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16 दिसंबर 2012 को दिल्ली मेें चलती बस में हुए सामूहिक निर्भया दुष्कर्म के विरुद्घ देशभर में जन आक्रोश की लहर दिखी थी। इस घटना को क्रूरता से अंजाम देने में अहम् भूमिका निभाने वाले नाबालिग अपराधी की रिहाई के बाद अब एक बार फिर दिल्ली की सड़कों पर वैसा ही गम और गुस्सा दिखाई दे रहा है। निर्भया के माता-पिता समेत अन्य संवेदनशील लोगों ने रिहाई रोकने के नजरिए से दिल्ली उच्च न्यायालय में याचिका भी दायर की थी, किंतु अदालत ने खारिज कर दी। इसकी अपील सवार्ेच्च न्यायालय में हो चुकी है। लेकिन यहां से भी उम्मीद कम ही है,क्योंकि कानून के हिसाब से अपराधी अधिकतम सजा पा चुका है। इंसाफ की यह मायूसी इसलिए सामने आ रही है,क्योंकि कानून के हाथ बंधे हैं। किसी अपराधी को उतनी ही सजा दी जा सकती है,जितनी कि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धाराओं में निर्धारित है। यह नौबत नहीं आती यदि लोकसभा से पारित हो चुका किशोर न्याय संशोधन विधेयक 2015 समय रहते राज्यसभा से भी पारित हो जाता संशोधित प्रारूप में दुष्कर्म, हत्या और तेजाबी हमलों जैसे खतरनाक अपराधों में शामिल नाबालिगों के खिलाफ भी वयस्क मुजरिमों की तरह मुकदमे चलेंगे, बशर्ते किशोर न्याय मंडल इसकी अनुमति दे। लेकिन संसदीय हुल्लड़ सामाजिक न्याय पर भारी पड़ा है।
जघन्य अपराध में शामिल 16 से 18 वर्ष के किशोरों के साथ वयस्कों जैसा बर्ताव हो, इस बाबत विधेयक लोकसभा में मई 2015 मेें पारित हो चुका था और राज्य सभा ने इसे पारित करने में इतनी देर कर दी थी कि नाबालिक अपराधी रिहा हो चुका था। दरअसल देश में घटित होने वाले संगीन अपराधों में किशोरों की संलिप्तता निरंतर बढ़ रही है। ऐसे में यह मंथन हो जाता है कि किशोर को नाबालिग अपराधी के नजरिए से देखा जाय अथवा बालिग के? यह जिम्मेदारी विधेयक के प्रारूप के अनुसार किशोर न्याय मंडल संभालेगा। मंडल ऐसी स्थिति में किशोर की अपराध के वक्त मनोदशा की पड़ताल करके यह निर्णय लेगा कि किशोर अपराधी को किस श्रेणी में रखा जाय। हालांकि विधेयक के कानून की शक्ल में बदलने के बाद भी यह कानून इस मामले में लागू शायद ही होता। क्योंकि कोई भी कानून बनने के बाद से ही लागू होता है। फिर भी संभव था कि सवार्ेच्च न्यायालय इस विशेष मामले में रिहाई की रोक का कोई रास्ता निकाल लेता! माहिला एवं बाल विकास मंत्री मेनका गांधी ने 'किशोर आपराधिक न्याय' देखभाल एवं बाल सरंक्षण कानून 2000 के स्थान पर नया कानून 'किशोर न्याय विधेयक-2014 प्रस्तुत किया है।' इसके मुताबिक किशोर अपराधियों की वयस्क होने की उम्र 18 वर्ष से घटाकर 16 कर दी गई है। मसलन अब उन पर वयस्कों पर लगने वाली भारतीय दण्ड प्रक्रिया संहिता की उन धाराओं के तहत मामला दर्ज होगा, जो वयस्क जघन्य अपराधियों पर दर्ज होते हैं। लेकिन मुकदमा चलाने का अंतिम फैसला किशोर न्याय मंडल (जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड) लेगा। बावजूद