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बात 1996 की है। 17 सितंबर का दिन था जब अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् के तीन कार्यकर्ताओं को मार्क्सवादी गुंडों ने पंपा नदी में डुबोकर मार डाला था। केरल में एलेप्पी जिले के करीब पुरुमाला नगर के देवस्वाम कॉलेज में छात्रसंघ चुनाव की कहासुनी में कामरेड नृशंस्ता की किस हद तक गए यह तब सबने देखा और सिहर उठे। विरोधी गुट के छात्रों को दौड़ाया गया, उन्हें उफनती नदी में कूदने पर विवश किया गया। जिसने किनारे आने की कोशिश की उस पर पत्थर बरसाए गए… भीड़ द्वारा युवकों के बचाव में कूद पड़ने पर भी किम करुणाकरण, सुजीत और अनु के सिर्फ शव ही मिल पाए।
तब राज्य में माकपा की सरकार थी।
यह 2016 है। कोच्चि के करीब पेरम्बवूर में कानून की पढ़ाई कर रही अनुसूचित जाति की छात्रा जीशा, दरिंदों का शिकार बनी (देखें पेज 30)। दिल्ली का वीभत्स निर्भया कांड पीछे छूट जाए ऐसी बर्बरता…प्रशासनिक सुस्ती और गुंडों को राजनीतिक प्रश्रय दिए जाने से नाराज स्थानीय लोग आक्रोश से उबल रहे हैं। कोच्चि के पास ही अनुसूचित जाति की एक अन्य कॉलेज छात्रा को वामपंथी संगठनों से जुड़े छात्रों-शिक्षकों ने इतनी मानसिक यंत्रणा दी कि बेचारी आत्महत्या का प्रयास कर बैठी।
आज राज्य में कांग्रेस की अगुआई वाले यूडीएफ गठबंधन की सरकार है।
केरल के अतीत और वर्तमान की इन लोमहर्षक घटनाओं को एकसाथ याद करना इसलिए जरूरी है क्योंकि इसमें भारतीय राजनीति की नफरत और अवसरवादिता की कलई खोलने वाले सूत्र छिपे हैं।
देशभक्त विचारधारा को निशाना बनाने वाले लोग, खास विश्वविद्यालय में खास छात्र संगठन से जुड़े अनुसूचित जाति के छात्र की आत्महत्या को भुनाने और केरल के अनुसूचित जाति के छात्रों पर भयंकर अत्याचार को भुलाने वाले लोग भावुक-संवेदनशील नहीं हैं। राजनीति के कुछ खेमों की यह सियासी समझ खूनी है। इसने सत्ता में राष्ट्र और जनता के प्रति स्वाभाविक रूप से उमड़ने वाली संवेदनाओं की हत्या कर दी है। आज निष्ठुरता की राजनीति आपस में हाथ मिला रही है।
केरल जैसे राज्य में कानून व्यवस्था और राजनैतिक गुंडागर्दी का जैसा हाल तब था, अब भी है। राष्ट्रीय विचार के लोग जैसे तब वामपंथी हत्यारों के निशाने पर थे, अब भी हैं। महिला और दलितों पर अत्याचार की दिल दहलाने वाली कहानियां जैसे तब दिल्ली में दब जाती थीं, अब भी दब जाती हैं। लेकिन तब कम्युनिस्टों और कांग्रेस के चेहरे और पाले अलग खिंचे दिखते थे, अब ऐसा नहीं है। केरल के तत्कालीन मुख्यमंत्री ई.के. नयनार द्वारा विद्यार्थी परिषद् कार्यकर्ताओं की हत्या के मुद्दे पर विधानसभा में चर्चा कराने से इनकार पर तब विपक्ष के नेता ए. के. एंटनी बिफर गए थे। उन्होंने कहा था -'' निदार्ेष युवकों के जीवन बचाए जा सकते थे…एसएफआई ने केरल के कॉलेजों में आतंक का राज स्थापित कर दिया है…।''
आज अनुसूचित जाति की एक छात्रा को मौत की राह पर धकेलने वालों के विरुद्ध और दूसरी छात्रा की जघन्यतम हत्या पर एंटनी तब का बयान दोहराएं, या उनकी पार्टी के युवराज केरल में अनुसूचित वर्ग, छात्रों या महिलाओं के हक की आवाज उठाने जाएं यह संभव ही नहीं है। संसद के भीतर, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की चौहद्दी में और सहूलियत की राजनीति के हर मंच पर जनवादी और सेकुलर 'झंडे-बिल्ले' साथ-साथ हैं। सत्ता की भूख और अस्तित्व का सवाल नई लामबंदियों की शक्ल ले रहा है।
वैसे, जनवादी और सेकुलर लबादे ओढ़ने वालों का इतने साफ तौर पर उघड़ना राजनीति के इस दौर की सबसे बड़ी उपलब्धि भी है। जिस वक्त जहरीली राजनीति अपनी बची-खुची मांदों में सबसे निर्मम-विरोधाभासी रूप में सिमट रही है, उसी वक्त सोशल मीडिया का सच, युवाओं का जोश और राष्ट्रव्यापी बदलाव की धार नई गति पकड़ रहे हैं।
तकनीक का तरकश और लोकतंत्र की लहर अब उस ऊंचाई पर हैं कि कैसी भी अत्याचारी बाजियां कभी भी पलट सकती हैं। सियासी चुप्पियां सुनी जा सकती हैं, किसी जीशा की चीख अनसुनी नहीं रह सकती।
केरल से दिल्ली तक, आज नया भारत किसी मौकापरस्त लामबंदी के नारे में नहीं डूबा, इसकी अलख एक ही है #ख४२३्रूीऋङ्म१ख्र२ँं
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