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बांग्लादेश में इन दिनों बंगाली अस्मिता के पक्षधरों और कट्टरवादियों के बीच संघर्ष जारी है। ये कट्टरवादी तालिबान को आदर्श मानकर बांग्लादेश को भी अफगानिस्तान बनाना चाहते हैं
सतीश पेडणेकर
बांगलादेश में 11 मई को उग्र इस्लामवादी और पाकिस्तान समर्थक जमाते इस्लामी के प्रमुख अमीर मोतीउर रहमान निजामी को फांसी दे दी गई। इसके साथ ही बांग्लादेश के 1971 के मुक्ति संग्राम के दौरान पाकिस्तान का साथ देते हुए देश के नागरिकों के नरसंहार जैसा जघन्य कृत्य करने वाले युद्ध अपराधियों को कठोर दंड देने के अध्याय का पटाक्षेप हो गया। निजामी की बांगलादेश मुक्ति संग्राम में खलनायक की भूमिका को सभी जानते हैं, लेकिन यह बात कम लोगों को ज्ञात है कि वे घोर भारत विरोधी थे। बांग्लादेश के कुछ सूत्रों के मुताबिक 2001 से 2006 तक जब वे खालिदा जिया सरकार में कृषि और उद्योग मंत्री थे, तब पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई बांगलादेश में बहुत सक्रिय थी। इसके अलावा वे भारत के उत्तर पूर्व के उग्रवादी संगठनों के दाऊद गिरोह के साथ रिश्ते जोड़ कर उनकी मदद करते रहे।
वर्ष 2004 में जब निजामी उद्योग मंत्री थे तब एक बड़ी नाव के जरिए दस ट्रक हथियार चटगांव भेजे गए। ये नावें निजामी की देखरेख में थीं। इन हथियारों को भारत के उत्तर-पूर्व के उग्रवादी संगठनों के लिए भेजा जा रहा था जिनके नेता उस समय बांग्लादेश से उग्रवादी गतिविधियों का संचालन कर रहे थे। बांग्लादेश की जिया सरकार उन्हें हर तरह की मदद कर रही थी। बाद में 2014 में निजामी और पूर्व गृह राज्यमंत्री लुत्फ जमान को दस ट्रक हथियारों के मामले में मौत की सजा सुनाई गई थी।
दरअसल, केवल निजामी और उनका संगठन जमाते-इस्लामी बांग्लादेश के 1971 के जनसंघर्ष का असली खलनायक था। यही वजह थी कि पंथनिरपेक्षता और लोकतंत्र के मूल्यों में यकीन करने वाला शाहबाग आंदोलन 1971 के युद्ध अपराधों के लिए दोषी गुनाहगारों को कड़ी से कड़ी सजा और उसके लिए जिम्मेदार जमाते-इस्लामी पर पाबंदी लगाने की मांग करता रहा है। बांग्लादेश मुक्ति संघर्ष के समय जमाते-इस्लामी जैसे संगठनों ने पाकिस्तानी सेना का साथ दिया था और बांग्लादेश में हुए नरसंहार में बराबर के भागीदार बने थे। इस नरसंहार में मुक्ति संघर्ष के लाखों समर्थकों की हत्या कर दी गई थी। आज भी बांग्लादेश में सामूहिक कब्रगाहें मिल रही हैं, जहां नरसंहार के बाद लोगों को दफनाया गया था। इसके अलावा पाकिस्तानी सेना पर हजारों महिलाओं के साथ बलात्कार का आरोप है। जमाते इस्लामी जैसे सांप्रदायिक संगठन नहीं चाहते थे कि बांग्लादेश इस्लामी राज्य पाकिस्तान से आजाद होकर सेकुलर और लोकतांत्रिक राज्य बने। वह अखंड पाकिस्तान के पक्षधर थे और आजाद बांग्लादेश के विरोधी। इसी कारण उन्होंने पाकिस्तानी सेना का साथ दिया और इस नरसंहार के भागीदार बने। दुर्भाग्य से इतने साल बाद भी जमात-इस्लामी की सोच बदली नहीं है। इसलिए वह आज भी सेकुलर ताकतों के लिए सबसे बड़ी चुनौती है।