ऐसे मामलों में किशोर अपराधियांे को उम्रकैद या फांसी की सजा देने का प्रावधान प्रस्तावित संशोधित कानून के मसौदे में नहीं है। इस कानून में संशोधन बहुचर्चित 23 वर्षीय फिजियोथेरपिस्ट छात्रा से दुराचार और हत्या की पृष्ठभूमि से जुड़ा है। दरअसल इस सामूहिक बर्बरता में एक ऐसा नाबालिग जघन्य अभियुक्त भी शामिल था, जिसकी उम्र17 साल थी। इस कारण उसे इस जघन्य अपराध से जुड़े होने के बावजूद,अन्य आरोपियों की तरह न्यायालय मौत की सजा नहीं दे पाया। हमारे वर्तमान कानूनी प्रावधानों के अनुसार18 साल तक की उम्र के किशोरों को नाबालिग माना जाता है। नतीजतन नाबालिग मुजरिम के खिलाफ अलग से मुकदमा चला और उसे कानूनी मजबूरी के चलते तीन साल के लिए सुधार-गृह में भेज दिया गया जिसकी समय-सीमा 20 दिसंबर को पूरी हो गई। नतीजतन उसे छोड़ भी दिया गया।
दरअसल किशोरों को सुधार गृह भेजने की व्यवस्था के पीछे कानून निर्माताओं की मंशा थी कि किशोर अपराधियों में सुधार की ज्यादा उम्मीद रहती है। दंड देने से उनका भविष्य बर्बाद हो सकता है और वे ज्यादा खूंखार अपराधी बन सकते हैं। इसी मंशा के चलते किशोर न्याय अधिनियम में अपराधी की मनोदशा भांपने की कोशिश पर जोर दिया गया है। हालांकि ऐसे भी अनेक मामले हैं, जिनमें जघन्य अपराधी भी नाबालिग होने का लाभ लेकर कठोर सजा से बच निकले।
इस कानून के प्रारूप को संसद के पटल पर रखने के समय मेनका गांधी ने दावा किया था कि सभी यौन अपराधियों में से 50 फीसद अपराधों के दोषी 16 साल या इसी उम्र के आसपास के होते हैं। अधिकतर आरोपी किशोर न्याय अधिनियम के बारे में जानते हैं। लिहाजा उसका दुरुपयोग करते हैं। इसलिए यदि हम उन्हें साजीशन हत्या और दुष्कर्म के लिए वयस्क आरोपियों की तरह सजा देने लग जाएंगे तो उनमें कानून का डर पैदा होगा'। वैसे भी देश में किशोर अपराध के जितने मामले दर्ज होते हैं उनमें से 64 फीसद में आरोपी 16 से 18 वर्ष उम्र के किशोर ही होते हैं। हर साल देश में किशोरों के विरुद्घ करीब 34 हजार मामले दर्ज हो रहे हैं। उनमें से 22 हजार मामलों में आरोपी 16 से 18 वर्ष के हैं।
हालांकि दुनिया भर में बालिग और नाबालिगों के लिए अपराध दंड प्रक्रिया संहिता अलग-अलग हैं। किंतु अनेक विकसित देशों में अपराध की प्रकृति को घ्यान में रखते हुए, किशोर न्याय कानून वजूद में लाए गए हैं। नाबालिग यदि हत्या और बलात्कर जैसे जघन्य अपराधों में लिप्त पाए जाते हैं तो उनके साथ उम्र के आधार पर कोई उदारता नहीं बरती जाती है। कई देशों में नाबालिग की उम्र भी 18 साल से नीचे है। दरअसल बाल अपराधियों से विशेेष व्यवहार के पीछे सामाजिक दर्शन की लंबी परंपरा है। दुनिया के सभी सामाजिक दर्शन मानते हैं कि बालकों को अपराध की दहलीज पर पहुंचाने में एक हद तक समाज की भूमिका अंतर्निहित रहती है। आधुनिकता, शहरीकरण, उद्योग,बडे़ बांध, राजमार्ग व राष्ट्रीय उद्यानों के लिए किया गया विस्थापन भी बाल अपराधियों की संख्या बढ़ा रहा है। कुछ समय