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सुरेन्द्र अहलावत
जाट हाजिर-जवाबी और भोलेपन के लिए जाने जाते हैं। मगर पिछले दिनों हरियाणा में जो दिखा, वह इस पहचान से मेल नहीं खाता। रातोरात जाटों के मन में कौन-सी हिलोर उठी कि वे सड़कों पर उतर मरने-मारने को उतारू हो गए?
हिंसक आरक्षण आंदोलन का सच क्या है? कहीं आंदोलन की आड़ में यह सत्ता की भूख से उपजी साजिश तो नहीं है? हरियाणा की पहचान देश और दुनिया में कर्म करने और फल की इच्छा न करने का संदेश देने वाली गीतास्थली, जात-पात और छुआछात व अंधविश्वास के खिलाफ खड़े हुए आर्य समाज के गढ़ की रही है। जिस प्रदेश का नामकरण जाति, क्षेत्र के आधार पर न होकर स्वयं भगवान श्री हरि के आगमन (हरि का आना – हरियाणा) पर हुआ हो, वहां एकाएक आंदोलन के नाम पर हिंसा, हत्या, लूट और जातीय विद्वेष के ज्वार ने देश-दुनिया को झकझोर दिया।
आंदोलन से जुड़े रहे व मुख्यमंत्री मनोहर लाल के खिलाफ कई बार विवादित बयान देने वाले जाट नेता हवा सिंह सांगवान ने वार्ता बैठक के बाद मीडिया के सामने हैरान करने वाला बयान दिया। सांगवान के मुताबिक उन्होंने मुख्यमंत्री को बताया कि अब आंदोलन उनके हाथों से फिसलकर नए अनजान लोगों के हाथ में जा चुका है। इस बात का मतलब बाद के घटनाक्रम से समझ आया। चौंकाने वाली बात यह थी कि जब सरकार ने मांगें मान ही ली थीं तो आंदोलन ठंडा होने की बजाए और उग्र कैसे हुआ! कौन-सी अदृश्य ताकत पर्दे के पीछे से राज्य में असहिष्णुता बढ़ाना चाहती थी?
मैं इस बहस में नहीं पडूंगा कि जाटों की मांग जायज है या नहीं? मेरी पीड़ा यह है कि आंदोलन में हिंसा फैला कर सामाजिक वातावरण में जहर घोलने का षड्यंत्र किसने रचा? जख्मों को भरने में काफी समय लगेगा। आज यह समय किसी वर्ग या जाति की गलती निकालने का नहीं है। जरूरत इस बात की है कि ऐसी ताकतों के चेहरे से नकाब हटनी चाहिए जिन्होंने स्वार्थ पूर्ति हेतु हरे-भरे हरियाणा को जलाने का काम किया।
मेरा मानना है कि यह किसी एक व्यक्ति या दल विशेष का षड्यंत्र नहीं बल्कि विकास विरोधी, देश विरोधी, सत्ता की भूखी कई ताकतों की पालेबंदी है।
वैसे तो हिंसा की कोई भी जाति और धर्म नहीं होता। लेकिन जो हिंसा इस दौरान हुई, उसके बाद क्या खाप पंचायतों, जाट बुद्घिजीवियों व संगठनों का यह फर्ज नहीं बनता कि प्रदेश के अमन-चैन को बर्बाद करने की साजिश रचने वाली ताकतों व हिंसा और लूट-पाट में शामिल तत्वों की पहचान कर कड़ा सामाजिक दंड दें?
अभी भी प्रदेश की जनता आंदोलन के घटनाक्रम से जुड़ी कई बातों को न समझ पा रही है और न ही पचा पा रही है?
पहली बात, ज़ाट आरक्षण के समर्थन में जाटों के पास कोई भी करिश्माई या बड़ा नेता नहीं था, फिर अचानक इतना बड़ा आंदोलन कैसे खड़ा हो गया?
दूसरी बात, जब रोहतक की हिंसा के कारण हरियाणा जल रहा था उस समय कांग्रेस के पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र हुड्डा अपने गढ़ रोहतक में भी हिंसा शांत करने क्यों नहीं गए? और जब मामला ठंडा पड़ने लगा तब वह शांति और भाईचारे की अपील के लिए जंतर-मंतर क्यों पहुंचेे,अपने गृह जिले में क्यों नहीं? आंदोलन को भड़काने वाली संदिग्ध आडियो टेप के मामले में वे आरोपों से घिरे अपने पूर्व राजनीतिक सलाहकार को बचाने की कोशिश क्यों कर रहे हैं?
तीसरी बात, आज तक हरियाणा में जायज-नाजायज मांगों के समर्थन में अनेक धरने-प्रदर्शन होते रहे हैं लेकिन उनकी मांगों के खिलाफ पहले कभी-किसी भी दूसरे पक्ष या वर्ग ने मोर्चे या जलूस नहीं निकाले तो फिर अचानक जाट आंदोलन के दौरान जगह-जगह एक दूसरे के खिलाफ क्रमबद्घ मोर्चे व जुलूस कैसे निकले?
चौथी बात, आंदोलन ठंडा होते ही लगभग समस्त मीडिया में दर्जनभर महिलाओं के साथ आंदोलनकारियों द्वारा मुरथल में सामूहिक बलात्कार की खबरें कैसे छाई रहीं? जबकि तब तक इस संबंध में किसी भी महिला या उसके रिश्तेदार ने न तो पुलिस में रिपोर्ट की और न ही मीडिया को कोई बयान दिया?
पांचवीं और सबसे चौंकाने वाली बात, सोशल मीडिया पर अचानक कुछ मुस्लिम, जाट आंदोलनकारियों की और कुछ जाट, मुस्लिमों की एकदम प्रशंसा कैसे करने लगे? साथ जोड़कर देखने वाली बात यह भी है कि सपा के आजम खान का आंदोलन के समाप्त होने के बाद यह बयान क्यों आया कि भाजपा सरकार ने आंदोलन के दौरान जाटों पर बहुत अत्याचार किए हैं जबकि आजम खान का हरियाणा की राजनीति या जाटों से दूर-दूर तक का नाता नहीं है? अंतिम बात, बसपा मुखिया मायावती सदा अन्य जातियों द्वारा आरक्षण की मांग के खिलाफ रही हैं उन्होंने जाटों की मांग को तुरंत समर्थन क्यों दे दिया?
यह कुछ ऐसे प्रश्न हैं जिनका जवाब आज हरियाणा का बच्चा- बच्चा मांग रहा है। ऐसे में स्थिति की गंभीरता को समझते हुए हर जाति-वर्ग के प्रत्येक व्यक्ति द्वारा सतर्कता के साथ चीजें समझना और अपनी जिम्मेदारी निभाना समय की मांग है। जाति से बड़ा भाईचारा है— इस भावना को अपनाकर आगे चलना होगा ।
क्या जाट समाज को आरक्षण अपने ही भाइयों की जान और माल की कीमत पर चाहिए?
लेखक सामाजिक कार्यकर्ता और अधिवक्ता हैं
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