युद्ध अपराधियों को हुई सजा से जहां सेकुलर ताकतों की जीत हुई है, वहीं देश में सेकुलर ब्लॉगरों, लेखकों और अल्पसंख्यकों की शामत आई हुई है। हाल ही में 25 अप्रैल को बांग्लादेश में समलैंगिकों की पहली पत्रिका के संपादक जुलहास मन्नान को मौत के घाट उतार दिया गया। इससे पहले 23 अप्रैल को राजशाही यूनिवर्सिटी के एक प्रोफेसर सिद्दीकी की गला रेत कर हत्या कर दी गई। उनकी हत्या बांग्लादेश में नास्तिकता का समर्थन करने के लिए की गई। इससे कुछ ही दिन पहले आतंकवादियों ने कानून के एक छात्र नजीमुद्दीन समद की हत्या कर दी थी। वह कट्टरवादी इस्लामवादियों का घोर आलोचक था।
इन हत्याओं की सूची बहुत लंबी है और इसकी जड़ें मजहबी कट्टरवाद में छिपी हैं। बांग्लादेश में कट्टरवादी संगठन किसी भी सेकुलर लेखक, ब्लॉगर या प्रकाशक को बर्दाश्त नहीं कर सकते। कट्टरवादी संगठनों का असर बढ़ने की वजह से हाल में ईसाई तबके के लोगों पर भी हमले बढ़े हैं। वर्ष 2013 में अल कायदा के सहयोगी अंसारुल्लाह नामक एक कट्टरवादी संगठन ने 84 सेकुलर ब्लॉगरों की एक सूची प्रकाशित की थी। इनमें उन सभी लोगों के नाम शामिल थे, जो अपनी लेखनी के जरिए मजहबी समानता, महिला अधिकार और अल्पसंख्यकों का मुद्दा उठाते रहते हैं। सरकार को शक है कि तमाम ब्लॉगरों की हत्या के पीछे इसी संगठन का हाथ है।
ब्लॉगरों की हत्या का सिलसिला चार साल से चल रहा है। इनको मारने वाले जिहादी तत्वों ने इन्हें इस्लाम का दुश्मन बताते हुए दूसरे ब्लॉग लेखकों को भी अंजाम भुगतने के लिए तैयार रहने को कहा। जिहादियों ने सनसनी तो फैला दी, लेकिन वे ब्लॉगरों के लेखन पर रोक लगाने में कामयाब नहीं हुए, क्योंकि ब्लॉगर भी बांग्लादेश में एक ताकत, एक आंदोलन बन चुके हैं। इसकी शुरुआत हुई थी फरवरी, 2013 में जब शाहबाग के प्रदर्शनकारियों ने बांग्लादेश के इतिहास को एक नया मोड़ दिया था।
ढाका का शाहबाग चौक। बांग्लादेश मुक्ति संघर्ष का पहला बलिदान स्थल। फरवरी, 2013 में जब बांग्लादेश में मुक्ति संघर्ष के युद्ध अपराधियों पर मुकदमे चलाने को लेकर उथल-पुथल मची थी, तब ढाका की सड़कों पर एक जनसैलाब उमड़ा। उनकी मांग थी कि 1971 के युद्ध अपराधियों को फांसी दी जाए। बांग्लादेश के युवा पाकिस्तानी सेना, जमात के गुगार्ें और रजाकारों द्वारा की गई लाखों बंगालियों की हत्या और लाखों बलात्कारों को भूलने को तैयार नहीं थे। इसमें से ही निकला युवाओं का शाहबाग आंदोलन। उनके इशारों पर शाहबाग चौक पर हजारों नौजवान इकट्ठा होने लगे। इन युवाओं का नेतृत्व कुछ ब्लॉगर कर रहे थे। सोशल मीडिया सूचनाओं के आदान-प्रदान का माध्यम बना। धीरे-धीरे शाहबाग चौक ने सारी दुनिया के मीडिया का ध्यान खींच लिया।
शाहबाग से बांग्लादेश लगातार सुलग रहा है। यह ऐसी लड़ाई है जिसमें युवा ब्लॉगर स्वतंत्रता और न्याय की लड़ाई के प्रतीक बन गए हैं। दूसरी तरफ बांग्लादेश के एक बड़े वर्ग पर इस्लामी कट्टरवादियों का खासा प्रभाव है, जिनमें जमाते-इस्लामी, इस्लामिक छात्र शिविर, इस्लामी ओकियो जोत, हरकत उल जिहाद अल इस्लामी, जिहादी मूवमेंट ऑफ बांग्लादेश (जेएमबी), अराकान रोहिंग्या नेशनल ऑर्गनाइजेशन, जाग्रतो मुस्लिम जनता, तब्लीगे-जमात और अहले-हदीस-बांग्लादेश शामिल हैं। एक तरफ राजनीतिक दलों के शत्रुतापूर्ण विरोध के कारण बांग्लादेश की राजनीति उबल रही है, दूसरी तरफ सेकुलरवाद बनाम इस्लामवाद का संघर्ष तेज हो रहा है। एक तरफ है, 'आमार बांग्ला, सोनार बांग्ला' तो दूसरी तरफ है 'आमार सोबोई तालिबान, बांग्ला होबे अफगानिस्तान।' यानी हम सभी हैं तालिबान, बांग्लादेश होगा अफगानिस्तान।
