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करीब डेढ़ दशक कारागार में कठोर सजा झेलने के बाद समाजसेवा के क्षेत्र में वीर सावरकर ने अद्वितीय कार्य किया था। राजनीति, सत्ता, संपत्ति व प्रसिद्घि से जुड़ी सतही सोच ने उन्हें कभी नहीं लुभाया। हालांकि, स्वातंत्र्यवीर विनायक दामोदर सावरकर को अधिकांशत: स्वतंत्रता सेनानी व हिन्दुत्व के पुरोधा के तौर पर जाना जाता है, लेकिन कम ही लोग जानते हैं कि वे असाधारण समाजसेवी भी थे। अत: उनके आत्मर्पण (स्वयं भोजन व जल त्यागकर प्राण छोड़ना) की पचासवीं सालगिरह पर बतौर समाजसेवी उनके योगदान को याद करना सुयोग्य अवसर है। अपने विचारों, शब्दों व कृत्यों के जरिये सामाजिक सुधारों के उनके प्रयासों को धार्मिक संकीर्णतावादियों और सरकार की ओर से बड़े विरोधों का सामना करना पड़ा था। इसके बावजूद, बेहद कम संसाधनों से उन्होंने अपने प्रयास जारी रखे।
सावरकर ने समाज सुधार व तार्किकता से जुड़े अपने विचारों को कलमबद्घ भी किया। रत्नागिरि में नजरबंदी के दौरान उन्होंने 'जातुच्छेदक निबंध' (जातिप्रथा उन्मूलन पर निबंध) व 'विज्ञान निष्ठा निबंध' (वैज्ञानिक सोच पर निबंध) लिखे थे। उनके लिखे नाटक 'उ:षाप' (श्राप का प्रतिकार) में अस्पृश्यता, महिलाओं के अपहरण, शुद्घि व रूढि़वादियों के दोगलेपन जैसे विषयों को उठाया गया है। उन्होंने मंदिर में दाखिल होने जैसे विशिष्ट अवसरों पर कविताएं भी लिखीं।
आजीवन समाजसेवी
अक्सर यह आरोप लगाया जाता है कि सावरकर ने समाजसेवा का अभियान निम्न जातियों के प्रति सहानुभूति के लिए नहीं बल्कि हिन्दू सशक्तीकरण के लिए चलाया था। पर उनका यह कथन इस आरोप को सिरे से खारिज करता है, ''हमारे 7 करोड धर्मावलंबियों को 'अस्पृश्य' व पशुओं से बदतर कहना न केवल मानवजाति का बल्कि हमारी आत्मा का भी अनादर करना है। इसीलिए मेरा अटूट विश्वास है कि अस्पृश्यता का समूल उन्मूलन होना चाहिए़.. जब मैं यह कह कर किसी का स्पर्श करने से इनकार करता हूं कि वह किसी विशेष जाति में पैदा हुआ है, परंतु कुत्तों व बिल्लियों के साथ खेलता हूं, उस समय मैं मानवता के विरुद्घ सबसे जघन्य अपराध करता हूं। अस्पृश्यता का उन्मूलन केवल इसलिए जरूरी नहीं कि यह हमारे ऊपर थोपी गई है बल्कि इसलिए भी कि धर्म के किसी भी पक्ष पर विचार करते हुए इसे न्यायसंगत ठहराना असंभव है। अत: इस प्रथा को धर्म के एक आदेशानुसार समाप्त किया जाना चाहिए।'' (1927, समग्र सावरकर वांग्मय, सं़ एस.आर.दाते, महाराष्ट्र प्रांतिक हिंदू सभा, पुणे, 1963-1965, खंड 3, पृ़ 483)
