेसबुक तथा व्हाट्सऐप पर। लोगों की राय लेना आसान है। और यह सब इंटरनेट से जुड़े लगभग हर पत्रकार के पास उपलब्ध है। मुद्रण तकनीकें सस्ती और सुलभ हो गई हैं तो कंप्यूटर के प्रयोग ने डिजाइन का कायाकल्प कर दिया है। छोटे-छोटे शहरों में निकलते छोटे-छोटे अखबार रंग-रूप और प्रस्तुति में बड़े अखबारों से टक्कर लेते प्रतीत होते हैं।
ऐसे में अगर कोई चीज एक पत्रकार को दूसरे पत्रकार से तथा एक अखबार को दूसरे अखबार से अलग कर सकती है तो वह है उसकी खबरों को सूंघने की कला, लेखन शैली, विश्लेषण क्षमता, विषय पर पकड़ और परिपक्वता और साख। निकोलस कार के इस कथन पर संदेह नहीं किया जा सकता कि इंटरनेट धीरे-धीरे हमारे दिमागों को कुंद कर रहा है, लेकिन तब भी मौलिक लेखन, मौलिक सोच और मीमांसा का महत्व बरकरार है। बल्कि सतही, सूचनात्मक और मनोरंजक लेखन के दौर में उसकी अहमियत और दृश्यता बढ़ी है।
इंटरनेट ने सब कुछ बदल दिया, लेकिन पत्रकारिता के मूलभूत पहलू आज भी प्रासंगिक हैं। अण्णा हजारे का आंदोलन हो या अरविंद केजरीवाल का दिल्ली में सत्ता के शिखर तक पहुंचना, मिस्र के बदलाव हों या ट्यूनीशिया की क्रांति, नरेंद्र मोदी की जीत हो या नीतीश कुमार की, इन बदलावों का श्रेय सीधे-सीधे सोशल मीडिया को नहीं दिया जा सकता। बदलाव तब आए जब पारंपरिक मीडिया भी सोशल मीडिया के साथ खड़ा हुआ।
आखिर कोई तो वजह है कि प्रिंट मीडिया और टेलीविजन के दिग्गज सोशल मीडिया पर भी सर्वाधिक लोकप्रिय हैं। माना कि आज निजी ब्रांडिंग का जमाना है और कई पत्रकार यह काम बड़ी कुशलता से कर रहे हैं लेकिन फिर भी मर्म तो मर्म है। इंटरनेट पर फिल्मों की 'समीक्षा' करने वाले कमाल राशिद खान भले ही लाखों लोगों तक पहुंच जाएं लेकिन उनकी सिफारिश पढ़कर फिल्म देखने जाने वालों की संख्या कितनी होगी! टाइम्स ऑफ इंडिया और इंडिया टाइम्स एक ही संस्थान के दो हिस्से हैं लेकिन आज भी टाइम्स ऑफ इंडिया में छपी खबर की अहमियत इंडिया टाइम्स से कम होती है!
आज अपने बुनियादी स्वरूप में अखबारों, पत्रिकाओं और टेलीविजन चैनलों की लोकप्रियता संकट में है। लगातार नई चुनौतियां खड़ी हो रही हैं। पश्चिमी देशों में कई अखबार और पत्रिकाएं या तो बंद हो गए हैं या पूरी तरह ऑनलाइन हो गए हैं। छोटी खबरों के इस सिलसिले को अगर आप सोशल मीडिया की प्रवृत्तियों से जोड़कर देखेंगे तो अहसास होगा कि हालात कितने बदल गए हैं। अगर दुनिया में कहीं ब्रेकिंग न्यूज घटित हो रही है तो वह सबसे पहले ट्विटर पर दिखेगी। ट्विटर भी मोमेंट्स के नाम से खास-खास खबरें अपने पाठकों तक पहुंचाने में जुटा है। इन तेज-तर्रार माध्यमों के सामने प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के लिये खुद को प्रासंगिक बनाए रखना एक चुनौती है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं मीडिया विशेषज्ञ हैं)
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