बांग्लादेश राजनीतिक मतभेदों के चलते साफ-साफ दो ध्रुवों में बंट चुका है। बांग्लादेश की राजनीति दो दलों के ईद-गिर्द घूमती है- अवामी लीग और बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (बीएनपी)। इन दोनों दलों की लगाम दो बेगमों के हाथों में है। अवामी लीग की प्रमुख शेख हसीना इन दिनों वहां की प्रधानमंत्री हैं। बीएनपी की डोर खालिदा जिया के हाथ में है। दोनों ही बेगमें एक-दूसरे को फूटी आंख देखना पसंद नहीं करतीं।
बांग्लादेश का संविधान भी तमाम अंतर्विरोधों से भरा हुआ है। बांग्लादेश अपने को सेकुलर देश कहता है, मगर उसका एक राष्ट्रीय मजहब है-इस्लाम। लेखिका तस्लीमा नसरीन सवाल उठाती हैं- सेकुलर देश का क्या कोई मजहब होता है? इसका उत्तर हम सब जानते हैं कि नहीं होता। वर्ष 2011 में बांग्लादेश की सरकार से वहां की सवार्ेच्च अदालत ने जानना चाहा था कि संविधान के आठवें संशोधन को, जिसके जरिए बांग्लादेश के राष्ट्रीय मजहब को इस्लामी घोषित किया गया है, क्यों न गैरकानूनी घोषित कर दिया जाए? पर अफसोस, अब ऐसी स्थिति नहीं है। जिन लोगों ने शेख हसीना से उम्मीदें पाली थीं, आज वे बेहद हताश हैं। वर्ष 1972 के सेकुलर संविधान को दोबारा बहाल करने की जो प्रतिबद्धता उन्होंने जताई थी, वह आज तक पूरी नहीं हुई। आज से 28 वर्ष पहले बांग्लादेश के बुद्धिजीवियों ने संविधान से राष्ट्रीय मजहब पद को हटाने के लिए जो याचिका दायर की थी, उसका फैसला आ चुका है। सवार्ेच्च न्यायालय ने कह दिया है कि बांग्लादेश में राष्ट्रीय मजहब रहेगा। इसका मतलब है कि जल्दी ही बांग्लादेश में इस्लाम ही एकमात्र कानून होगा।
बांग्लादेश की राजनीति पर नजर रखने वाले विश्लेषक पिछले दो वर्ष से इसी सवाल से जूझ रहे हैं कि क्या बांग्लादेश अपने इस्लामी उग्रवादियों के लिए सुरक्षित शरणगाह बन जाएगा। सबसे खतरनाक बात यह है कि सरकार इस मामले से पल्ला झाड़ती नजर आ रही है। हाल ही में प्रधानमंत्री शेख हसीना ने सरकार की नीति को स्पष्ट करते हुए उन ब्लॉगरों को आड़े हाथों लिया, जो इस्लाम और पैगंबर की आलोचना करते हैं। उन्होंने कहा कि इन दिनों मुक्त चिंतन के नाम पर मजहब के बारे में कुछ भी लिखना चलन बन गया है। यह कतई स्वीकार्य नहीं है कि कोई हमारे पैगंबर और महजब के खिलाफ कुछ लिखे। इसके बाद प्रधानमंत्री ने कहा कि कोई अनहोनी होने पर सरकार इन लोगों (ब्लॉगरों) की जिम्मेदारी क्यों ले? हसीना की इस टिप्पणी से स्पष्ट है कि वे अभिव्यक्ति की आजादी को लेकर बहुत प्रतिबद्ध नहीं हैं।
राजनीति के ये अंतर्विरोध अपनी जगह हैं ही, मगर इस बात से कौन इनकार कर सकता है कि बांग्लादेश आज वैचारिक दोराहे पर खड़ा है। उसकी बंगाली पहचान बड़ी है या मुस्लिम पहचान। जब तक इस मामले में कोई निर्णायक फैसला नहीं होता, तब तक यह खूनी खेल जारी ही रहने वाला है। ल्ल
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