उनके विरुद्घ एक अन्य आक्षेप यह लगाया गया कि उन्होंने समाज सुधार कार्य केवल इसलिए शुरू किया क्योंकि उनकी राजनीतिक गतिविधियों पर अंग्रेजी सरकार ने पाबंदी लगा दी थी और बिना शर्त रिहाई के बाद वे सामाजिक कायार्ें को भूल गए थे। 1920 में अंदमान से भेजे गए एक पत्र में उन्होंने लिखा, ''जैसा कि मेरा मानना है कि मैं हिन्दुस्तान पर विदेशी हुकूमत के खिलाफ बगावत करूं, इसी तरह मैं यह भी मानता हूं कि मुझे जातिगत भेदभाव और अस्पृश्यता के खिलाफ भी बगावत करनी चाहिए।'' यह पत्र उन्होंने हिंदुओं को एकजुट करने के अपने निर्णय से पहले लिखा था। बतौर हिंदू महासभा अध्यक्ष उनकी कोई यात्रा अस्पृश्य रहे लोगों के घरों में जाए बिना पूरी नहीं होती थी। गणेशोत्सव के अवसर पर वह एक ही शर्त पर व्याख्यान देते थे कि उस अवसर वे अस्पृश्य रहे लोग भी मौजूद रहें।
मील का पत्थर
हालांकि सावरकर जीवनभर समाजसुधार के कायार्ें में लगे रहे, परंतु 1924 से 1937 के समय को उनके समाजसेवी जीवन का शीर्ष माना जा सकता है। महाराष्ट्र का तटवर्ती रत्नागिरि जिला पुरातनपंथियों का गढ़ था। हिंदू समाज का सामाजिक ताना-बाना सात जातिगत बेडि़यों में बंधा था। 1925 में सावरकर ने महार समुदाय (आंबेडकर इसी जाति से थे) से अपने सर्वेक्षण की शुरुआत की। उन्होंने सामूहिक भजन गान आयोजित करना शुरू किया। उन्होंने व्यवस्था की कि महार, कुम्हार व वाल्मीकि जैसी निचली जातियों के बच्चे प्रतिदिन स्कूल जाएं। इसके लिए वे उनके अभिभावकों को चाक-स्लेट के साथ-साथ पैसे भी देते थे।
विद्यालयों में जातिगत भेदभाव को सामने लाते हुए सावरकर ने रत्नागिरि हिंदू सभा की ओर से 1932 में आईसीएस अधिकारी लेमिंग्टन के सामने एक प्रस्तुति दी। लेमिंग्टन को 'निम्न' जातियों की देख-रेख का जिम्मा सौंपा गया था। सावरकर लिखते हैं, ''एक साथ शिक्षित होने के बाद, बच्चे बाद के जीवन में जातिगत भेदभाव को नहीं मानेंगे। वह जाति के आधार पर बंटवारा नहीं चाहेंगे। इसलिए 1923 के सरकारी नियम का सख्ती से पालन करना होगा। साथ ही, सरकार को 'निम्न जाति के बच्चों का विशेष स्कूल' जैसे शीर्षकों को भी समाप्त करना होगा। इस शीर्षक से ही स्कूल जा रहे बच्चों में हीनभावना घर करती है।'' (बालाराव सावरकर, पृ़ 159)।
अस्पृश्यता विद्यालयों से ही नहीं, घरों से भी दूर हो, इसके लिए सावरकर अनेकानेक घरों में गए। वहां उनके साथ भिन्न जातियों के लोग होते थे। वे दशहरा व मकर संक्रांति के अवसरों पर ये यात्राएं करते थे। हिंदू महिलाओं की सभाओं में सावरकर ऐसी व्यवस्था करते कि पहले अस्पृश्य रहीं महिलाएं 'ऊंची' जाति की महिलाओं को कुमकुम लगाएं। सावरकर ने पहले अस्पृश्यों में गिनी जाने वाली महिलाओं की एक संगीत मंडली भी बनाई और उन्हें वे आर्थिक सहायता भी देते थे। इस कार्य के लिए उन्होंने बैंक से ऋण भी लिया था। 1 मई, 1933 को उन्होंने एक कैफे की शुरुआत की जो अन्य जातियों के साथ 'अस्पृश्यों' के लिए भी था। यह समूचे भारत का पहला अखिल-हिंदू कैफे था। उन्होंने चाय, पानी आदि बांटने के लिए महार जाति के एक व्यक्ति को रखा था। सावरकर से मिलने आने वाले किसी भी व्यक्ति के लिए उस कैफे में जाकर पहले चाय पीना अनिवार्य था। उन दिनों ऐसी छोटी-सी शुरुआत बहुत साहस का काम थी।
