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थोलिक पंथ के प्रमुख पोप फ्रान्सिस ने टेरेसा को 'संत पद' प्रदान करने के प्रस्ताव पर हस्ताक्षर किए हैं। जिन कैथोलिक पंथ के प्रसारकों ने अपने पंथ और यूरोपीय साम्राज्य के विस्तार के लिए विशेष प्रयास किए, उन्हें संत पद प्रदान करने की प्रणाली कैथोलिक पंथ में काफी पहले से है। इसके अनुसार टेरेसा द्वारा कोलकाता स्थित अपनी मिशनरी ऑफ चैरिटीज संस्था की ओर से किए गए पंथ प्रसार के कार्य के लिए उन्हें यह संत पद प्रदान किया जाना है। जिन लोगों को यह पद दिया जाता है, उनकी छवि ऐसी दिखाई जाती है जैसे उन्होंने उस क्षेत्र के गरीबों के लिए खूब काम किया हो। लेकिन संत पद की असली कसौटी यही होती है कि उन्होंने उस क्षेत्र में ईसाई साम्राज्य और यूरोपीय साम्राज्य का कितना प्रसार किया है। टेरेसा को भी यह संत पद पश्चिम बंगाल और आसपास के क्षेत्र में ईसाइयत के विस्तार के लिए मिला है। पंथ विस्तार एवं साम्राज्य विस्तार का काम करते हुए जिन्होंने नरसंहार किये हों, बड़े पैमाने पर कन्वर्जन करवाया हो और स्थानीय लोगों की नाराजगी कुचलने के लिए किसी भी हद तक जाकर प्रताड़ना के काम किए हों, तो ऐसे लोगों को भी संत पद प्रदान करने में वेटिकन परिषद आनाकानी नहीं करती है।
टेरेसा की भारत में छवि गरीब-असहायों के लिए मददकर्ता के रूप में बनाई गई, लेकिन चर्च संगठनों द्वारा पूर्वी भारत में किए गए कन्वर्जन और स्वतंत्र देशों में इनके द्वारा खड़े किए गए मनगढ़ंत आंदोलन देखें, तो समझ में आता है कि इन सबका असली उद्देश्य क्या है। जिस समय संत पद की घोषणा की जाती है, तब गुणगान किया जाता है कि फलां इंसान कैसे गरीबों का मसीहा रहा था। लेकिन ऐसे विस्तार कार्य से ही इन यूरोपीय देशों ने विश्व के अनेक देशों पर गुलामी थोपी और उनकी सम्पत्ति लूटी। भारत उन देशों में से एक है। भारत पर किसी ना किसी तरह से एक हजार वषोंर् तक दूसरों ने राज किया। इसलिए ऐसे प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष आक्रामकों से सचेत रहना अत्यंत आवश्यक है।
टेरेसा को संत पद प्राप्त हो, इसके लिए उनके काम के साथ-साथ दो 'चमत्कारों' की जरूरत थी। पहला चमत्कार उनकी मृत्यु के एक वर्ष बाद यानी 1998 में घटा। दूसरा 2008 में। पहला 'चमत्कार' भारत में पश्चिम बंगाल के कोलकाता से 450 किमी. दूर एक ग्रामीण क्षेत्र में मोनिका बेसरा नामक महिला के पेट में बड़ी गांठ होने और उसके कारण उसे अत्यंत वेदना होने से सम्बधित था। चर्च के अनुसार, उसने भी टेरेसा की प्रार्थना की जिसके कारण ट्यूमर गायब हो गया। यह मामला वर्ष 1998 का था। जबकि उस महिला का उपचार करने वाले पश्चिम बंगाल सरकार के बेलूरघाट अस्पताल के डॉक्टर रंजन ने तत्काल जाहिर किया था कि उस महिला के पेट का ट्यूमर और चमत्कार का कोई संबंध नहीं है। उसकी समस्या का व्यवस्थित उपचार किया गया था। उस उपचार को उसके शरीर ने किस तरह से प्रतिसाद दिया और वह ट्यूमर कैसे ठीक हुआ, इसकी 'मेडिकल हिस्ट्री' आज तैयार है। इसलिए इसका किसी भी संत पद अथवा चमत्कारों से कोई संबंध नहीं है। जिस दूसरे 'चमत्कार' के कारण उनके संत पद पर मुहर लगी, वह थी ब्राजील के एक मैकेनिकल इंजीनियर के मस्तिष्क में रोग के बारे में। 9 दिसंबर, 2008 को उसका ऑपरेशन कराना था। ऑपरेशन की तैयारी भी हुई, लेकिन ऑपरेशन से कुछ घंटे पहले उसकी पत्नी ने टेरेसा की प्रार्थना की और पति को आराम मिलने की दुआ मांगी। दूसरी तरफ उस व्यक्ति को ऑपरेशन के लिए ले जाए जाने के बाद डॉक्टरों ने पाया कि उसके मस्तिष्क का रोग गायब हो चुका था। यह उस 'व्यक्ति की पत्नी की प्रार्थना का ही परिणाम' था। इस तरह का प्रमाणपत्र उन डॉक्टरों ने दिया और अमरीका के चिकित्सा क्षेत्र की यंत्रणा और अनेक संगठनों ने भी इस भारत में पिछले कुछ समय से अंधविश्वास निर्मूलन और सहिष्णुता-असहिष्णुता पर चर्चा का माहौल है। इस संदर्भ में टेरेसा के 'चमत्कारों' को देखने की जरूरत है। किसी बीमारी पर किसी भी चिकित्सा प्रणाली के उपचारों को अच्छा प्रतिसाद मिलता हो तो उसे चमत्कार वगैरह मानने की कोई जरूरत नहीं। लेकिन उसका चिकित्सकीय अथवा तार्किक विश्लेषण दिया जाना आवश्यक है। भारत में योगशास्त्र ने ऐसे एक नहीं बल्कि हजारों रोगियों को केवल प्राणायाम और आसनों की सहायता से ही ठीक कर दिया है। प्राणायाम से शरीर में प्राणवायु की मात्रा बढ़ती है और शरीर की कोई भी समस्या अथवा बीमारी धीरे-धीरे ठीक होती है, यह हजारों लोगों का अनुभव है। 