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संसद भवन में 17 दिसम्बर की सुबह एक ऐसा दृश्य दिखा जिसके बारे में समाजवादी पार्टी के वरिष्ठ नेता और विचारक प्रो.रामगोपाल यादव ने कहा-'मैं अपने 25-30 वर्षीय संसदीय जीवन में ऐसा कार्यक्रम पहली बार देख रहा हूं।' एक ही मंच पर भाजपा, कांग्रेस, भाकपा, माकपा, द्रमुक, बसपा और सपा के नेता थे तो उन्हीं के साथ में थे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वरिष्ठ सह सरकार्यवाह द्वय श्री दत्तात्रेय होसबले और डॉ. कृष्ण गोपाल। सभा में जदयू, कांग्रेस, टीआरएस,अन्नाद्रमुक के अलावा स्वतंत्र नामांकित सांसद जैसे सुश्री अनू आगा उपस्थित थे।
प्रसंग था-तमिलनाडु के महान संत कवि तिरुवल्लुवर की अमर कृति तिरुकुरल के संसद में गायन एवं प्रतिष्ठित तमिल साहित्यकारों के सम्मान का। समूचा तमिलनाडु इस बात को देखकर अचंभित था कि जो कार्य कभी किसी तमिल नेता या सांसद द्वारा संपन्न नहीं हो पाया वह उत्तराखंड के हिन्दी भाषी सांसद ने श्रद्धा और विनम्रता से पूरा कर समूचे दक्षिण को यह संदेश देना चाहा कि उत्तर में कोई दक्षिण का न विरोधी है न दक्षिण की भाषाओं के प्रति हीनता का भाव रखता है। यह विडंबना ही है कि पिछले दो हजार वर्षों से विश्वव्यापी तमिल समाज और दक्षिणी भाषा समूह के लोगांे पर गहरा प्रभाव रखने वाले तिरुवल्लुवर से उत्तर भारत अपरिचित ही रहा। उनकी रचना तिरुकुरल का अर्थ है-पवित्र सुभाषित। राजा-प्रजा, शासन-प्रशासन, घर-गृहस्थी, प्रेम, विरक्ति, अध्यात्म और समाज सुधार जैसे जीवन के विभिन्न अंगों और उपांगों के बारे में तिरूकुरल की दो-दो पंक्तियों के दोहों में अपार संसार का ज्ञान और दर्शन अंतर्निहित है।
तिरुकुरल का पहला सुभाषित ही कहता है कि जैसे संसार की सभी वर्णमालाआंे का पहला अक्षर 'अ' है वैसे ही इस संसार का जनक एक ही ईश्वर है। उसमें सभी धर्मों और पंथों के लिए स्वीकार्य बातें कही गई हैं। इसलिए तिरुकुरल को मानने वालों में हिन्दू, मुसलमान, ईसाई सभी होते हैं। तिरुकुरल के बारे में समूचा उत्तर अनभिज्ञ ही रहा। हम चाहते हैं कि तुलसीदास और वाल्मीकि, मीरा और कबीर सारे देश में पढ़े जाएं और सराहे जाएं, लेकिन क्या किसी ने यह भी प्रयास किया कि तमिल अथवा कन्नड़ और मलयालम की महानता, वहां के महान साहित्यकारों की जीवनगाथा और रचनाओं का परिचय भी उत्तर भारत के लोग पढ़ें? क्या केवल अशोक और विक्रमादित्य ही संपूर्ण भारत के प्रतिनिधि हो सकते हैं और हम राजा चोल, चेर, राजेन्द्र चोल, पाण्ड्य और कृष्ण देवराय को पूरी तरह उपेक्षित कर संपूर्ण देश की कल्पना सामने रख सकते हैं? यह हिन्दी और उत्तर भारत को पूरा देश मानने वालों का अहंकार नहीं माना जाना चाहिए कि वे इस बात की चिंता ही नहीं कर पाए कि मीरा के साथ आंडाल, कण्णगी, अव्य्यार, चेनम्मा और सुब्रह्मण्य भारती भी भारतीय सांस्कृतिक एवं भक्ति धारा के महान प्रतिनिधि हैं जिन्हें पूरे देश में परिचित कराने पर ही हम समग्र का ताना-बाना बुन सकते हैं।
राष्ट्रीय एकता की बात केवल एक भाषा -एक क्षेत्र के महापुरुषों के गायन एवं प्रचलन से ही नहीं हो सकती। नागालैंड की रानी गाइदिन्ल्यू ने 16 वर्ष की उम्र में अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ाई लड़ी और सारे कानून ताक पर रख अंग्रेजों ने उस गुरिल्ला योद्धा को तीन बटालियन ब्रिटिश फौज लगाकर जब पकड़ा तो उमकैद की सजा दी। पंडित नेहरू उस वीर योद्धा से मिलने कोहिमा जेल में गये तो उसकी सुंदरता और वीरता से प्रभावित होकर उसे रानी की उपाधि दी। बाद में इंदिरा गांधी ने उन्हें पद्मभूषण और स्वतंत्रता सेनानी के ताम्रपत्र से विभूषित किया। लेकिन कितने लोग हैं जो नागालैंड की उस महान स्वतंत्रता सेनानी के बारे में जानते हैं
हम रानी लक्ष्मीबाई की वीरता और पराक्रम की गाथाएं बचपन से सुनते आए और 'खूब लड़ी मर्दानी वो तो झांसी वाली रानी थी' जैसी कविताएं हमारे अधरों पर रहती हैं। लेकिन रानी लक्ष्मीबाई की महानता और वीरता को प्रणाम करते हुए भी यह सवाल पूछना ही पड़ेगा कि तमिलनाडु की महान साम्राज्ञी रानी वेलू नाच्चियार भारतीय नहीं?
क्या हमें पता है कि 1801 में तमिलनाडु में 400 तमिल स्वतंत्रता सेनानियों को एक दिन में अंग्रेजों ने फांसी पर चढ़ाया था? यह गाथा तमिलनाडु में सब जगह प्रचलित है सिवाय उत्तर भारत के । राष्ट्रीय दृष्टिकोण समूचे राष्ट्र के महापुरुषों को समान रूप से सम्मान देकर ही पैदा किया जा सकता है। कुछ समय पहले मैं राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी से मिलने गया तो उनसे राजेन्द्र चोल की महानता के बारे में चर्चा हुई। उन्होंने कहा कि राजेन्द्र चोल विश्व के महानतम नौसेना सम्राट थे। कंबोडिया, लाओस, वियतनाम तक राजेन्द्र चोल का साम्राज्य था। शिवाजी ने भी कान्होजी आंग्रे के नेतृत्व में जो नौसेना बनाई उसने राजेन्द्र चोल की नौसेना की ही तकनीक अपनायी थी। इस वर्ष राजेन्द्र चोल की एक हजारवीं जयंती मनायी जा रही है। तिरुवल्लुवर केवल तमिलनाडु नहीं, बल्कि संपूर्ण भारत के महान संत कवि थे जिनके प्रति हर भेदभाव और दलगत राजनीति की परिधियां लांघकर यदि राजनेता एकत्र हो सकते हैं तो भारतीय समाज और शिक्षा शास्त्री उन्हें अपनाने में क्यों विलंब करें? -तरुण विजय
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