1920 के दशक में सभी जातियों के लोगों का साथ बैठकर खाना असंभव होता था। परंतु सावरकर ने किसी की परवाह किए बिना इसकी शुरुआत की थी। उनके समाज सुधार कायार्ें में सभी जातियों की भूमिका थी। उस समय ब्राह्मण मराठों के साथ बैठकर खाना नहीं खाते थे, मराठे, महारों व कुम्हारों के साथ भोजन नहीं करते थे; महार व कुम्हार सफाईकर्मी वर्ग के साथ खाने पर नहीं बैठते थे। कभी-कभार महार वर्ग के लोग सावरकर को उनके साथ बैठकर भोजन करने की चुनौती देते थे। सावरकर इसे खुशी-खुशी मान लेते और उसी समय किसी और निम्न जाति के व्यक्ति को पीने के लिए पानी लाने को कहते।
सावरकर ने उन लोगों के लिए शुद्घि (शुद्घिकरण या धर्मपरिवर्तन) की भी शुरुआत की जिन्होंने किसी धमकी या प्रलोभन के चलते हिंदू धर्म छोड़ा था। 22 फरवरी, 1933 को उत्सव रूप में उन्होंने अस्पृश्यता का पुतला भी फूंका था। अस्पृश्यता के खिलाफ महाड व नासिक में डॉ़ आंबेडकर के अभियानों का उन्होंने समर्थन किया था।
पतितपावन मंदिर
सावरकर एक ऐसा मंदिर स्थापित करना चाहते थे जो सभी हिंदुओं के लिए हो। इस क्रांतिकारी अभियान हेतु उन्हें भागोजी सेठ कीर, डॉ़ महादेव गणपत शिंदे, काशीनाथ लक्ष्मण पारुलेकर एवं अन्य ईमानदार सहयोगी भी मिले। 10 मार्च, 1929 को महाशिवरात्रि के दिन, शंकराचार्य डॉ. कुर्तकोटि ने इस मंदिर की आधारशिला रखी थी। स्नान के बाद कोई भी हिंदू यहां पूजा कर सकता था। मंदिर के पुजारी का ब्राह्मण होना अनिवार्य नहीं था। मंदिर के न्यास में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र व अस्पृश्य समुदायों व कीर जाति का एक नुमाइंदा था। सावरकर का विश्वास था कि समूचा हिंदू समाज विदेशी दमन के आगे झुका है। इसलिए उन्होंने इस मंदिर को 'पतितपावन मंदिर' का नाम दिया था। मंदिर के उद्घाटन के अवसर पर पुणे के राजभोज के कुम्हार समुदाय के नेता ने शंकराचार्य डॉ. कुर्तकोटि के पैरों को अपने हाथों से धोया था। उस समय तक अस्पृश्यों को शंकराचार्य को सीधे प्रणाम करने का अधिकार नहीं था। अत: इस तथ्य में हैरानी नहीं कि समाजसेवा में सावरकर के अथक प्रयासों को उनके राजनीतिक विरोधियों ने भी सराहा। ब्रह्म समाज के नेता व दमित वर्ग मंडल प्रमुख विट्ठल रामजी शिंदे भी फरवरी 1933 में रत्नागिरि आए थे। वहां सावरकर के कायार्ें को देखकर उनके शब्द थे, ''मैं सावरकर की उपलब्धियों को देखकर अभिभूूत हूं और ईश्वर से प्रार्थना करता हूं कि मेरा बचा हुआ जीवन भी वह सावरकर को दे दे ताकि वह मेरी आकांक्षाओं व अभिलाषाओं को पूरा कर सकें।'' इसलिए उनकी याद में हम उनके आदशार्ें का अनुसरण कर सकते हैं जिनके लिए उन्होंने अपने घर-परिवार को भी भुला दिया था! -डॉ़ श्रीरंग गोडबोले
लेखक ने www.savarkar.org के गठन में सहयोग किया है।
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