90 वर्ष पूर्व स्वामी कुवलयानंद ने पहली बार योगाभ्यास का चिकित्सकीय प्रयोग किया और इसी विषय पर पहली प्रयोगशाला मुंबई से 100 किमी. दूर लोनावला में स्थापित की, उसका शास्त्र बनाया। इसके बाद भारत और दुनिया में भी अनेक भारतीय महापुरुषों ने इस पर काफी प्रयोग किए। पिछले 50-60 वर्षों के उदाहरण लें तो योगाचार्य बी.के.एस आयंगर, बिहार स्कूल ऑफ योग सहित कई संतों के उदाहरण देखेे जा सकते हैं। स्वामी रामदेव द्वारा इस क्षेत्र में किया गया कार्य तो उल्लेखनीय है ही। इस तरह हजारांे वर्ष पुरानी योगाभ्यास की परंपरा का पालन करने वाले भारत में किसी भी मेडिकल उपचार के असाध्य रोगों के ठीक होने के उदाहरण कई डॉक्टर ही बताएंगे पर उसे कोई चमत्कार भी नहीं कहेगा। इस पृष्ठभूमि में मदर टेरेसा के निधन के बाद उनके नाम पर 'चमत्कार' का बिल्ला चिपकाना पूरी तरह से तर्कहीन है। पोप ने भी उनके काम को चमत्कार माना है, बल्कि इसके आधार पर अपनी परंपरा का सवार्ेच्च सम्मान प्रस्तावित किया है, जो अगले वर्ष विशाल महोत्सव आयोजित करवाकर प्रदान किया जाएगा। उस प्रत्येक अवसर पर उसकी व्यर्थता पर चर्चा होना आवश्यक है।
पिछले महीने ही अमरीका में कैलिफोर्निया के एक 300 वर्ष पूर्व के मिशनरी को इसी तरह संत पद की पदवी के लिए चुना गया था। उस संत के संत पद पर खुद कैलिफोर्निया के ही कई चर्चों में भी काला दिन मनाया गया। इसका एकमात्र कारण यह था कि कोलंबस के अमरीका में आने के बाद इन मिशनरियों ने अमरीका में बड़े पैमाने पर नरसंहार किए और कन्वर्जन कराए, जिससे उन स्थानों पर चर्च की सत्ता स्थापित हुई। भारत में जेवियर ने इसी तरह विशाल नरसंहार करवाकर कन्वर्जन कराया। इसका परिणाम यह हुआ कि यहां पुर्तगालियों के पैर जमे। उसी दौरान मुंबई के पास वसई में एक मिशनरी गोन्सालो गार्सिया ने भी कन्वर्जन कराया था। जापान में इसी तरह कन्वर्जन करवाने के कारण एक मिशनरी को फांसी दी गई। किसी मत प्रचारक को फांसी देना क्रूरता ही है, लेकिन उसके प्रयासों से दुनिया में गुलामी का प्रसार होता हो, तो स्थानीय सत्ताधारियों के पास और कोई विकल्प नहीं रहता। दुनिया में जितने भी लोग कैथोलिक संत के तौर पर घोषित किए गए हैं, उनमें से हर एक के काम के पीछे अति भयानक वेदना छुपी है। भारत की दृष्टि से विचार करें तो यहां पर एक हजार वर्षों तक आततायियों द्वारा भयंकर यातनाएं बरपाई गईं, जिसके बाद ही हमें स्वतंत्रता मिली है। यह सारी गुलामी मिशनरियों के कारण नहीं आई थी। लेकिन अगर मेरा पांथिक विचार मान्य ना हो तो अन्य किसी के अस्तित्व का अधिकार ही हमें मंजूर नहीं, इस तरह के उन्माद से ही गुलामी आई थी।
पहले 300 वर्ष भारत पर गजनी के इलाके से एक के बाद कई आक्रामकों ने राज किया। उसके बाद मुगल आए जो उनसे भी अधिक क्रूर थे। उनकी लूट 400 वषोंर् तक जारी रही। फिर इसके बाद अंग्रेजों द्वारा लूट शुरू हुई। उन आक्रामकों की समस्याओं से आज तक यह देश उबरा नहीं है। ऐसे समय में फिर से आक्रामकों की नई शैलियां दिख रही हैं। पहले ये लोग सीधे हमला बोल देते थे। अब 'समाजसेवा' और कुछ अन्य तरीकों से आक्रमणकारी बन गए हैं। कुछ प्रकार तो ऐसे हैं कि उनमें व्याप्त आक्रामकता सीधे ध्यान में आती ही नहीं। यह बात केवल 'संत पद' तक सीमित नहीं है। बदलते समय में आक्रमण की पद्धतियां भी आएदिन बदल रही हैं। अब तो एक तरफ संत पद का मंडन करने वाले संगठन देश के सभी देशद्रोहियों को एकत्र कर आतंकवादी हमलों को शह देते मालूम पड़ते हैं। जिन जिन स्थानों पर टेरेसा को संत पद दिए जाने संबंधी कार्यक्रम होंगे वहां वहां चर्च अपना शिकंजा पसारता जाएगा।
मोरेश्वर जोशी
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