पहले कर्नाटक विधानसभा समिति की एक विशेष रिपोर्ट में दुष्कर्म और छेड़खानी की बढ़ी घटनाओं के लिए मोबाइल फोन को जिम्मेदार माना गया है। इससे निजात के लिए समिति ने स्कूल व कॉलेज में इस 'डिवाइस' पर पांबदी लगाने की सिफारिश की है। इस समिति की अध्यक्ष महिला विधायक शकुंतला शेट्टी हैं। हालांकि ऐसी रिपोर्ट पर हमारे देश में अमल संभव नहीं है, सो इस रिपोर्ट का भी यही हश्र हुआ। जाहिर है, विषमता आधारित विकास और संचार तकनीक यौन अपरोधों को बढ़ावा देने का काम कर रहे हैं। इस संदर्भ में गंभीरता से सोचने की जरूरत इसलिए भी है क्योंकि सरकारी आंकड़ांे के मुताबिक लगभग 95 प्रतिशत बाल अपराधी गरीब और वंचित तबकों से हैं।
सरकारी आंकड़े भले ही गरीब तबकों से आने वाले बाल अपराधियों की संख्या 95 फीसद बताते हों,लेकिन इसका अर्थ यह कतई नहीं है कि आर्थिक रूप से संपन्न या उच्च शिक्षित तबकों से आने वाले महज पांच फीसद ही बाल अपराधी हैं। सच्चाई यह है कि इस वर्ग में यौन अपराध बड़ी संख्या में घटित हो रहे हैं। क्योंकि इस तबके के बच्चों के माता-पिता बच्चों के स्वास्थ्य के प्रति सचेत रहते हैं। इन्हें पौष्टिक आहार भी खूब मिलता है। घर की आर्थिक संपन्नता और खुला माहौल भी इन बच्चों को जल्दी वयस्क बनाने का काम करता है। ये बच्चे छोटी उम्र में ही अश्लील साहित्य और फिल्में देखने लग जाते हैं, क्योंकि इनके पास उच्च गुणवत्ता के मोबाइल फोन सहज सुलभ रहते हैं। यही कारण है कि इस तबके के किशोरियों में गर्भ धारण के मामले बढ़ रहे हैं। इसी उम्र से जुड़े अविवाहित मातृत्व के मामले भी निरंतर सामने आ रहे हैं। बहरहाल सरकार और संसद कुछ जल्दबाजी के आवेग में ऐसा निर्णय न लें,जो असमानता से जुड़े समाज की व्यापक कसौटियों पर खरा न उतरे। गोया, कानून में किए जा रहे संशोधनों के प्रति बेहद सतर्कता बरतना जरूरी है।
प्रमोद भार्गव
जघन्य अपराध में शामिल 16 से 18 वर्ष के किशोरों के साथ वयस्कों जैसा बर्ताव हो, इस बाबत विधेयक लोकसभा में मई 2015 मेें पारित हो चुका है।
माहिला एवं बाल विकास मंत्री मेनका गांधी ने 'किशोर आपराधिक न्याय' देखभाल एवं बाल सरंक्षण कानून 2000 के स्थान पर नया कानून 'किशोर न्याय विधेयक-2014' प्रस्तुत किया है। इसके मुताबिक किशोर अपराधियों की वयस्क होने की उम्र 18 वर्ष से घटाकर 16 वर्ष कर दी गई है।
64 प्रतिशतअपराधों में आरोपी 16 से 18 वर्ष की उम्र के किशोर ही होते हैं। हर साल देश में किशोरों के विरुद्घ करीब 34 हजार मामले दर्ज हो रहे हैं। उनमें से 22 हजार मामलों में आरोपी 16 से 18 वर्ष के हैं।
हमारे वर्तमान कानूनी प्रावधानों के अनुसार18 साल तक की उम्र के किशोरों को नाबालिग माना जाता है। नतीजतन नाबालिग मुजरिम के खिलाफ अलग से मुकदमा चला और उसे कानूनी मजबूरी के चलते तीन साल के लिए सुधार-ग्ह में भेज दिया गया जिसकी समय-सीमा 20 दिसंबर को पूरी हो गई। नतीजतन उसे छोड़ भी दिया गया।
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